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8. भाई सोमा जी

श्री गुरू रामदास जी जब नये नगर को बसाने का कार्यक्रम बना रहे थे तो उन दिनों सोमा नामक एक व्यक्ति पश्चिमी पँजाब के जिहलम नगर से आपके दशर्नों को आया। जब वह आपके सम्पर्क में आया तो वह आपकी उदारता से इतनी प्रभावित हुआ कि वह घर लौटना ही भूल गया। वह दिन-रात कार-सेवा में व्यस्त रहने लगा। सरोवर का निर्माण कार्य जोरों पर चल रहा था। दूर-दूर से संगत इस कार्य में अपना योगदान करने के लिए पहुँच रही थी अतः संगत के लिए लंगर भी दिन-रात तैयार हो रहा था। एक दिन सोमा जी ने अधिक भीड़ देखकर महसूस किया कि मुझे लंगर पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, इसलिए मुझे अवकाश के समय अपनी जीविका स्वयँ कमानी चाहिए, जिससे सेवा फलीभूत हो। यह विचार आते ही उन्होंने एक साधारण सा कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने उबले हुए चने की छाबड़ी लगा ली। जिससे कार सेवक अथवा अन्य व्यक्ति भी आवश्यकता अनुसार अपनी भूख मिटा सकते थे। यह कार्य प्रतिदिन करने लगे। गुरू जी उसकी आत्मनिरर्भरता पर विश्वास देखकर मन ही मन अति प्रसन्न हुए। प्रारम्भिक अवस्था में गुरूदेव स्वँय भी इसी प्रकार का कार्य करते हुए अपनी जीविका अर्जित करते थे अतः सोमचँद में वह अपना प्रतिबिम्ब देख रहे थे। एक दिन उनके दिल में विचार उत्पन्न हुआ क्या सोमचँद की आत्मिक अवस्था इतनी ऊँची उठ चुकी है कि वह पूर्ण समर्पित हो चुका है अथवा अँहभाव लेश मात्र है। इस बात की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने एक दिन सोमनाथ को बुलाकर विनोद भाव में पूछा: कितने की बिक्री हुई है, इस बात पर सोमचँद ने यह समस्त सिक्के गुरू जी के हाथ में रख दिए जो उसने आज कमाये थे। गुरू जी ने हँसते हुए कहा: कहो तो यह सारी राशि गुरू के खजाने में डाल दें। उत्तर में प्रसन्नचित होकर सोमचँद ने कहा: कि यदि ऐसा हो जाए तो में बहुत भाग्यशाली हो जाऊँगा। गुरू जी ने कहा: अच्छा ! तो लो फिर आज तुम्हारे लिए कोष भी खोल देते हैं। तुम उसे कितना भर सकते हो ? यह कहकर गुरू जी ने वह धन कारीगरों में वेतन के रूप में वितरण कर दिया। सोमचँद खुशी-खुशी वापिस चला गया। अगले दिन उसी समय गुरू फिर सरोवर के कार्य का निरीक्षण करने आये, संगत और कारीगर निर्माण कार्यों में व्यस्त थे, सोमचँद दूर एक कोने में उबले हुए चने की बिक्री कर रहा था। गुरू जी उसके पास जा पहुँचे और उससे आज फिर पूछा: कितनी बिक्री हुई है लाओ, उसने सारे सिक्के गुरू जी के हाथों पर रख दिये गुरू जी ने आज भी वह सभी सिक्के कारीगरों में वेतन के रूप में वितरण कर दिये। तीसरे दिन गुरू जी ने फिर उसी प्रकार से सोमचँद की बिक्री की पूर्ण राशि लेकर वितरण कर दी। चौथे दिन उसने गुरू जी को देखते ही अपनी बिक्री की इक्ट्ठी हुई राशि गुरूदेव को सौंपने के लिए बढ़ा चला आया। किन्तु आज गुरू जी ने कहा: सोमिया ! हम आज तुम से लेने नहीं देने आये हैं। तुमने जो अपनी पूँजी गुरू घर के निर्माण कार्यों में लगाई है वह फलीभूत हो रही है, जल्दी ही तुम सोमाशाह कहलाओगे। गुरूदेव का वचन फलीभूत हुआ। सोम कुछ ही दिनों में समृद्धि की ओर बढ़ने लगा। देखते ही देखते वह धनी व्यक्तियों में गिना जाने लगा। जब गुरू रामदास जी ने मसँद प्रथा प्रारम्भ की तो सोमाशाह को भी राजस्थान से अलवर क्षेत्र में धर्म प्रचार सौंपा गया जो उन्होंने पूरी लगन से निभाया। आज भी अलवर में सोमाशाह के बाद शाह जी की गद्दी चली आ रही है, लेकिन वर्तमान उत्तराधिकारी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के साथ-साथ शाह जी के उपासक हैं, जो कि देहधारी वँश का एक रूप है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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