24. अहमदशाह अब्दाली का आठवाँ आक्रमण
13 अप्रैल, 1766 को श्री अमृतसर साहिब जी में वैशाखी का उत्सव खालसा पँथ ने बड़ी
धूमधाम से मानाया परन्तु दल खालसा के अध्यक्ष जस्सा सिंह आहलूवालिया को विश्वास था
कि अभी अब्दाली द्वारा फिर से आक्रमण करने की सम्भावना बनी हुई है। उन्होंने समस्त
खालसा जी को उसके लिए तैयार रहने का आह्वान किया तथा उन्होंने समस्त जत्थेदारों और
पँथ के सरदारों से आग्रह किया कि वे अपने अधिकृत क्षेत्रों की शासन व्यवस्था
निर्पेक्ष तथा न्यायसंगत रूप में करें, जिससे अपनी-अपनी प्रजा का मन जीतने में सफल
हो सकें। उस समय तक सिक्ख मिसलों के सरदारों ने नक्के और मुलतान के क्षेत्रों पर
पूर्ण अधिकार स्थापित नहीं किया था परन्तु वे उसके प्रयास में जुटे हुए थे। जैसे ही
अब्दाली को सूचनाएँ मिलीं कि सिक्खों की शक्ति इतनी बढ़ गई है कि वे अफगानिस्तान के
निकट के क्षेत्रों को अपने अधिकार में लेने का प्रयास कर रहे हैं तो उसने फिर से एक
बार किस्मत आजमाने के लिए भारत पर सम्पूर्ण शक्ति से आक्रमण कर दिया। इस बार आक्रमण
करने का मुख्य कारण दिल्ली स्थित अपने विश्वासपात्र नजीबुद्दौला से तालमेल स्थापित
करना था ताकि उसका भारत से बचा-खुचा प्रभाव भी लुप्त न हो जाए। जिसका लाभ उठाकर
सिक्ख उसके निकट के क्षेत्रों पर अधिकार न कर लें। वास्तव में सिक्खों के लाहौर पर
नियन्त्रण से पँजाब तो उसके हाथों से निकल ही चुका था। इस बार उसकी अन्तिम कोशिश थी
कि किसी प्रकार सिंधु पार के क्षेत्रों पर उसका स्थाई अधिकार बना रहे, कहीं उस पर
भी सिक्ख हाथ साफ न कर दें। जैसे ही अब्दाली पँजाब पहुँचा, वैसे ही सिक्खों ने अपनी
निर्धारित नीति अनुसार लाहौर खाली कर दिया और वे सभी श्री अमृतसर साहिब जी एकत्रित
होने लगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसने बड़ी आसानी से लाहौर पर प्रभुत्व स्थापित
कर लिया। अब्दाली सिक्खों की इस नीति से बहुत आश्चर्य में पड़ गया। उसे विश्वास था
कि सिक्ख जल्दी ही उस पर धावा बोलेंगे परन्तु सिक्खों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। इस
पर लाहौर नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने उसे बताया कि लाहौर नगर का सिक्ख शासक बड़ा
अद्वितीय व्यक्ति है, जो प्रजा का शुभचिन्तक है। इस तथ्य को जानकर अब्दाली को आभास
हो गया कि लाहौर की जनता अब सिक्ख राज्य के स्थान पर दुर्रानी का शासन स्वीकार करने
के लिए तैयार नहीं होगी। वास्तव में सिक्ख लाहौर नगर को युद्ध की विभीषिका से
सुरक्षित रखना चाहते थे। अतः उन्होंने अब्दाली के आगे बढ़ने की प्रतीक्षा प्रारम्भ
कर दी थी ताकि उसे जरनैली सड़क पर घेरकर खुले में नाकों चने चबवाए जाएँ। वैसे तो
अब्दाली कई बार सिक्खों की युद्ध नीतियाँ देख चुका था परन्तु उसे इस बार कुछ समझ
में नहीं आ रहा था कि उसका अगला कार्यक्रम क्या हो ? वह स्वयँ सिक्खों से उलझना नहीं
चाहता था। अतः उसने बहुत सोच समझकर अपने प्रतिनिधिमण्डल को श्री अमृतसर साहिब जी
