12. जैन खान और दीवान लच्छमी नारायण
की मरम्मत
‘घल्लूघारे’ (दूसरे महाविनाश) में घायल बहुत से सिक्ख योद्धा मालवा क्षेत्र में अपना
उपचार करवा रहे थे कि तभी उन्हें श्री दरबार साहब जी को ध्वस्त करने का समाचार मिला।
इस अपमान की सूचना सुनते ही उनका खून खौल उठा। सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया ने तभी
समस्त सिक्ख सैनिक और उनके नेताओं को एकत्रित करके सर्वप्रथम सरहिन्द पर आक्रमण करने
की योजना सुझाई। जैन खान अभी तक इस बात से प्रसन्न था कि कुप्प के मैदान में चोटें
खाने वाले सिक्ख एक दशक से पहले सिर नहीं उठा सकेंगे परन्तु प्रभु कृपा से सिक्ख तो
कुछ ही महीनों में शक्ति परीक्षण के लिए तैयार हो गए। सिक्ख सेनापतियों ने योजना
अनुसार सरहिन्द पर इतने जोरदार ढँग से हमला बोला कि जैन खान के हाथों के तोते उड़ गए,
वह सम्भल ही नहीं सका। उसने जल्दी से 50,000 रूपये भेंट करके सिक्खों को टालने की
चेष्टा की। वास्तव में जैन खान की चालबाजी यह थी कि जब सिक्ख रूपया वसूल करके घरों
को लौट रहे होंगे तो उन पर पीछे से धावा बोलकर फिर से धन लूटकर हथिया लिया जाए और
उनकी खूब पिटाई भी कर दी जाए परन्तु सिक्ख भी कूटनीति में विशेषज्ञ थे। वे इन छल भरी
चालों से भली भान्ति परिचित थे। अतः वे भी पूर्णतः नहीं लौटे, कुछ घात लगाकर छिपकर
बैठ गए। जैसे ही शत्रु पीछे से वार करने लगा, सिक्ख तुरन्त सतर्क हुए और वे लौट पड़े।
फिर तो खुले मैदान में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में सिक्खों के हाथ बहुत सा धन
अथवा रण सामग्री हाथ लगी। तदुपरान्त सरदार जस्सा सिंह ने अब्दाली को चुनौती देने के
लिए समूह दोआबा क्षेत्र को छान मारा और सभी शत्रु शिविरों का सफाया कर दिया। इस
प्रकार अन्य सरदारों ने भी विभिन्न स्थानों पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया। इतना ही नहीं,
अगस्त, 1762 के अन्तिम दिनों में ‘दल खालसा’ का एक बड़ा दस्ता लोगों से लगान वसूल
करता हुआ करनाल जा पहुँचा और पूरा एक महीना पानीपत में डटे रहे। पानीपत में उनका
स्थिर शिविर होने के डर के कारण मुगल बादशाह के दूतों का अब्दाली के पास आवागमन पूरी
तरह ठप्प हो गया।