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10. जस्सा सिंह आहलूवालिया जी को ‘सुल्तान-उल कौम’ की उपाधि

अब सिक्खों का मनोबल आकाश की बुलन्दियों को छूने लगा था, इसी ताक में थे कि अब्दाली कब काबुल की ओर मुँह करता है। अतः उन्होंने पहले से ही उसे पुनः लूटनें की योजनाएँ बना लीं और वे उन ठिकानों पर पहुँच गए, जहाँ घात लगाकर शत्रु पर आक्रमण किया जा सकता था। इन सिक्ख सरदारों में सबसे अग्रणी थे शुक्रचकियाँ मिसल के सरदार चढ़त सिंघ जी, जैसे ही अब्दाली अपनी सेना और लूट के सामान के साथ चनाब नदी पार पहुँचा और उसने विश्राम के लिए शिविर लगाया, आधी रात को सिक्खों ने उस पर आक्रमण कर दिया। वह सकते में आ गया क्योंकि उसे यह आदेश अपना मालूम हो रहा था और उसे विश्वास था कि यह स्थान सिक्खों की मार से कोसों दूर है, परन्तु सिक्खों ने अपना लक्ष्य पूरा किया, जो महिलाएँ वह छुड़ा नहीं पाए थे, उन कैदियों को स्वतन्त्र करवाया गया और जो माल अथवा अस्त्र-शस्त्र, घोड़े इत्यादि हाथ लगे, वह लेकर तुरन्त हरन हो गए। अब्दाली की बेबस सेना उनका कुछ भी न बिगाड़ सकी। फिर इसी प्रकार उन्होंने जेहलम नदी पार करने के तद्पश्चात रात होने से पूर्व सँध्या के समय अकस्मात् धावा बोल दिया, शत्रु सेना उस समय अपने शिविर लगाने में व्यस्त थी, सिक्खों के गोरिले युद्ध के कारण शत्रु अपना मनोबल खोए जा रहे थे। अतः सिक्खों ने अब्दाली सेना से बहुत सारा धन और अस्त्र-शस्त्र, घोड़े इत्यादि छीन लिए और देखते ही देखते चम्पत हो गए। सिक्खों ने उनका पीछा तब तक नहीं छोड़ा, जब तक कि वे सिन्धू नदी पार नहीं कर गए। इसी बीच अब्दाली के सैनिकों ने अपने शिविरों के निकट दो सिक्ख जवानों को झाड़ियों में छिपा हुआ देख लिया। वे जवान घिर गए और पकड़ लिए गए। इनका नाम था अघड़ सिंह और हाठू सिंह, इनको अब्दाली के समक्ष पेश किया गया। अब्दाली ने उनसे पूछा कि तुम यहाँ क्या करने आये थे तो उत्तर में इन सिक्खों ने कहा कि हम अवसर की तलाश में थे कि तेरी हत्या कर सकें। अब्दाली उन सिक्ख जवानों का अभय उत्तर सुनकर उनके साहस को देखकर बहुत प्रभावित हुआ। उसने निर्णय लिया कि इनकी वीरता का पराक्रम देखा जाए। अतः उसने एक विशालकाय हाथी को शराब पिलाकर अघड़ सिंह से कहा कि तुम इससे मुकाबला करो। अघड़ सिंह ने नेत्र बन्द करके अरदास की (गुरू चरणों में प्रार्थना की) और फिर तलवार लेकर हाथी से जूझने लगे। उन्होंने दो तीन बार पैंतरा बदला और लक्ष्य बाँधकर हाथी पर वार किया। उन्होंने एक झटके में हाथी की सूँड काट कर फैंक दी। हाथी चिंघाड़ कर वापिस भागा, तभी उन्होंने तलवार उसे चूबो कर उसे और अधिक तीव्र गति से भागने पर विवश कर दिया। इस पर अब्दाली उनकी वीरता की प्रशँसा किए बिना नहीं रह सका परन्तु उसके अधिकारियों ने उसे उकसाया कि ऐसे खतरनाक मनुष्य को जीवित नहीं रहने देना चाहिए। इस पर अन्य हाथी मँगवाए गए और उसके समक्ष इन दोनों योद्धाओं को अघड़ सिंह और हाठू सिंह को बाँध कर डाल दिया गया, परन्तु हाथी उनको स्लयूट देकर पीछे मुड गया।

