23. सरबत खालसा का बाबा आला सिंह से
मतभेद
अहमदशाह अब्दाली से बाबा आला सिंह ने राजकीय चिन्ह स्वीकार लिए थे और उसको अपना
सम्राट मानकर उसे कर देना मान लिया था। बस इस बात को लेकर ‘सरबत खालसा’ सम्मेलन में
उन्हें पथभ्रष्ट अर्थात तनखाईयाँ घोषित कर दिया। भले ही बाबा आला सिंह का यह कार्य
कूटनीति की दृष्टि से अवसरोपयोगी था। फिर भी सिक्ख समुदाय उसे क्षमा प्रदान करने के
पक्ष में नहीं था। समस्त सिक्ख समझते थे कि आला सिंह ने केशों से युक्त अर्थात
‘गुरू की महारे बाबा’ सिर अब्दाली के समक्ष झुका कर गुरू का अपमान किया है। अतः एक
बड़े सिक्ख दल ने पटियाला की तरफ प्रस्थान कर दिया ताकि उन्हें दण्डित किया जा सके।
यह समाचार पाते ही बाबा आला सिंह ने दल खालसा के पास अपने वकील भेज दिये। वकील यह
प्रस्ताव लेकर आए कि दुर्रानी से संधि स्थापित करने के लिए जो बाबा जी से सिक्ख पँथ
की अवज्ञा हुई है, वह उसे तनखाह लगावाने के लिए तैयार है। तनखाह का अभिप्राय
धार्मिक दण्ड लगाकर पँथ उन्हें क्षमा प्रदान करे और पुराने किस्से को भुला दिया जाए।
इन वकीलों के साथ थोड़ी सी सेना भी इस उद्देश्य से भेजी गई थी कि दल खालसा के
प्रतिनिधि कहीं बल का प्रयोग न करें। चलेता गाँव के बीच दल खालसा की बाबा जी की सेना
के साथ झड़प हो गई। इस मुठभेड़ में गोली लगने से सरदार हरी सिंह का निधन हो गया। जब
सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने मध्यस्थता करके
समझौता करवा दिया। उन्होंने सिक्खों को समझाया कि बीती बातों को भूल जाओ, अपने ही
भाइयों के सिर फोड़ने से कोई लाभ न होगा। सभी ने सुलतान-उल-कौम (दल खालसा के सेना
अध्यक्ष) की यह बात मान ली। इस पर बाबा आला सिंह को दोबारा अमृतपान कराया गया। इस
प्रकार यह सैद्धान्तिक मतभेद समाप्त हो गया।