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21. श्री अरजन देव जी को गुरू पद सौंपना

इस बार सावधानीपूर्वक सँदेशवाहक ने पृथीचँद की दृष्टि बचाकर पत्र श्री गुरू रामदास जी के हाथों में सजे हुए दरबार में दे दिया। पत्र पढ़ते ही श्री अरजन देव जी की बाणी गुरूदेव के अर्न्तमन को झिझोड़ गई। पुत्र के लिए सहज स्नेह उमड़ पड़ा। उन्होंने तुरन्त श्री अरजन देव जी को श्री अमृतसर साहिब बुलवाने का प्रबन्ध किया। किन्तु यह क्या ? पत्र पर तो 3 (तीन) अंक लिखा हुआ है ? क्या इससे पहले श्री अरजन देव जी ने हमारे लिए पत्र भेजे थे ? उन्होंने सँदेशवाहक से पूछा ! इस पर उसने बतायाः मैं दो बार पहले पत्र लेकर आ चुका हूं। किन्तु आपसे भेंट नहीं हो सकी अतः वह दोनों पत्र क्रमशः आपके बड़े सुपुत्र पृथीचँद को दिए हैं, जिनका कि वह मुझे उत्तर भी देते रहे हैं कि अरजन देव के लिए पिता जी का आदेश है कि अभी कुछ दिन ओर वहाँ पर रहकर गुरमति का प्रचार करें, हमें जब उसकी आवश्यकता होगी हम स्वयँ सँदेश भेजकर बुला लेंगें। पृथीचँद सँदेशवाहक को देखते ही बहुत छटपटाया। और अनजान बनने का अभिनय करते हुए गुरूदेव से पुछने लगाः पिता जी ! मेरे लिए क्या हुक्म है ? तब श्री गुरू रामदास जी ने पृथीचंद से कहाः वे पत्र जो इस सेवक ने तुम्हे दिए हैं, कहाँ हैं, हमें क्यों नहीं दिखाए ? पृथीचंद के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था। वह बहाने बनाने लगाः मुझे ध्यान नहीं आ रहा कि इस व्यक्ति ने मुझे कोई पत्र दिए हैं वास्तव में मैं कामकाज में बहुत व्यस्त रहा हूँ इसलिए भूल हो सकती है। इस पर गुरूदेव ने कहाः ठीक है वे पत्र हमें तुरन्त दे दो। किन्तु पृथीचँद मुकर गया वह कहने लगाः पत्र मेरे पास हैं ही नहीं। गुरूदेव ने उसी समय एक सेवक को आदेश दिया कि आप पृथीचँद के घर पर तलाशी लें। तलाशी में पत्र प्राप्त हो गए, जिन्हें पढ़कर गुरू रामदास जी को विश्वास हो गया कि अगला गुरू अरजन ही होगा। बेटे अरजन की पितृ अथवा गुरू भक्ति अतुलनीय है। उसने मेरी आज्ञा का जिस श्रद्धा से पालन किया है उसका उदाहरण मिलना कठिन है। वह आज्ञाकारी, नम्रता की मूर्ति, अभिमान से कोसों दूर विवेकशील, बहमवेता, शाश्वत ज्ञान से परिपूर्ण एक महान व्यक्तित्व का स्वामी है अतः वह ही हमारा उत्तराधिकारी होगा। घोषणा करते ही उसी समय आपने बाबा बुडढा जी को लाहौर भेजा कि वह श्री अरजन देव जी को आदर सहित वापस ले आएँ और स्वयँ उनको गुरूपद सौंपने की तैयारी में जुट गए। श्री अरजन देव जी जैसे ही श्री अमृतसर पहुँचे पिता गुरू रामदास उनको लेने मार्ग में मिले। पिता पुत्र की जुदाई समाप्त हुई। श्री अरजन देव भागकर गुरू जी के पुनीत चरणों में नतमस्तक हो गए। दबी पीड़ा अश्रुधारा में फूट पड़ी। सजल नेत्रों से पिता श्री के चरण धो डाले और दिलवेदक बाणी में कह उठे कि यह अरजन कितना अभागा है कि आपके पुनीत चरणों के लिए तरसता रहा। पिता श्री ने उनको उठाकर गले से लगाया और उनकी भीगी पलके सब कुछ मौन व्यक्त कर रही थीं। उनका लाडला एक कठिन परीक्षा में सफल हुआ है। भला पिता के लिए इससे बड़ा गौरव और क्या हो सकता था अतः उन्होंने अरजन के ललाट पर एक आत्मीय चुम्बन अंकित कर दिया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार गुरूदेव ने तत्काल दरबार सजाया और अपने प्रिय पुत्र को अपने निर्णय से अवगत कराया कि हम तुम्हें श्री गुरू नानक देव जी के पाँचवें उत्तराधिकारी नियुक्त करते हैं। पुत्र को तो पिता गुरूदेव जी की आज्ञा का सम्मान करना ही था। इसलिए श्री अरजन देव जी ने कोई विरोध