फिर दूसरा हाथी बुलाकर उनको उसके आगे डाला गया, तब भी हाथी उसके पास से गुजर गया लेकिन उन पर पाँव न धरा। यह आश्चर्य देखकर उन शूरवीरों की लातें दो अलग अलग हाथियों के पाँवों में बांधी गईं और हाथियों को विपरीत दिशा में भगाया गया। इस प्रकार ये दोनों बहादुर सूरमें शरीर के दो फाड़ होने के कारण शहीदी पा गए। अहमदशाह अब्दाली जैसे ही काबुल से कँधार पहुँचा, उसे समाचार मिला कि सिक्खों ने उसके नियुक्त किए हुए अधिकारी ख्वाजा मिर्जा जान को मार डाला है और अन्य अधिकारियों को पराजित कर दिया है तो उसने तुरन्त अपने अनुभवी सेनापति नूरदीन बागेजई को 12000 सैनिक देकर सिक्खों को सबक सिखाने भेज दिया। चनाब नदी के तट पर वज़ीराबाद के समीप भीषण युद्ध हुआ। नूरदीन मुकाबला करने में असमर्थ रहा और भागकर स्यालकोट के किले में जा घुसा। सरदार चढ़त सिंह का दबाव पड़ने के कारण वह अपने साथियों को किले में ही छोड़कर कँधार भाग गया। जत्थेदार चढ़त सिंह ने कैदी अफगान सिपाहियों से बहुत अच्छा व्यवहार किया। यहाँ तक कि उन्हें अपने घर लौटने के लिए आवश्यक सुविधाएँ भी प्रदान कर दी गई। इस विजय के उपरान्त सरदार चढ़त सिंह गुजराँवाला में आ गया। सरदार चढ़त सिंह की विजय का समाचार सुनकर सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया को अपार हर्ष हुआ। इसके विपरीत लाहौर का सूबेदार उबैद खान खूब तिलमिलाया। उसने बदला लेने के विचार से भारी सेना के साथ गुजराँवाला पर आक्रमण कर दिया। वास्तव में नूरदीन की पराजय को वह लाहौर राज्य की असफलता समझता था। सरदार चढ़त सिंह जी किले के भीतर जा विराजे। समूचे पँथ की गतिविधियों के प्रति सदैव सजग रहने वाले सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया जी ने सरदार चढ़त सिंह की सहायता के लिए अन्य सरदारों का सहयोग लेकर गुजराँवाला नगर की ओर प्रस्थान किया। इन सरदारों में सहयोगी थे, जय सिंह कन्हैया, हरी सिंह भँगी, लहिणा सिंह, शोभा सिंह, गुज्जर सिंह इत्यादि। उन्होंने रात्रि के समय उबैद खान के शिविर पर भारी आक्रमण कर दिया। उनके सामने उबैद खान टिक नहीं पाया। घबराहट का मारा अपने घोड़ें, ऊँट तथा बहुत सी युद्ध की सामग्री छोड़कर दुम दबाकर लाहौर की ओर नौ दो ग्यारह हो गया। सिक्ख उबैद खान का पीछा करते हुए लाहौर तक जा पहुँचे।

उबैद खान तो लाहौर में किले में घुस गया और सिक्खों ने नगर को घेर लिया। लाहौर की साधारण जनता इस बात से भली भान्ति परिचित थी कि सिक्ख तो प्रशासन विरोधी हैं, नगरवासियों से उनकी कोई शत्रुता नहीं है। वे इस बात को भी जानते थे कि उबैद खान कोई बड़ा शूरवीर नहीं है। अतः वह अधिक समय तक सिक्खों के सम्मुख टिक नहीं पायेगा। अतः सिक्खों को कुछ नज़राना देकर उनके आधिपत्य को स्वीकार कर लेने में ही जनता का हित है। फलतः नगरवासियों के मुखिया ने सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया से विचार विनिमय करके नगर के सभी द्वार खोल दिए। आहलूवालिया के सुयोग्य नेतृत्त्व में ‘सत श्री अकाल’ का जयघोष करता हुआ ‘दल खालसा’ लाहौर नगर में प्रवेश कर गया। यह सिक्खों की पहली राजनीतिक विजय थी, जिससे सिक्खों की प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गए। इससे जनता के हृदय में यह विश्वास पैदा हो गया कि सिक्खों के अतिरिक्त अन्य कोई भी शक्ति उनकी रक्षा के लिए सार्मथ्य नहीं रखती। सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया ने पँजाब की राजधानी को सिक्खों के चरणों में शीश झुकाने के लिए विवश कर दिया था। अतः सिक्ख फूले न समाते थे और ईश्वर का कोटि कोटि धन्यवाद कर रहे थे। इस अवसर पर उन्हें माता सुन्दरी कौर जी के वे मधुर वचन स्मरण हो आए, जो उन्होंने सहज भाव से सरदार जस्सा सिंह के प्रति कहे थे कि ‘तेरे और तेरी सन्तानों के आगे तुम्हारी रक्षा हेतु चोबदार तैनात रहेंगे’। इस पर उन्हें नवाब कपूर सिंघ जी के वह शब्द भी स्मरण हो आए जो उन्होंने जस्सा सिंह जी के प्रति कहे थे कि ‘मुझ गरीब को, पँथ ने नवाब बना दिया है, क्या मालूम तुम्हें बादशाह ही बना दे’। इन महानुभावों की भविष्यवाणियों को पूरा करने का उत्तरदायित्व भी तो खालसा पँथ पर ही था। ईश्वर के प्रति धन्यवाद की भावनाओं से भरपूर और आनन्द विभोर खालसा पँथ ने सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया को ‘सुलतान-उल-कौम’ पँथ का बादशाह का सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया। वाहिगुरू के उपकारों के उपलक्ष्य में श्री गुरू नानक देव साहिब जी तथा श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के नाम पर ‘खालसा जी का सिक्का’ भी जारी किया गया। इस सिक्के पर फारसी की निम्नलिखित ईबारत लिखी गईः

‘देगो तेगो फतिहओ नुसरत बदे रंग
याफत अज नानक गुरू गोबिन्द सिंघ

सितम्बर के अन्त और अक्तूबर के आरम्भ में लाहौर नगर पर दो हाकिमों का अधिकार था। एक तो खलसा दल का, जिसने वहाँ पर नया अधिकार जमाया था और दूसरा खान का, जो उस समय किले में कैद था, परन्तु जल्दी ही उसका कालवास हो गया। इस प्रकार उन दिनों लाहौर पर खालसे का पूर्ण अधिकार हो गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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