9. अहमदशाह अब्दाली द्वारा दिल्ली तथा
अन्य नगरों को लूटना
सन् 1761 ईस्वी को अहमद शाह अब्दाली ने पानीपत के रणक्षेत्र में मराठों को हराकर
दिल्ली और उसके निकट के नगरों को खूब लूटा। उनकी लूट और लालसा की सीमा न थी,
उन्होंने विजयी होने के अहँकार में हजारों भारतीय सुन्दर महिलाओं का बलपूर्वक अपहरण
कर लिया और उन्हें भोग-विलास की वस्तु समझकर जबरदस्ती कैदी बनाकर अपने साथ
अफगानिस्तान ले जाने लगे। रास्ते में उन्होंने कुरूक्षेत्र, थानेसर (थानेश्वर),
पेहवा आदि धार्मिक स्थानों को भी खूब लूटा। यहाँ के मन्दिरों का अपमान किया और
सुन्दर बहू-बेटियों को घरों से बलपूर्वक उठा लिया। उस समय देश में मानों आत्मसम्मान
लुप्त हो गया हो, जैसी स्थिति चारों ओर दिखाई दे रही थी। यद्यपि अनगिनत हिन्दू राजा
और शूरवीर योद्धा कहलाने वाले भारत भूमि पर विद्यमान थे, किन्तु उनके नैतिक पतन की
कोई सीमा न थी। उनमें से एक भी माई का लाल भारतीय नारियों की लाज बचाने के लिए जान
पर खेलने को तैयार न था। जब प्रभावित लोग सभी ओर से निराश हो गए तो कुछ हिन्दू तथा
मुसलमान नेताओं ने सोचा कि सिक्खों से प्रार्थना की जाए। जब 13 अप्रैल, 1761 ईस्वी
को वैशाखी का पर्व था। हर वर्ष की भान्ति ‘दल खालसा’ अपना जन्मदिन मनाने श्री
अमृतसर नगर में एकत्रित हुआ तो इन पीड़ित व्यक्तियों के समूह ने खालसा पँथ के समक्ष
अकालतख्त पर विराजमान सिक्ख नेताओं के सम्मुख अपनी फरियाद रखी और कहा कि गुरू का
खालसा ही इन अबला नारियों की लाज रख सकता है क्योंकि हम सभी ओर से निराश होकर आपकी
शरण में आए हैं। खालसा असहाय लोगों की रक्षा के लिए पहले से ही वचनबद्ध है, अतः
तुरन्त दीनों की प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। दल खालसा ने इससे पहले भी कई बार अबला
महिलाओं की सुरक्षा के लिए आत्मबलिदान दिए थे। पहली बार सन् 1739 ईस्वी में
नादिरशाह के चगुँल से 2200 सुन्दर महिलाओं को छुड़वाया गया था और दूसरी बार अहमद शाह
अब्दाली से भी बहुत बड़ी सँख्या में पीड़ित नारियों को छुड़वा चुके थे।
अहमदशाह अब्दाली के चगुँल से भारतीय बहू बेटियों को मुक्त करवाना
गुरू दरबार में की गई दीन दुखियों की पुकार अनसुनी नहीं रह सकती थी। गुरू का सजीव
रूप ‘खालसा’ ही तो है। अतः दल खालसा के मुख्य नेता बनने का गौरव सरदार जस्सा सिंह
आहलूवालिया जी को प्राप्त था। दीनों की करूणामय पुकार पर सरदार जस्सा सिंह जी ने
अपनी म्यान में से खड्ग (तलवार) निकालकर अबला नारियों को मुक्त करवाने की शपथ ली और
सभी सहयोगी सरदारों से मिलकर एक विशाल योजना बनाई। इस योजना में खालसा जी ने युक्ति
से सभी कार्यों से सफलतापूर्वक निपटने के लिए नये सिरे से सेना का गठन किया और उनको
अलग अलग कार्य सौंप दिए। जस्सा सिंह जी को उनके गुप्तचर विभाग द्वारा अहमदशाह की सभी
गतिविधियों की जानकारियाँ प्राप्त हो रही थी । अतः जस्सा सिंह जी ने अपनी नई युक्ति
अनुसार समस्त दल खालसा को तीन भागों में विभाजित कर दिया और दोआबा क्षेत्र में
जरनैली सड़क के आसपास घने जँगलों में छिप जाने को कहा। युद्ध नीति यह बनाई गई कि जब
अब्दाली की सेना व्यास नदी का पतन पार करने में व्यस्त हो, उस समय उस पर तीन दिशाओं
से एक साथ आक्रमण किया जाए केवल पश्चिम दिशा अफगानिस्तान वापिस भागने का रास्ता खुला
रखा जाए ताकि शत्रु पराजित होकर भागने में अपनी कुशलता समझें। उन दिनों दल खालसा के
पास लगभग दस हजार घुड़सवार सैनिक और 20 से 25 हजार के बीच प्यादे थे। निर्णय यह हुआ
कि ठीक शिखर दोपहर 12 बजे जँगलों में से निकलकर खालसा अब्दाली के शिविरों में कैद
महिलाओं के काफिलों पर धावा बोलेगा, प्यादे अफगान सिपाहियों से जूझेंगे और प्रत्येक
घुड़सवार एक एक महिला को अपने घोड़ों पर बैठाकर उन्हें वापिस जँगलों में पहुँचाएँगे।
