21. अहमदशाह अब्दाली का सातवाँ आक्रमण
जब अहमदशाह अब्दाली को ज्ञात हुआ कि सिक्खों ने पँजाब में दुर्रानियों का सफाया कर
दिया है और दिल्ली में भी उनका बोलबाला हो गया है तो वह आपे से बाहर हो गया। उसे इस
बात की चिन्ता सता रही थी कि उसे भारी कोशिश के बाद भी पँजाब को अफगानिस्तान का अंग
बनाने में कोई सफलता नहीं मिली, बल्कि सिक्खों ने साम्राज्यवाद पर अँकुश लगाकर अपना
प्रभाव स्थापित करके अफगानिस्तान के लिए खतरा पैदा कर दिया है। अतः उसने अपने
प्रतिष्ठित सेनापतियों एवँ मित्र अधिकारियों को पुनः चुनौती दी। उसने कालात क्षेत्र
के बलोच हाकिम मीर नसीर खान को लिखा कि वह हज के लिए मक्का की ओर प्रस्थान करने का
विचार त्यागकर अपनी समूची सेना के साथ पँजाब आकर उसके साथ शामिल हो जाए ताकि सिक्खों
के विरूद्ध जेहाद (धर्मयुद्ध) किया जा सके। दूसरी ओर नसीर खान को भी सिक्खों की
गतिविधयों की पर्याप्त सूचनाएँ प्राप्त हो चुकी थीं। उसे अब इस बात का डर सता रहा
था कि यदि सिक्ख और अधिक जोर पकड़ गए तो उसका शासन खतरे में पड़ सकता है। इसी तथ्य को
ध्यान में रखकर उसने अहमद शाह अब्दाली की योजना को स्वीकृति प्रदान कर दी। इस
प्रकार अहमदशाह और मीर खान बलोच की सँयुक्त सेना ने अक्तूबर, 1764 ईस्वी में सिक्खों
के विरूद्ध जेहाद करने की घोषणा कर दी। अठारह हजार दुर्रानी और बारह हजार बलोचों की
सेना लाहौर नगर की ओर बढ़ने लगी। रास्ते में उसका सामना कहीं भी सिक्खों के साथ नहीं
हुआ। वह बिना किसी रोकटोक नवम्बर में लाहौर पहुँच गया। सिक्खों की ओर से विरोध न
देखकर वह बहुत आश्चर्य में पड़ गया। अतः वह इसका कारण खोजने के लिए आतुर हो गया। यह
इच्छा उसकी अगली सुबह होते ही घात लगाकर बैठे हुए सरदार चढ़त सिंह शुकरचकिया जी ने
पूरी कर दी। सिक्खों ने दुर्रानियों के अग्रगामी दस्ते पर भीषण आक्रमण कर दिया। इस
हमले में अहमद खान और उसका पुत्र झड़प में ही मारे गए। मीर अब्दुल ननी रईसानी और
नसीर खान जब अपने दस्ते की सहायता के लिए पहुँचे तो उन्हें भी बड़े जोखिम झेलने पड़े।
मीर नसीर खान का घोड़ा दम तोड़ गया और उसकी जान भी बड़ी मुश्किल से बची। रात होने तक
घमासान युद्ध चलता रहा। अंधेरा होने पर युद्ध की समाप्ति हुई। सरदार चढ़त सिंह और
उसके साथी अंधेरे में लुप्त हो गए।
इस बार अहमदशाह अब्दाली की सेना के साथ बलोच सरदार नासीर खान ने
युद्ध का वर्णन लिखने के लिए एक विद्वान काजी नूर मुहम्मद को साथ लिया था। वह इस
युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी था, उसने वास्तव में गाजियों की स्तुति लिखनी थी कि वह
कितनी वीरता से लड़े और काफिरों को पछाड़ दिया इत्यादि परन्तु वह पक्षपात करता हुआ भी
सत्य को छिपा न सका। उसने सिक्खों को काफिर तथा कुत्ते लिखा है परन्तु वह उनकी वीरता
के दृश्यों को दर्शाने से रह नहीं सका क्योंकि वह अपनी पराजय पर खामोश था परन्तु
इसका कारण क्या था, उसे बर्बस लिखना ही पड़ा। काजी नूर मुहम्मद अपनी पुस्तक ‘जँगनामा
पँजाब’ में लिखता है कि कितनी तरस योग्य बात है कि काफिर लोग गाजियों को दूर से
निशाना बना देते हैं। यदि आमने सामने युद्ध होता तो तब दुनिया कुछ वीरता के दृश्य
देखती । खैर, वह आगे लिखता हैः ‘‘सिक्खों की वीरता, साहस, जुझारूपन को देखकर गाजी
सेना को दिन में तारे नज़र आने लगे और वे दुम दबाकर इधर-उधर भाग जाते, जिधर से भी
सिक्ख दिखाई देता, उसकी विपरीत दिशा में भागते, परन्तु दूसरी ओर सिक्खों का ही
शिकार हो जाते। यह थी सिक्खों की वीरता की सच्ची गाथा।’’ अब अहमदशाह ने सोचा कि
सिक्ख अमृतसर में होंगे और वह अमृतसर की ओर कूच कर गया। इस बार उसे अमृतसर पहुँचने
में पूरे तीन दिन और तीन रातें लगी। सिक्खों के दस्तों ने उसे रास्ते भर बहुत
परेशान किया, वे उस पर अकस्मात गोरिल्ला युद्ध थोप देते। जल्दी ही लूटमार कर अदृश्य
हो जाते। जब वह चौथी रात को वह श्री दरबार साहब पहुँचा तो वहाँ उसे एक भी सिक्ख
दिखाई न पड़ा। जैसे ही अब्दाली श्री दरबार साहिब जी की परिक्रमा में पहुँचा, तभी तीस
सिक्ख बुँगों ध्वस्त भवनों से बाहर निकल आए और जयकारे लगाते हुए बड़े साहस के साथ
अब्दाली की तीस हजार सेना पर धावा बोल दिया। वे मृत्यु के डर से बिल्कुल भी भयभीत न
थे। वे तो हर्ष और उल्लास से शत्रु को ललकारकर उनको चीरते हुए उनके भीतर घुस गए। इस
प्रकार वे बहुत वेग से तलवार चलाते रहे, अन्त में वे सभी सिक्ख शहीद हो गए। तीस
सिक्खों की शहीदी के पश्चात् अहमदशाह अब्दाली लाहौर वापिस चला गया और फिर सबसे पहले
बटाला नगर पहुँचा परन्तु वहाँ उसको कोई सिक्ख न मिला। इस पर उसने गाजियों को खुश
करने के लिए समस्त क्षेत्र को लूटने का आदेश दे दिया। वास्तव में पन्द्रह हजार
सिक्ख जवान सरदार जस्सा सिंह के नेतृत्त्व में भरतपुर के नरेश जवाहर सिंह की सहायता
के लिए दिल्ली गए हुए थे। बाकी के सिक्ख जरनैली सड़क छोड़कर लक्खी जँगल इत्यादि स्थानों
में किसी विशेष अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे।