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7. बाबा श्रीचँद जी की दर्शनार्थ भेंट

श्री गुरू नानक देव जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्री चँद जी का अपने पिता से प्रारम्भिक जीवन में सैद्धान्तिक मतभेद उत्पन्न हो गया था। श्री गुरू नानक देव जी ने गृहस्थ जीवन को सही मानते थे, किन्तु श्रीचँद जी ने सदैव जति रहने की शपथ ले रखी थी अतः गुरू जी की कृपा के पात्र नहीं बन सके। परन्तु गुरू अँश होने के कारण समाज में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी वैसे उन्होंने भी नाम-बाणी का अभ्यास करके आध्यात्मिक दुनियाँ में ऊँची प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। इन दिनों इन्होंने जिला गुरदासपुर में बारठ नामक गाँव में अपना निवास स्थान बना रखा था। जब आपने गुरू रामदास जी (भाई जेठा जी) की ख्याति सुनी कि वह अति नम्र और मधुर भाषी हैं, तो उनका दिल श्री रामदास जी के दर्शन को लालयित हो उठा, वह अपनी साधु मण्डली सहित गुरू के चक्क (श्री अमृतसर साहिब) पहुँचे। वह यह देखना थे कि हमारे पिता जी का उत्तराधिकारी वास्तव में नम्र है या यूँ ही अफवाह फैला रखी है। अतः परीक्षा लेने के विचार से गुरू दरबार के लिए चल पड़े। जैसे ही गुरू रामदास जी को मालूम हुआ कि श्री गुरू नानक देव जी के बड़े सुपुत्र उनसे मिलने आ रहे हैं, तो वह उनकी अगवानी करने पहुँचे और उनको मार्ग से ही अभिनन्दन करके अपने साथ नगर में ले आये और खूब सेवा की, बाबा श्री चँद जी की इस समय आयु लगभग 84 साल की थी। वृद्ध शरीर को ही गुरू रामदास जी ने दबाया। गुरू जी की दाड़ी बहुत लम्बी और घनी थी। अतः श्रीचँद जी ने हास्य रस में मुस्कुराते हुए कहा आपने इतनी सुन्दर दाड़ी काहे को बढ़ायी है ? उत्तर में गुरू रामदास जी ने नम्रतापूर्वक कहा, आप जैसे महापुरूषों के चरण झाड़ने के लिए। यह मधुर वचन सुनते ही बाबा श्रीचँद बोल उठे कि गुरू अंगद देव जी ने नम्रता व सेवा के बल से गुरूगद्दी प्राप्त की थी, ठीक वैसे जी आप भी उनके उत्तराधिकारी होने के नाते नम्रता व प्रेम की मूर्ति हैं, इसी कारण इतनी महान पदवी प्राप्त की है। मैंने आपकी महिमा पहले भी सुनी थी किन्तु इसका अब प्रत्यक्ष देख लिया। अतः अब कोई सँश्य बाकी नहीं रहा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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