जैसे ही यह कार्य पूर्ण हो जाए सभी प्यादे सैनिक भी रणक्षेत्र छोड़कर वापिस अपने
ठिकाने पर आ जाएँगे।
दूसरी ओर इस बार अहमदशाह अब्दाली भी सिक्खों के छापामार युद्धों
से सतर्क था। उसे पिछले बहुत से कड़वे अनुभव थे। जब सिक्खों ने उसे नाकों चने चबवाए
थे। अतः वह अब पिछली भूलों से सबक सीख चुका था। इस बार उसने बहुत सावधानी से अपने
सम्पूर्ण लश्कर को कड़े पहरे में एक साथ चलने का आदेश दिया था। जब वह सतलुज नदी
कुशलक्षेम पार कर गया तो उसने व्यास नदी पार करने के लिए उसके तट पर विश्राम शिविर
डाला। तभी सिक्खों के गुप्तचर उसके काफिले में सम्मिलित होकर सभी सूचनाएँ इक्ट्ठी
करते रहे, जैसे ही उसके अग्रणी सैनिक दस्ता व्यास पार पहुँचा तभी पीछे से तीनों
दिशाओं से खालसा दल ने उन्हें आ दबोचा। इस समय दोपहर के ठीक 12 बजे थे और सिक्खों
के 12 जत्थेदारों ने अपने अपने दलों के साथ इस युद्ध में भाग लिया था। यह युद्ध इस
तीव्र गति से आरम्भ किया गया कि शत्रु को सम्भलने का अवसर ही नहीं मिल पाया। अब्दाली
के कुछ सैनिक तो व्यास नदी पार कर चुके थे जो कि अब इस युद्ध में भाग नहीं ले सकते
थे बाकि सैनिक शिविर में सामान बाँधने और चलने की तैयारी में व्यस्त थे कि तभी तीनों
ओर से जयघोष के नारे सुनाई देने लगे थे ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’। अकस्मात
विपत्ति के आने के कारण बहुत से अफगान सिपाहियों ने धैर्य छोड़ दिया और वे भाग खड़े
हुए, बहुत से मनोबल टूटने से सामना नहीं कर पाए और मारे गए। इस आपाधापी में घुड़सवार
सिक्ख सिपाहियों ने उन शिविरों से वे सभी महिलाएँ मुक्त करवा लीं जो उनकी दृष्टि
में पड़ गई थी। जैसे ही मुख्य लक्ष्य का कार्य सम्पूर्ण हुआ, तभी जत्थेदार जी ने
साँकेतिक भाषा में हरन-हरन का सँदेश दिया। इसका अर्थ था कि कार्य सम्पूर्ण हो गया
है, जल्दी से लौट चलो। इसका भावार्थ था कि युद्ध का लम्बा खींचना हमारे लिए
हानिकारक हो सकता है, समय रहते लुप्त हो जाओ।
कुछ प्यादे सिपाहियों ने अब्दाली द्वारा लूटे हुए माल में से
बहुत सा धन भी प्राप्त कर लिया, परन्तु जब तक अब्दाली के सैनिक सँभलते और उन्हें
ललकारते, तब तक सिक्ख सिपाही अपना काम कर चुके थे। इस प्रकार एक हजार कैदी स्त्रियों
को छुड़वा लिया गया और उन्हें रास्ते का खर्च देकर उनके घरों को भिजवा दिया। इस
सहानुभूति और वीरता के कारण साधारण जनता के हृदय में ‘दल खालसा’ के लिए स्नेह
उत्पन्न हो गया और वे इन महान सपूतों को आशीष देने लगे। इस प्रकार निहंग सिंघों का
घर घर मान सम्मान होने लगा। माताएँ अपने पुत्रों को सिक्ख बनकर धर्मरक्षक बनने की
प्रेरणा करने लगीं। युद्ध में अब्दाली को पराजित करके महिलाओं को स्वतन्त्र करवाने
की प्रतिक्रिया की सफलता पर जस्सा सिंघ भारतीय जनता में एक नायक के रूप में विख्यात
हो गए। इस युद्ध में सिक्खों के 12 जत्थों ने भाग लिया था और ठीक दिन के बारह (12)
बजे आक्रमण किया गया था, उस दिन से सिक्खों को वीरता दिखाने की प्रेरणा देने के लिए
बारह (12) बजे का सँकेत याद दिलवाकर जनसाधारण उन्हें प्रोत्साहित करने लगे थे। दूसरी
तरफ अब्दाली सिक्खों की इस वीरता को देखकर आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सका। वह क्रोध्
में बौखला उठा और उसने अगली बार सिक्खों को कुचलने की कसम खाई। इस प्रकार वह बहुत
सा धन और सैनिक खोकर अप्रैल के अन्त में लाहौर नगर पहुँच गया। अप्रैल के अन्त में
सन् 1761 ईस्वी को अहमदशाह अब्दाली जैसे तैये बचा हुआ माल लेकर लाहौर पहुँच गया।
उसने बुलँद खान के स्थान पर ख्वाजा उवैद खान को लाहौर का हाकिम तथा घुमण्डचन्द कटोच
को दोआबा स्थित जालन्धर का फौजदार नियुक्त कर दिया। अफगानिस्तान की ओर लौटने से
पूर्व अपने चार महल के फौजदार हस्तम खान के स्थान पर ख्वाजा मिर्जा जान को भी
फौजदार बना दिया।