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6. गुरू पद का मिलना

श्री गुरू अमरदास जी ने अनुभव किया कि उनके श्वासों की पूँजी समाप्त होने को है और वह बहुत वृद्धावस्था में हैं। अतः उन्हे गुरू नानक देव जी के पँथ को सुचारू चलाने के लिए समय रहते सुयोग्य उत्तराधिकारी का चयन कर देना चाहिए। उन्होंने एक दिन अपने दोनों पुत्रों तथा दोनों दामादों को कहाः कि मैं अब बहुत वृद्ध हो गया हूं। मुझे "विश्राम" से बैठने के लिए "बाउली" के निकट चारों और चारों दिखाओं में अलग–अलग आसन अथवा थड़े बना दें, जिससे मैं इच्छानुसार संगत में बैठकर सम्पर्क बनाए रख सकूं। यह आदेश मिलते ही दोनों पुत्रों ने यह कार्य किसी कुशल कारीगर से करवाने के लिए कहा और चले गये। किन्तु दामाद रामा जी और जेठा जी ने तुरन्त थड़ों का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। जब थड़े बनकर तैयार हुए तो गुरू जी ने जब देखा तो उन थड़ों को अस्वीकार कर दियाः कि यह मेरे वृद्ध शरीर के हिसाब से नहीं हैं, इन्हें गिरा कर पुनः निर्माण करें। गुरू जी द्वारा थड़ों को रद्द कर देने से श्री रामा जी के दिल को बहुत ठेस पहुंची और नाराज से हो गये किन्तु भाई जेठा जी ने गुरू जी की इच्छा अनुसार पुनः निर्माण कार्य में लीन हो गये। जेठा जी को देखकर रामा जी ने भी पुनः कार्य प्रारम्भ तो कर दिया परन्तु उनमें वो पहले वाली लग्न न रही। थड़े के पुनः तैयार होने की सूचना मिलते ही गुरू जी निरीक्षण किया। और दोनों दामादों को डाँटा और कहाः कि तुम दोनो मेरी "इच्छा अनुकूल" थड़े निर्माण करने में असफल रहे हो। समय और सामाग्री दोनों नष्ट कर रहे हो, इसलिए इनको गिराकर मेरी आवश्यकता को समझकर थड़े बनाओ। इस पर भाई रामा जी तिललिमा उठे और कहने लगेः आप जी ने जैसा समझाया था मैंने वैसा ही बनाने का प्रयास किया है, इससे ओर अच्छा मुझसे नहीं बन सकता। किन्तु जेठा जी ने गुरू जी के आगे हाथ जोड़कर कहाः मैं अल्प बुद्धि वाला हूं मेरी ऋटियों पर घ्यान न देकर कृप्या मुझे एक अवसर और प्रदान करें, जिससे में आपकी आवश्यकता को समझकर पुनः थड़े का निर्माण कर सकूँ। इस प्रकार वह गुरूदेव का पुनः आदेश प्राप्त कर कार्यरत हो गये। किन्तु रामा जी ने निर्माण कार्य त्याग दिया। तीसरी बार केवल जेठा जी ने थड़ा बनाया। गुरूदेव जी ने उसका निरीक्षण किया तो फिर कहाः "जेठेया" ! जिस तरह मैंने तुझे समझाया था यह उस प्रकार नहीं बन पाया। यह मुझे पसन्द नहीं। इसे भी गिरा दो। इतना सुनकर श्री जेठा जी ने गुरू जी के चरणों में अपना शीश रख दिया और कहाः मैं अनजान भुलकक्ड़ हूँ, आप कृपालू हो मेरी बार–बार भूल क्षमा कर देते हो। यह मेरा दर्भाग्य ही है कि मुझे आपकी बात समझ नहीं आई। फिर समझा दें, मैं पूरे तन-मन से आपके दर्शाये अनुसार थड़ा बनाने का प्रयत्न करूंगा। बस यह वाक्य सुनते ही गुरू जी ने जेठा जी को चरणों से उठाकर कण्ठ से लगा लिया और कहाः बेटा ! मुझे थड़ों की कोई आवश्यकता नहीं, मुझे तो तुम्हारा स्नेह चाहिए, जो कि मुझे मिल गया है। तेरे में वह सभी कुछ है, जो गुरू नानक देव के उत्तराधिकारी में होना चाहिए। अगले दिन गुरू अमरदास जी ने एक विशेष दीवान सजाने का आदेश दिया, जिसमें सभी गणमान्य अतिथियों को भी आमँत्रित किया गया था। गुरू जी ने समस्त संगत के समक्ष श्री जेठा जी (रामदास जी) को अपने असान पर विराजमान कर दिया और बाबा बुड्डा जी को आदेश दिया कि वह गुरू पद की आपचारिकताएँ सम्पन्न करें और स्वयँ जेठा जी के चरणों में नतमस्तक हो गये। इस प्रकार उन्होंने संगत से कहा, मैंने बहुत लम्बे समय से जेठा जी को देखा है और कई बार कड़ी परीक्षा भी ली है और इस प्रकार पाया है कि जेठा जी में वह सभी गुण विद्यमान हैं, जो गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी में होने चाहिए। अतः मेरा निर्णय है कि गुरू ज्योति का अगला स्वामी श्री जेठा जी होंगे। उन्होंने समस्त संगत और अपने पुत्रों को आदेश दिया कि वो श्री रामदास जी (जेठा जी) को शीश झुकाकर नमस्कार करें। ऐसा ही किया गया, किन्तु गुरू जी के बड़े सुपुत्र श्री मोहन जी ने आज्ञा की अवहेलना की और वह उठकर वापिस चले गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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