19. गुरू की चादर
सरहिन्द नगर के पतन के समय ‘दल खालसा’ के हाथ बहुत बड़ी धन सम्पत्ति हाथ लगी थी। जो
उन्होंने आपस में बाँट ली थी। इस सम्पत्ति में नौ लाख रूपये सरदार जस्सा सिंह
आहलूवालिया के खाते में आए थे परन्तु सरदार जस्सा सिंह जी विचार रहे थे कि इन भौतिक
पदार्थों का क्या लाभ ? उनके हृदय में अहमदशाह द्वारा श्री दरबार साहिब जी के
ध्वस्त भवन की टीस उठ रही थी। वह चाहते थे कि किसी भी विधि द्वारा श्री हरिमन्दिर
साहिब जी का पुनः निर्माण शीघ्र से शीघ्र प्रारम्भ करवाया जाए। अतः उन्होंने आगामी
वैशाखी पर्व को ‘सरबत खालसा’ सम्मेलन में श्री हरि मन्दिर साहिब जी के पुर्ननिर्माण
हेतु कुछ प्रस्ताव पारित करने का विचार अपने सहयोगियों के समक्ष रखा। वैसे तो सभी
सिक्ख इस क्षति की चुभन को महसूस कर रहे थे परन्तु अब्दाली के बार-बार आक्रमणों के
कारण अभी दृढ़ता से कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता था। अब कुछ परिस्थितियाँ बदल गई
थीं। एक तो अब्दाली के पिठठुओं को उखाड़ फैंक दिया गया था, दूसरा अब्दाली भी कमजोर
पड़ गया था, तीसरा इस समय सिक्खों ने फिर से पँजाब के बहुत बड़े भू-भाग पर नियन्त्रण
कर लिया था और चारों ओर अपनी धाक बैठा ली थी। इसके अतिरिक्त अपने अच्छे व्यवहार से
सिक्खों ने जनसाधारण का मन जीत लिया था। सरदार जस्सा सिंह जी ने अपने सँकल्प की
पूर्ति हेतु ‘सरबत खालसा’ सम्मेलन की घोषणा करवा दी। 13 अप्रैल, 1764 को उन्होंने
सर्वसम्मति से एक चादर बिछा ली, जिस पर अपनी-अपनी श्रद्धा से यथाशक्ति धन गुरूधामों
के नवनिर्माण हेतु अर्पित करना था। सर्वप्रथम दल खालसा के अध्यक्ष सरदार जस्सा सिंह
जी ने अपनी तरफ से नौ लाख रूपये चादर पर धर दिए जो उन्हें सरहिन्द विजय के समय
प्राप्त हुए थे। उनका अनुसरण करते हुए अन्य सरदारों ने भी यथा शक्ति अपना-अपना
योगदान डाला। इस प्रकार कुछ ही पलों में 24 लाख रूपये एकत्रित हो गए। यह समस्त रकम
भाई देसराज विधिचँदिए के हवाले कर दी गई ताकि वह श्री दरबार साहिब जी के
पुर्ननिर्माण के लिए इसका उपयोग कर सके। भाई देसराज ने बड़ी श्रद्धा एवँ ईमानदारी से
इस पावन कार्य को निभाया परन्तु इस वर्ष दीवाली पर्व के शुभ अवसर पर अब्दाली ने फिर
से आक्रमण कर दिया, जिससे निर्माण कार्यों में उस बाधा से विलम्ब हुआ।