20. जवाहर सिंह भरतपुरिया की सहायता
सन् 1764 ईस्वी के प्रारम्भ में भरतपुर के नरेश जवाहर सिंह ने अपने वकील दल खालसा
के अध्यक्ष सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया जी के पास भेजे और निवेदन किया कि
नजीब-उद्दौला रूहेला उनके क्षेत्र में उधम मचा रहा है। अतः कृपा करके राजा जवाहर
सिंह की सहायता की जाए। सरदार जस्सा सिंह जी ने उनकी विनती को कई कारणों को ध्यान
में रखते हुए स्वीकार कर लिया। एक तो यह कि नजीबउद्दौला अहमदशाह अब्दाली का बड़ा
समर्थक था। उसकी पराजय से दुर्रानियों की शक्ति और अधिक घटने की सम्भावना थी। दूसरे
इस घटना से पँजाब के बाहर सिक्खों की धाक बैठ जाने के कारण पँजाब के मालवा क्षेत्र
में सिक्ख सरदार अन्य क्षेत्रों को भी आसानी से जीत सकते थे। इन कारणों को सम्मुख
रखकर जवाहर सिंह की सहायता के लिए एक युक्ति से नजीबउद्दौला को पराजित करने पर आपसी
सहमति हो गई। जिस अनुसार नजीबउद्दौला के क्षेत्रों पर खालसा जी ने धावा बोल दिया।
उस समय सरदार जस्सा सिंह के नेतृत्त्व में लगभग चालीस हजार सिक्ख योद्धाओं ने
सहारनपुर पर कब्जा कर लिया। वहाँ भिन्न-भिन्न लक्ष्य निश्चित करने के पश्चात् सभी
मिसलदार जत्थेदार सरदार अपने-अपने गँतव्य स्थलों की ओर बढ़ने लगे। सिक्खों की
गतिविधियों का समाचार प्राप्त करते ही नजीबउद्दौला ने भरतपुर का घेरा उठा लिया और
वह अपने क्षेत्र को सम्भालने लौट पड़ा। अब तो जस्सा सिंह जी की मनचाही बात बन गई।
वास्तव में भरतपुर का घेरा हटाकर नजीबउद्दौला ने एक बड़ी आफत मोल ले ली। यदि वह एक
ओर ध्यान देता तो दूसरे क्षेत्रों में से सिक्ख उसकी सेना पर धावा बोल देते। फलतः
थोड़े ही दिनों में सिक्खों ने उत्तरप्रदेश के बहुत से क्षेत्र पर कब्जा कर लिया।
जिनमें शामली, काँधला, अम्बनी, मीरापुर, देवबन्द, मुजफ्फरनगर, ज्वालापुर, कनखल और
नजीबाबाद आदि। अब नजीबउद्दौला के होश उड़ गए। ऐसी जटिल स्थिति में नजीबउद्दौला ने
सिक्खों के पास अपने वकील भेजकर ग्यारह लाख रूपये नज़राने के रूप में भेंट किए।
सिक्खों की लक्ष्य सिद्धि होने के पश्चात् सरदार जस्सा सिंह और उनके अन्य साथी
सरदार पँजाब की ओर वापिस चल पड़े। वे मार्च, 1764 के प्रारम्भ में पँजाब पहुँच गए
परन्तु जवाहर सिंह का मन अभी तक सन्तुष्ट नहीं हुआ था। वास्तव में वह नजीबउद्दौला
से अपने पिता सूरजमल की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए बड़ा व्याकुल था।
यह घटनाक्रम इस प्रकार बताया जाता है कि सन् 1756 ईस्वी में
भरतपुर के नरेश सूरजमल ने आगरे के किले पर विजय प्राप्त कर ली। वहाँ से उसे अकबर
काल का गाढ़ा हुआ 15 करोड़ रूपये का गुप्त खजाना प्राप्त हुआ था। रास्ते में
नजीबउद्दौला ने उस पर धावा बोल दिया, इस भीषण युद्ध में नरेश सूरज मल की हत्या कर
दी गई। जिसका प्रतिशोध उसका पुत्र जवाहर सिंह उससे लेना चाहता था। अतः उसने
नजीबउद्दौला पर आक्रमण करने से पहले अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए मराठा सरदार
मलहार राव तथा दल खालसा के अध्यक्ष सरदार जस्सा सिंह जी को बुला लिया था। दूसरी ओर
नजीबउद्दौला ने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए काबुल से अहमदशाह अब्दाली को
