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18. सरहिन्द नगर का पतन

सन् 1763 ईस्वी की दीवाली पर्व को ‘सरबत खालसा’ सम्मेलन में पारित प्रस्ताव को कार्यान्वित करने के लिए दल खालसा के अध्यक्ष सरदार जस्सा सिंह जी ने उचित समय देखकर एक योजना अनुसार जनवरी, 1764 में अन्य जत्थेदारों को सँदेश भेजा कि वे अपने अपने योद्धा लेकर चुपचाप चमकौर साहब में एकत्रित हो जाएँ। उसी युक्ति अनुसार उन्होंने ज्ञात किया कि इस समय सरहिन्द का दीवान लच्छमी नारायण निकट के गाँवों में लगान वसूल करने ठहरा हुआ है। यह समाचार पाते ही ‘दल खालसा’ ने दीवान पर धावा बोल दिया परन्तु दूर से ही सिक्खों को देखकर दीवान घबराकर सब कुछ वहीं छोड़कर कुराली नगर भाग गया। इस पर सिक्खों ने उसके शिविर पर हाथ साफ कर दिया। इस अभियान में सिक्खों को बहुत सी रण सामग्री प्राप्त हुई। सरदार जस्सा सिंह जी ने दीवान लच्छमी नारायण का पीछा किया, जिस कारण कुराली नगर चपेट में आ गया तथा इसके पश्चात् मोरिंडा नगर पहुँचे। वहाँ के मुस्लिम राजपूतों से पुराना हिसाब चुकता किया और फिर सीधे 15 कोस दूर सरहिन्द नगर पहुँचे। इतिफाक से जैन खान भी उस समय सरहिन्द में नहीं था। तभी सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया जी की योजना अनुसार सरहिन्द नगर को चारों ओर से घेर लिया गया ताकि जैन खान वापिस सरहिन्द किले में न घुस सके। यह कार्य 13 जनवरी, 1764 ईस्वी को प्रातःकाल किया गया। इस अभियान में यही रहस्य छिपा था कि जैन खान को इसकी भनक भी नहीं मिल पाई थी। अतः वह वापिस सरहिन्द में प्रवेश नहीं कर पाया। 14 जनवरी, 1764 को सूर्योदय से पूर्व चुपके-चुपके, छिपते हुए जब जैन खान मरहेड़े क्षेत्र की तरफ से घोड़े पर सवार होकर अपने कुछ विश्वसनीय साथियों के साथ सरहिन्द नगर में घुसने का प्रयास कर रहा था तो उधर सरदार जस्सा सिंह जी सतर्क थे। उन्होंने सभी तरफ मोर्चे बना रखे थे। घोड़ों के आने की आहट पाकर तरूण दल के सूरमा सिंघों के दस्ते ने समस्त सेना को चौकस कर दिया। उनका शक ठीक ही था। जैन खान अपनी गुप्त योजना के अनुसार सरहिन्द में घुसने के लिए अग्रसर हो रहा था। खालसा दल ने बन्दूकों की गोलियों की बौछार करके उसकी आवभगत की। जैन खान धराशायी हुआ और उसके साथियों में भगदड़ मच गई। ‘बरकुन बरकुन’ (उठा लो, उठा लो) की आवाजें सुनकर सिक्ख समझ गए कि शिकार घायल हो गया है और वे बड़ी सँख्या में उसकी तरफ भागे। माड़ी वाले तारा सिंह ने आगे बढ़कर जैन खान का सिर धड़ से अलग कर दिया। जैन खान की मौत का समाचार फैलते ही अफगान सेना तितर-बितर हो गई। 14 जनवरी, 1764 को सिक्खों ने सरहिन्द पर अधिकार कर लिया। अभी पूरे दो वर्ष भी व्यतीत न हो पाए थे कि खालसा दल ने सरहिन्द को दुर्रानियों से छीनकर ‘बड़े घल्लूघारे’ का बदला चुकता कर दिया। सरहिन्द नगर गुरू द्वारा शापित है, यह किंवदन्ति प्रसिद्धि पर थी। जनसाधारण लोग इस शहर को ‘गुरू की मारी नगरी’ नाम से जानते थे। अतः कोई भी सरदार उसे लेने को तैयार न था। उन्हीं दिनों एक विचित्र घटना घटित हई। किसी व्यक्ति ने सरदार जस्सा सिंह जी से कह दिया कि श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी ने भविष्यवाणी की थी कि सरहिन्द की ईंट से ईंट बजेगी और यहाँ पर गधें द्वारा हल चलाया जाएगा।