प्रकट नहीं किया। गुरूदेव ने उन्हें तुरन्त अपने सिँहासन पर बिठाकर परम्परा अनुसार बाबा बुडढा जी द्वारा तिलक दिया और स्वयँ गुरू मयार्दा अनुसार एक विशेष थाल में भेंट स्वरूप कुछ विशिष्ट सामाग्री अर्पित करते हुए डण्डवत प्रणाम किया और समस्त संगत को आदेश दिया कि वह उनका अनुसरण करें। संगत ने गुरूदेव की आज्ञा का पालन करते हुए श्री अरजन देव जी को पाँचवा गुरू स्वीकार कर लिया। किन्तु पृथीचँद ने बहुत बड़ा उपद्रव करने की ठान ली। उसने कुछ मसँदों (मिशनरियों) के साथ साँठ-गाठ कर रखी थी। वह उनको लेकर गुरू दरबार में अपना पक्ष लेकर पहुँचा। और गुरूदेव के समक्ष तर्क रखने लगाः कि गुरू पद उसे मिलना चाहिए था क्योंकि, वह हर दृष्टि से उसके योग्य है। इस पर कुछ विशिष्ट व्यक्तियों ने उसे समझाने का असफल प्रयास किया, जिसमें मामा गुरदास जी, माता भानी जी तथा बाबा बुडढा जी भी थे। सभी ने मिलकर उसे समझायाः गुरूता गद्दी किसी की भी विरासत नहीं होती, जैसे कि तुम जानते ही हो प्रथम गुरूदेव श्री गुरू नानक देव साहिब जी ने अपने पुत्रों को गुरू पद नहीं दिया जबकि वे दोनों योग्यता की दृष्टि से किसी से कम नहीं थे। ठीक इसी प्रकार श्री गुरू अंगद देव साहिब जी ने अपने सेवक को गुरयाई बख्शी। वह सेवक कोई और नहीं तुम्हारे नाना जी थे जो कि उनकी आयु से भी बड़े थे। बस तुम्हें और बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि तुम्हारे नाना श्री गुरू अमरदास साहिब जी ने समय आने पर गुरू पद तुम्हारे पिता जी को दिया था, जो कि वास्तव में उनके सेवक थे। वह चाहते तो अपने बेटों को उत्तराधिकारी बना सकते थे क्योंकि तुम्हारे मामा मोहन जी तथा मोहरी जी दोनों योग्य हैं किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इन तर्कों के आगे पृथीचँद के पास कोई ठोस आधार नही बचा था। किन्तु वह अपनी हठधर्मी पर अड़ा हुआ था। वह गुरूदेव पिता जी से उलझ गयाः कि आपने मेरे साथ पक्षपात किया है मैं बड़ा हूँ अतः आपको मुझे उत्तराधिकारी घोषित करना चाहिए था। गुरूदेव ने उसे समझाते हुए कहाः गुरू घर की मर्यादा है किसी पूर्ण विवेकी पुरूष को गुरूपद दिया जाता है यह दिव्य ज्योति है, किसी की विरासत वाली वस्तु नहीं इसलिए इस परम्परा के समक्ष तेरी नाराजगी का कोई औचित्य नहीं बनता। किन्तु पृथीचँद अपनी हठधर्मी से टस-मस नहीं हुआ। उसका कहना थाः केवल आप मुझ में कोई कमी बता दें तो में सँतोष कर लूँगा। इस पर श्री गुरू रामदास जी ने श्री गुरू अरजन देव जी द्वारा वह तीनों पत्र संगत के समक्ष रख दिये और कहा कि पृथीचँद यह पद्य अधूरे हैं इनको सम्पूर्ण करने के लिए ऐसी रचना करो जिससे यह सम्पूर्ण हो जाएँ। अब पृथीचँद के समक्ष चुनौती थी किन्तु प्रतिभा के अभाव में वह कड़े प्रयास करने के पश्चात भी एक शब्द की भी रचना नही कर पाया। अन्त में गुरूदेव ने श्री अरजन देव जी को आदेश दिया कि बेटा तुम्ही इस कार्य को सम्पूर्ण करो। इस पर श्री गुरू अरजन देव जी ने निम्नलिखित रचना करके पिता श्री गुरू रामदास जी के समक्ष प्रस्तुत कीः

भागु होआ गुरि संतु मिलाइआ ।। प्रभु अबिनासी घर महि पाइआ ।।
सेव करी पलु चसा न बिछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीउ ।।
हउ घोली जीउ घोलि घुमाई जन नानक दास तुमारे जीउ ।।

इस नई रचना को देखकर पिता श्री गुरू रामदास जी व संगत अति प्रसन्न हुई, केवल दुखी हुआ तो पृथीचँद। वह सभी को कोसता रहा परन्तु कुछ कर नहीं पा रहा था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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