1. जन्म
दल खालसा के सेनानायक जस्सा सिंह आहलुवालिया के पूर्वज लगभग सोलहवीं शताब्दी ईस्वी
में तरनतारन के निकट आ गए थे। सिक्ख पँथ के साथ उनका सम्बन्ध छठे गुरू श्री
हरिगोबिन्द साहिब के समय से आरम्भ होता है। उन दिनों आपके पूर्वजों में सरदार साधू
सिंह और उनके सुपुत्र गोपाल सिंह तथा उनके पौत्र देवा सिंह जी थे। देवा सिंह जी कई
बार अपने छोटे सुपुत्र बदरसिंह के साथ श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के
दर्शनार्थ आनन्दपुर साहिब आते रहते थे। सन् 1699 की वैसाखी के पश्चात् उन्होंने भी
हजूरी पाँच प्यारों से अमृत धारण किया। सरदार बदर सिंह जी सिक्ख सिद्धान्तों के
प्रति अथाह आस्था रखते थे, उनके हृदय में गुरू के प्रति अटूट श्रद्धा थी। सरदार बदर
सिंह जी का विवाह ग्राम हलो-साधे के सरदार बाहा सिंह जी की बहन के साथ सम्पन्न हुआ।
इस देवी पर भी सिक्ख धर्म की मर्यादाओं का गहरा रँग चढ़ा हुआ था। वह सिक्ख धार्मिक
ग्रन्थों में पूरी तरह रूचि रखती थी और उन्हें गुरबाणी बहुत अधिक कँठस्थ थी।
गुरूवाणी के प्रति उनका लगाव और उनका सुरीला स्वर उन्हें कीर्तन नियमित रूप से करने
में विवश करता था। अतः उन्होंने सँगीत विद्या भी सीखी, जिससे वह दोतारा नाक
वाद्ययँत्र बजाने में भी अत्यन्त प्रवीण हो गईं। तीन मई 1718 ईस्वी को आपने एक बालक
को जन्म दिया। जिसका नाम जस्सा सिंह रखा गया। जब जस्सा सिंह चार वर्ष के हुए तो उनके
पिता सरदार बदर सिंह का देहान्त हो गया। इस कारण जस्सा सिंह के पालन पोषण तथा घर
बाहर के अन्य सभी कार्यो का सारा भार उसकी माता के कँधें पर आ पड़ा। माता के लिए यह
बड़ा विकट समय था। एक ओर तो पति का साया सिर से उठ गया और दूसरी ओर मुगल सरकार भी
सिक्खों के खून की प्यासी हो गई थी। किन्तु जस्सा सिंह की माता अडिग रही। वह पति की
अकाल मृत्यु को वाहिगुरू का भाणा (हुक्म) समझकर अकालपुरख की रज़ा और उसकी याद में
जीवनयापन करने लगी।