8. भारत पर अहमदशाह अब्दाली का पाँचवां
आक्रमण
राजकुमार तैमूर और उसके फौजी सेनापति जहान खान को अदीना बेग के दल तथा सिक्खों और
मराठों की सँयुक्त शक्ति ने हराकर पँजाब से भगा दिया। अहमदशाह अब्दाली राजकुमार की
पराजय को अपनी पराजय समझता था, इसलिए वह मराठों और सिक्खों को इस उद्दण्डता के लिए
उचित दण्ड देना चाहता था। अतः उसने सन् 1759 ईस्वी के अन्त में सर्दियों में पँजाब
पर पाँचवां आक्रमण कर दिया। अदीना बेग की मृत्यु के बाद मराठों की ओर से नियुक्त
उनका राज्यपाल ‘समाली’ तो अहमदशाह अब्दाली के आने की सूचना पाते ही लाहौर नगर खाली
करके वापिस भाग गया, परन्तु सिक्खों ने उसके साथ दो-दो हाथ करने का मन बना लिया।
सरदार जस्सा सिंह जी के नेतृत्त्व में सिक्खों ने उस पर कई धावे बोले और उसकी बहुत
सी रण सामग्री लूट ली। इस समय अब्दाली का लक्ष्य केवल मराठे थे, अतः उसने सिक्खों
के धावों का कोई उत्तर नहीं दिया। लाहौर की विजय के बाद अब्दाली ने पँजाब का
प्रबन्ध करने के लिए हाज़ी करीम खान को वहाँ का राज्यपाल नियुक्त किया और स्वयँ
दिल्ली के मँत्री गाजीउद्दीन और मराठों को दण्ड देने के लिए दिल्ली प्रस्थान कर गया।
मराठों के एक दस्ते ने दाता जी के नेतृत्त्व में तरावड़ी नामक स्थान पर अहमदशाह
अब्दाली का सामना किया किन्तु पराजय के कारण पीछे हट गए। अब्दाली अपने लिए नई विशाल
सेना तैयार करने के लिए लगभग एक वर्ष तक दिल्ली के आसपास ही रूका रहा ताकि वह मराठों
को प्रभावशाली ढँग से पराजित कर सके। अन्त में अच्छी प्रकार सुसज्जित होकर अहमदशाह
पानीपत के प्रसिद्ध रणक्षेत्र में मराठों के सामने आ डटा। पानीपत का तीसरा प्रसिद्ध
युद्ध, जिनमें मराठों के भाग्य का पूरा निर्णय कर दिया, 14 जनवरी, 1767 ईस्वी को
हुआ। मराठों और अफगानों की सेना लगभग बराबर ही थी। मराठों के पास भारी तोपखाना भी
था। इसके मुकाबले में अफगानों के पास श्रेष्ठ पैदल सेना और श्रेष्ठ सेनापति था,
भयँकर युद्ध हुआ परन्तु मराठें पराजित हुए। इनमें से अधिक रणक्षेत्र में मारे गए।
इस प्रकार पानीपत का रणक्षेत्र अहमदशाह के हाथ रहा। उधर दिल्ली की हकूमत के वजीर
इमादुल मुलक गाजी-उ-दीन ने 29 नवम्बर, 1759 को बादशाह आलमगीर द्वितीय को मरवा दिया।
अब्दाली ने बादशाह आलमगीर द्वितीय के पुत्र शाह आलम द्वितीय को दिल्ली का नया
बादशाह बना दिया। 7 नवम्बर, 1759 की दीवाली को खालसा दल का एक भारी सम्मेलन श्री
अमृतसर साहिब जी में हुआ, जिसमें समस्त जत्थेदारों ने भाग लिया। इस ‘सरबत खालसा’ के
सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि अहमदशाह अब्दाली की दिल्ली से वापिसी के पूर्व
ही लाहौर में अफगान प्रशासन को ऐसी कड़ी चोट पहुँचाई जाए ताकि अब्दाली आतँकित हो उठे।
इसके पीछे सिक्खों का एक ही लक्ष्य था कि मराठों पर विजय प्राप्त करने के कारण
अहमदशाह का कहीं अभियान में सिर न फिर जाए। अतः वह सिक्खों से लोहा लेने से पूर्व
कुछ सोच विचार कर ले। दल खालसा ने लाहौर प्रशासन से नज़राना वसूल किया गुरूमते के
अनुसार दल खालसा ने जत्थेदार जस्सा सिंह आहलूवालिया के नेतृत्त्व में लाहौर पर धावा
बोल दिया और वहाँ की बाहरी बस्तियों पर अधिकार कर लिया। स्थानीय प्रशासक मीर
मुहम्मद खान ने शहर के दरवाजे बँद करवा दिए। इस प्रकार लाहौर नगर अपने आप ही घेरे
में आ गया और सभी तरह का आवागमन बन्द हो गया। ग्यारह दिन तक पूरी तरह घेरा पड़ा रहा।
जनता परेशान हो उठी और मीर मुहम्मद खान भी घबरा गया। किन्तु सिक्ख तो जनता को
परेशान करने के पक्ष में नहीं थे। वे तो केवल प्रशासन को एक झटका देना चाहते थे। अतः
सरदार लहना सिंह ने एक दूत को मीर मुहम्मद खान के पास यह सूचना देने के लिए भेजा कि
यदि वह अपनी कुशलक्षेम चाहता है तो सिक्खों को नज़राने के रूप में रकम अदा करें। मीर
मुहम्मद खान तो सिक्खों की अपार शक्ति को देखकर लाचार था। उसने जैसे तैसे तीस हजार
रूपये खालसा जी को देग-तेग कड़ाह प्रसाद के लिए भेंट किए। इस पर दल खालसा वापिस लौट
आया।