भले ही इस बात का कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध न था, तो भी सरदार जस्सा सिंह जी ने गुरू साहिब जी के नाम से जुड़ी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध करने के लिए बहुत से गधे मँगवाकर वहाँ हल जुतवा दिया। वैसे भी कई युद्धों में वहाँ के अधिकाँश भवन धवस्त हो चुके थे। अतः सिक्खों ने शहर के बहुत से भवन खाली करवाकर तभी नष्टभ्रष्ट कर दिए और बची-खुची इमारतें समय की मार के कारण टूट-फूट गईं। तदुपरान्त यह प्रथा सी बन गई कि जो भी सिक्ख सरहिन्द के समीप से गुजरता, वह वहाँ के भवनों के अवशेषों की एक-आध ईंट उठाकर किसी नदी में फैंक देता। सरहिन्द की विजय से यह समस्त क्षेत्र दुर्रानियों के चुगुल से मुक्ति पाकर सिक्खों के अधिकार में आ गया। इसकी लम्बाई लगभग 220 मील तथा चौड़ाई लगभग 160 मील थी। उस समय सरहिन्द की सीमाएँ उत्तर दिशा में सतलुज नदी से लेकर करनाल नगर तथा पूर्व में यमुना नदी से बहावलपुर तक फैली हुई थीं। सरहिन्द प्रान्त को सभी सरदारों मिसलों ने आपस में बाँट लिया परन्तु सरहिन्द नगर को कोई भी लेने को तैयार न था क्योंकि सरहिन्द शहर ‘गुरू की मारी नगरी’ के नाम से बदनाम था, इसलिए सरदार जस्सा सिंह जी ने वहाँ की स्थानीय जनता से पूछा कि आप किस सरदार के सँरक्षण में रहना चाहेंगे तो स्थानीय जनता ने निर्णय दिया कि भाई बुड्ढा सिंह की छत्रछाया में रहना पसन्द करेंगे। इस पर सभी दलों ने मिलकर उनके नाम की अरदास कर दी परन्तु भाई जी को सरहिन्द शहर की प्राप्ति पर कोई प्रसन्नता नहीं हुई। अतः उन्होंने 25 हजार रूपये लेकर सरहिन्द का प्रशासन प्रबन्ध 2 अगस्त, 1764 को पटियाला के बाबा आला सिंह जी को सौंप दिया। तद्पश्चात उन्होंने आदमपुर टोडरमल आदि 12 गाँव देकर इस नगर को स्थायी रूप से खरीद लिया। सरहिन्द नगर की विजय के उपरान्त यह अफवाह बड़ी गर्म हुई कि मालेरकोटला तथा रायकोट की अब खैर नहीं किन्तु सिक्खों ने इन दोनों नगरों को छुआ तक नहीं। सफलताओं के कारण सिक्खों के सिर नहीं फिरे थे। उनके शिरोमणि नेता को ज्ञात था कि मालेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खान ने वजीद खान को ऐसी जघन्य हत्याएँ (श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के छोटे पुत्रों की) करने से वर्जित किया था। भला सिक्ख कैसे उनके प्रति अकृतघ्न हो सकते थे। ठीक इसी प्रकार रायकोट का तत्कालीन हाकिम राय कल्हा का वँशज था, जिसने गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी को अपने यहाँ निवास करवाया था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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