3. सरदार कपूर सिंह जी के पास
उन दिनों मुगल सरकार सिक्खों का सर्वनाश करने के लिए तुली हुई थी। अपने इस आशय की
पूर्ति के लिए उसने गश्ती सैनिक टुकड़ियाँ नियुक्त कर रखी थी। ये सैनिक टुकड़ियाँ
ढूँढ-ढूँढकर सिक्खों को गिरफ्तार कर लेतीं और डटकर मुकाबला करने वालों को मौत के
घाट उतार देतीं। मुगल सरकार का यह दमनचक्र लाहौर नगर के ईद-गिर्द कुछ अधिक कठोर था।
ऐसी अवस्था में बाघ सिंह ने यह उचित समझा कि हलो ग्राम त्यागकर जालन्धर में बसा जाए।
उन दिनों सरदार कपूर सिंह जी अपने जत्थे समेत करतारपुर नगर दोआबा के पास डेरा डाले
बैठे थे। सरदार बाघ सिंह जी प्रायः सरदार कपूर सिंह जी से मिलते रहते और तत्कालीन
राजनीतिक स्थिति पर विचारविमर्श करते। सँयोग से श्री गुरू नानक देव साहिब जी का
प्रकाश पर्व निकट आ गया। अतः बाघ सिंह के मन में यह भावना जागृत हुई कि यह एक बड़ा
शुभ अवसर होगा, यदि उसकी बहन और भाँजे जस्सा सिंह को गुरू पर्व के कार्यक्रमों में
कीर्तन करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए। उचित समय देखकर सरदार कपूर सिंह जी को अपने
मन की इच्छा बताई। सरदार कपूर सिंह जी ने माँ पुत्र द्वारा गाई गई गुरूबाणी सुनी तो
वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने गुरू पर्व उत्सव में माँ पुत्र को कीर्तन करने का
अवसर प्रदान किया। समस्त संगत ने माँ पुत्र द्वारा गाई ‘आसा की वार’ नामक वाणी का
दोतारे वाद्य से कीर्तन श्रवण किया और प्रसन्न हृदय से उनकी प्रशँसा की। संगत के
आग्रह करने पर सरदार कपूर सिंह जी ने जस्सा सिंह को अपने पास ठहरा लिया। जस्सा सिंह
की आयु उस समय लगभग 12 वर्ष की थी। इतनी छोटी अवस्था में उसके नियमित जीवन सुशील
स्वभाव, सेवाभाव इत्यादि शुभ गुण देखकर सरदार कपूर सिंह जी अत्यन्त प्रभावित हुए।
एक दिन उन्होंने बाघ सिंह और उनकी बहन से जस्सा सिंह को पँथ की सेवा हेतु माँग लिया।
सरदार कपूर सिंह जी का आग्रह, वे टाल नहीं सके। अतः उन्होंने बड़ी नम्रतापूर्वक
निवेदन किया कि ठीक है, हम अपने इस लाल को आपकी झोली शरण में डालते हैं। अब आप इसे
अपना ही पुत्र मानें। वहाँ उपस्थित संगत ने तुरन्त ‘सत श्री अकाल’ की जय जयकार की
और श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के समक्ष अरदास (प्रार्थना) की। उसी दिन से जस्सा सिंह
की ख्याति सरदार कपूर सिंह के सुपुत्र में होने लगी। सरदार कपूर सिंह जी ने जस्सा
सिंह को घुड़सवारी, तलवार चलाने, नेजाबाजी और धनुर्विधा के प्रशिक्षण हेतु युद्धकला
में निपुण व्यक्तियों के सुपुर्द किया। उन्होंने उसे युद्ध के दाँव-पेंच भी सिखा
दिए। इस प्रकार नियमित रूप से कसरत करने के कारण जस्सा सिंह एक बलिष्ठ युवक बन गया।
उसकी भुजाओं में इतना बल आ गया कि वह 16 सेर वजन की गदा हाथ में थामकर इस प्रकार
घूमाता, मानों वह एक हल्का सा तिनका है। कुछ वर्षों पश्चात् सरदार कपूर सिंह जी ने
स्वयँ पाँच प्यारों में शामिल होकर जस्सा सिंह को ‘खण्डे का अमृत छकाया’ और खालसे
की रहित मर्यादा में दृढ़ रहने का आदेश दिया। इस प्रकार जस्सा सिंह सिक्खी में
परिपक्व होता चला गया। कहीं जस्सा सिंह को अपनी उपलब्धियों पर अभियान न हो जाए,
इसलिए कपूर सिंह जी बहुत सतर्कता से उसे नम्रता का पाठ पढ़ाते और उसे इसके लिए कुछ
ऐसी सेवाएँ करने को कहते, जो निम्न स्तर की होती। पानी ढोना व लीद उठाना इत्यादि
कार्य उसे सौंपे जाते। आज्ञाकारी जस्सा सिंह भी प्रसन्नचित भाव से अपने सभी
उत्तरदायित्वों का पालना करता। इन कामों से जस्सा सिंह के हृदय में भ्रातत्व की
भावना उत्पन्न हो गई। उसकी दृष्टि में कोई छोटा-बड़ा नहीं रहा।