भेजा और चाणक्य नीति अनुसार सर्वप्रथम लहणा सिंह को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया।
इस कार्य सिद्धि के लिए उसने इस सरदार को उपहार सहित एक पत्र भेजा। जिसमें उसने लिखा
था कि तुम निश्चिंत होकर मुझ से मिलो ताकि मैं तुम्हें लाहौर की सूबेदारी सौंप दूँ।
लहणा सिंह ने पत्र पढ़ा और फलों की टोकरी उसी तरह लौटा दी। इतना
ही नहीं उसने उन फलों के टोकरों में गेहूँ और चने के दाने भी मिला दिए। जिसका रहस्य
था कि फल तो तुम्हारे जैसे सम्राटों को ही शोभा देते हैं। मेरे जैसे निर्धन के लिए
तो अनाज के दाने ही सैंकड़ों वरदानों के समान हैं। जब इस घटना का सरदार जस्सा सिंह
आहलूवालिया जी को मालूम हुआ तो उन्होंने कहा कि आपने बिल्कुल उचित समय पर सही उत्तर
दिया है। वह व्यक्ति जिसने जानबूझकर बड़े घल्लूघारे में हमारे परिवारों, महिलाएँ व
बच्चों की हत्याएँ कीं हैं, तत्पश्चात हमारे पूज्यनीय गुरू धामों का अपमान किया और
उन्हें धवस्त किया है। उससे किसी प्रकार की संधि अथवा मधुर सम्बन्ध स्थापित नहीं
किए जा सकते। अब्दाली सिक्खों के ऊँचे आचरण कई बार देख चुका था। अतः उसने अपने
सेनापति नसीर खान व जहान खान को श्री अमृतसर साहिब जी आक्रमण करने के लिए भेज दिया।
दल खालसा के सरदार पहले से ही इस युद्ध के लिए तैयार थे। इस युद्ध में सरदार जस्सा
सिंह, हीरा सिंह, लहणा सिंह, गुलजार सिंह इत्यादि जत्थेदारों ने बख्शी जहान को लगभग
4 घण्टे के युद्ध में ही बुरी तरह परास्त कर दिया। यहाँ पाँच से छः हजार दुर्रानी
मारे गए जिसके परिणामस्वरूप जहान खान पीछे हटने को विवश हो गया। जब अब्दाली को अपनी
पराजय का समाचार मिला तो वह तुरन्त श्री अमृतसर साहिब जी पहुँचा परन्तु सिक्खों ने
नई रणनीति के अन्तर्गत अपनी सेना को वहाँ से तुरन्त हटा लिया। शायद उस समय सरदार
जस्सा सिंह जी घायल अवस्था में थे, उनको उपचार हेतु लक्खी जँगल भेज दिया गया था।
मैदान खाली पाकर अब्दाली ने फिर से श्री अमृतसर साहिब जी नगर तथा धार्मिक स्थानों
को जो पुनः निर्माण किए जा रहे थे, को भारी क्षति पहुँचाई।
सन् 1767 मार्च के प्रारम्भ में अब्दाली ने सतलुज नदी को पार
करके दिल्ली की ओर कूच किया। तभी सिक्खों ने उसके द्वारा नियुक्त हाकिम दादन खान को
पराजित करके लाहौर पर पुनः नियन्त्रण कर लिया। इसके साथ ही वे सभी स्थल फिर से अपने
अधिकार में ले लिए जिन पर उनका प्रभुत्व स्थापित हो चुका था। अहमदशाह का प्रभाव
केवल उन स्थानों तक सीमित था, जिधर से उसकी सेना प्रस्थान कर रही थी। गाँवों के
जमींदार सिक्खों के प्रायः इतने समर्थक प्रतीत होते थे कि सिक्खों को उनके गाँवों
में आसानी से आश्रय और अन्न-पानी मिल जाता। दिन में वे फिर वहाँ से निकलकर अब्दाली
की सेना की नाक में दम कर देते। इसी बीच अहमदशाह अब्दाली की शक्ति को क्षीण करने के
कारण सिक्खों की धूम मच गई। दूसरी ओर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शाहआलम, शुजा-उद्दौला,
रूहेलों तथा मराठों को लिखा कि वे अहमदशाह अब्दाली को बिल्कुल न मिलें। अँग्रेजों
की इस कार्यवाही के कारण नजीबुद्दौला भी अहमदशाह अब्दाली के साथ साँझा मुहाज बनाने