निमन्त्रण दिया और उसे युद्ध में होने वाले खर्च देने का वचन भी दिया, परन्तु वह
समय पर नहीं पहुँचा। जब नजीबउद्दौला और भरत नरेश जवाहर सिंह का युद्ध हुआ तो सरदार
जस्सा सिंह ने जवाहर सिंह के पक्ष में घमासान युद्ध किया परन्तु मराठा सरदार तटस्थ
ही बना रहा। जब नजीबउद्दौला ने अपना पक्ष कमजोर देखा तो उसने मल्हार राव को मध्यस्थ
बनाकर जवाहर सिंह से एक संधि कर ली। जिसके अन्तर्गत नजीबउद्दौला ने अपनी पुत्री
कितम का विवाह जवाहर सिंह से करना मान लिया। जवाहर सिंह अपने पिता के खून के बदले
उसका दामाद बनना चाहता था। अतः दोनों पक्षों में संधि होने पर सरदार जस्सा सिंह जी
अपनी सेना लेकर 1764 ईस्वी के अन्तिम दिनों में पँजाब लौट आए। जब सरदार जस्सा सिंह
जवाहर सिंह भरतपुरियों के बुलावे पर दल खालसा के पन्द्रह हजार सैनिकों सहित 1764
ईस्वी के अगस्त माह में दिल्ली पहुँचे तो जवाहर सिंह उनसे मिलने के लिए नगरी घाट
पहुँचा। उस समय दीवान (धार्मिक सम्मेलन) सजा हुआ था। जवाहर सिंह के साथ उसका अरदली
हुक्का उठाए आ पहुँचा परन्तु सिक्ख सिपाहियों ने उसे बाहर ही रोक दिया, बातचीत हुई।
अरदास करने वाले सिंह ने ये शब्द कहे कि हे सतिगुरू ! सूरजमल का पुत्र जवाहर सिंह
गुरू नानक का श्रद्धालु बनकर खालसा जी की शरण में आया है। आप की कृपा से अपने पिता
की मृत्यु का बदला लेने का इच्छुक है, आदि आदि। जवाहर सिंह सिक्खों की नीतियों एवँ
मर्यादाओं से अनभिज्ञ था। वह नहीं जानता था कि सिक्ख हुक्का पीना तो क्या उसे छूने
तक को दोष मानते हैं। उसे खालसा दीवानों की रूपरेखा की जानकारी भी न थी। वह तो उसी
दरबारी माहौल का अभ्यस्त था, जहाँ पैर रखते ही सभी दरबारी उठ खड़े होते थे परन्तु
खालसा दीवानों में आने वाला व्यक्ति हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक प्रवेश करता है। वह श्री
गुरू ग्रँथ साहिब जी के समक्ष माथा टेककर दाँए-बाँए विराज रहे सत्संगियों को ‘फतेह
बुलाता (नमस्कार करता) है और जहाँ कहीं भी स्थान मिल जाए, वहीं पर बैठ जाता है।
खालसा दीवानों में राजा और रँक का काई भेदभाव नहीं माना जाता। इन तथ्यों से अपरिचित
होने के कारण जवाहर सिंह को यह बात शायद बुरी लगी हो कि उसका हुक्का उठाकर आने वाले
अरदली का प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। सिक्ख दीवानों के तौर-तरीके उसे भले ही समझ
में न आए हों, किन्तु खालसा पँथ से सहायता की आवश्यकता के कारण उसने बात (घटनाक्रम)
को नहीं कुरेदा। फलतः सरदार जस्सा सिंह जी के नेतृत्त्व में खालसा सेनाओं ने सब्जी
मण्डी की तरफ से दिल्ली पर धावा बोल दिया। नजीबउद्दौला और सिक्खों के बीच डटकर
युद्ध हुआ, जिसके कारण रूहेलों को मुँह की खानी पड़ी। इसी बीच यह समाचार फैल गया कि
रूहेला सरदार नजीबउद्दौला के आमन्त्रण पर अहमदशाह अब्दाली फिर पँजाब में आ घुसा।
जिसके कारण दिल्ली की राजनीति में यकायक पर्याप्त अन्तर देखने को मिलने लगा। मराठों
ने नई स्थिति के कारण नजीबउद्दौला से तुरन्त संधि कर ली। अब सरदार जस्सा सिंह का वहाँ
रूकना व्यर्थ था। दूसरी ओर पँजाब में अहमदशाह की उपस्थिति के कारण उनका वहाँ पहुँचना
अनिवार्य भी था।