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4. अनुशासनप्रियता

दल खालसा के जवानों में यह बात हर कोई जानता था कि जस्सा सिंह युद्ध कला और गुरूजनों की शिक्षा प्राप्त कर इतना प्रवीण हो चुका है कि वह रणभूमि में कवच धारण करने में सँकोच करता है और अपने युवक साथियों को भी समझाता कि कवच धरण करने से लड़ने में बाधा आती है। उसका मनोबल इतना विकसित हो गया था कि यह मृत्यु को एक खेल समझने लगा था। जस्सा सिंह शूरवीर होने के बावजूद बड़े नम्र स्वभाव का था। वह खुलासा दीवानों सम्मेलनों में उपस्थित जनसमूह की हर प्रकार से सेवा करने में अपना गौरव समझता था। वह सतसँग में पँखा झूलाने व लँगर में जूठे बर्तन माँजने में अपना कल्याण समझता था। गुरूबाणी के पाठ और शब्द कीर्तन के समय भी सबसे आगे रहता। उसने इन सभी गुणों के कारण सरदार कपूर सिंह जी तथा अन्य वयोवृद्ध नेताओं का मन जीत लिया। सरदार कपूर सिंह जी की अनुशासनप्रियता के कारण जस्सा सिंह बड़ा कर्त्तव्यपरायण सिद्ध हुआ। एक रात मूसलाधर वर्षा होने लगी। वायु की तीव्रगति और कौंधती बिजली ने वातावरण को भययुक्त बना दिया। नवाब कपूर सिंह जी ने लम्बी आवाज लगाकर पुकारा कि ‘है कोई ! इस समय पहरे पर सन्तरी ?’ तभी उत्तर में जस्सा सिंह ने कहा कि ‘मैं हूँ, हजूर’। निकट आकर वयोवृद्ध सेनानायक कपूर सिंह जी ने अति प्रसन्नता प्रकट की और जस्सा सिंह की पीठ थपथपाते हुए कहाः जवाना ! तूँ निहाल है। अगली सुबह, नवाब कपूर सिंह जी ने समस्त सैनिकों के सामने जस्सा सिंह को बुलाकर उसके कर्त्तव्यपरायणता की सराहना की और उसे पदोन्नति देकर अपने प्रबँधक पद पर आसीन कर दिया। नवाब कपूर सिंह जी के साथ सदा रहने के कारण जस्सा सिंह को इस बात का ज्ञान हो गया कि सिक्ख जत्थों का निर्माण किस ढँग से किया जाता है और इनकी सँख्या कम करने के क्या कारण हैं। जब खालसा पँथ में दो दल स्थापित हो गए तो वह तब भी नवाब साहिब के बुड्ढा दल के साथ ही जुड़े रहे। इस प्रतिक्रिया के समय जस्सा सिंह को दीवान दरबारा सिंह जी के अतिरिक्त संगत सिंह खजाँची, हरी सिंह, देवा सिंह, बदन सिंह, केहर सिंह, बज्जर सिंह, घनघोर सिंह और अमर सिंह जैसे वयोवृद्ध, मुख्य सिक्ख नेताओं के सम्पर्क में आने का अवसर मिला। इन लोगों के साथ रहने से उसे सिक्खों के राजनीतिक एँव सामाजिक लक्ष्यों का ज्ञान होना स्वाभाविक सी बात थी। जस्सा सिंह को अब तक इस बात का पूर्ण ज्ञान हो चुका था कि सिक्ख धर्म ऐसी धारणाओं का प्रतीक है, जो एकमात्र मानवीय भाई चारे की स्थापना में सँलग्न हों। यह भ्रातवाद एकदम नैतिक सिद्धान्तों पर स्थित हो। इन परिस्थितियों में न तो कोई किसी को डराये और न ही दूसरों से भयभीत हो, सामाजिक स्तर पर किसी प्रकार का भेदभाव न हो। इससे ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान एवँ निराकार रूप पर अटूट भरोसा हो तथा प्रत्येक प्राणी मात्र को उस दिव्य ज्योति का अँश समझने की सदभावना हो। ऐसे समाज के निर्माण हेतु राजनैतिक शक्ति की प्राप्ति अति आवश्यक शर्त थी। युवक जस्सा सिंह ने इस बात का अनुभव कर लिया था। युवक जस्सा सिंह के समक्ष तत्कालीन मुगल साम्राज्य सिक्ख पँथ के समूल नाश के लिए कमर कसे खड़ा था। यह चुनौति जस्सा सिंह ने स्वीकार की और दृढ़ निश्चय के साथ अकालपुरूष की ओट लेकर लक्ष्य की पूर्ति हेतु लम्बे सँग्राम में कूद पड़े। जस्सा सिंह की वेशभूषा से उसके स्वभावक की गम्भीरता और उन्नत मन के दर्शन होते थे। माता सुन्दरी जी की शरण में रहने के कारण वह दिल्ली के मुगलों की भान्ति पगड़ी बाँधने लगा था और दिल्ली वासियों की तरह वह भी हिन्दी भाषा का प्रयोग करता था। इसी कारण कुछ मस्खरे सिक्ख उसे ‘हमको–तुमको’ कहकर बुलाते थे। जस्सा सिंह अभी उभरता हुआ जवान था। वह कई बार इस परिहास के कारण परेशान होकर आँसू भरे नेत्रों से नवाब कपूर सिंह के पास जाकर कहता– ‘मुझ से दाना नहीं बाँटा जा सकता’। ऐसे में नवाब साहब उसे धीरज बँधाते हुए कहते– ‘घबराओ नहीं, तुम तो हज़ारों लोगों को दाना भोजन प्रदान करोगे और सबसे बड़े भण्डारी बनोंगे। यह सिक्ख पँथ गुरू की लाड़ली फौजें हैं। ‘सेवा से ही मेवा’ मिलता है। मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति को भी ‘गरीब निवाज़’ दीनबन्धु पँथ ने ‘नवाब’ बना दिया है, क्या मालूम तुम्हें बादशाही

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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