से झिझकने लगा। फलतः अहमदशाह को इस्मायलाबाद से वापिस लौटना पड़ा। वह अम्बाला होता
हुआ सरहिन्द पहुँच गया। सरहिन्द में नजीबुद्दौला ने अब्दाली को बहुत भारी रकम नजराने
के रूप में भेंट की, इसलिए अहमदशाह ने उसके पुत्र जाबिता खान को सरहिन्द का फौजदार
नियुक्त कर दिया। वास्तव में सरहिन्द पटियाला के महाराजा आला सिंह के अधिकार
क्षेत्र में था। अब्दाली ने बाबा आला सिंह के कार्यकाल की नौ लाख रूपये की राशि उसके
पोते अमर सिंह को चुकाने का आग्रह किया। यह राशि न चुकाने पर बन्दी बना लिए जाने के
भय से तथा सरहिन्द से अधिकार समाप्त होने के भय के कारण अमर सिंह ने तुरन्त वजीर
शाहवली खान से भेंट की और उसके द्वारा अहमदशाह को खुश किया और स्थायी मित्रता गाँठने
के लिए उसकी शर्तें स्वीकार कर ली। इस पर अब्दाली ने उसे ‘राज-ए-राजगान’ की उपाधि
प्रदान की तथा उसे अपने नाम अब्दाली पर सिक्का जारी करने की आज्ञा भी दे दी। इस
प्राप्ति से उत्साहित होकर अहमदशाह अब्दाली ने फिर एक बार योजनाबद्ध विधि से सिक्खों
से संधि करने की चेष्टाएँ की। इस कार्य के लिए उसने अदीना बेग के एक वँशज सआदत खान
के माध्यम से यह सँदेश भिजवाया कि यदि वे शाही सेना के इच्छुक हो तो आकर उसे
निःसंकोच मिले। शाह तुम्हारे क्षेत्रों को छीनना नहीं चाहता। वह तो आपसे संधि का
इच्छुक है। जब यह सँदेश दल खालसा के अध्यक्ष सरदार जस्सा सिंह को मिला तो वह कह उठेः
कोई किसी को राज न दे है, जो ले है निज बल से ले हैं
तभी उन्होंने अब्दाली का सँदेश सरबत खालसा के समक्ष रख दिया।
समस्त खालसे का एक ही मत था कि हमें गुरू जी ने पातशाही पहले से ही दी हुई है। हम
एक विदेशी शत्रु के समक्ष कैसे झुक सकते हैं ? इस पर सभी कह उठेः
हथा बाज करारेया, बैरी मित न होए
इस बार वैशाखी पर्व पर सन् 1767 ईस्वी में 13 अप्रैल को सवा लाख
के करीब सिंह श्री अमृतसर साहिब जी में एकत्रित हुए थे। जैसे ही अब्दाली को सिक्खों
के एकत्रित होने की सूचना मिली, वह काबुल वापस जाना भूल गया। उसे सातवें आक्रमण के
समय सिंघों द्वारा बोले गए धावों के कड़वे अनुभव याद हो आए। अतः वह भयभीत होकर दो
महीने वहीं सतलुज नदी के किनारे समय व्यतीत करता रहा। इस बीच उसके लिए 300 ऊँटों पर
लदी हुई काबुल से कुमक आ रही थी। जब वह कारवाँ लाहौर के निकट पहुँचा तो सिक्खों ने
उस पर कब्जा कर लिया। इस बार अहमदशाह दुर्रानी ने वापस लौटने के लिए बहुत सावधानी
से नया मार्ग चुना, वह सिक्खों के छापामार युद्धों से बहुत आतँकित था, वह नहीं चाहता
था कि उसकी फिर कभी सिक्खों से मुठभेड़ हो। उसे ज्ञात था कि सिक्ख गोरिला युद्ध में
बहुत निपुण हैं। अतः वह उनसे लोहा लेना नहीं चाहता था, इसलिए उसने लाहौर न जाकर
कसूर नगर से होते हुए अफगानिस्तान जाने का मार्ग अपना लिया। दल खालसा और उसके
ज्त्थेदारों के अदम्य साहस और दृढ़ विचारों ने पँजाब को अफगानों के चँगुल से निकाल
लिया। इस प्रकार निरन्तर बलिदानों से उन्होंने पँजाब को स्वतन्त्र करा लिया और वहाँ
पर अपना राज्य स्थापित कर लिया।