18. लाहौर नगर की संगत का निमँत्रण
श्री गुरू रामदास जी को प्रायः लाहौर नगर की संगत निमँत्रण भेजती
थी कि आप हमारे यहाँ पधारें और स्थानीय जनसाधारण के उत्थान के लिए कोई विधिवत
कार्यक्रम चलाकर उनका मार्गदर्शन करें। गुरू जी ने संगत की प्रबल इच्छा को ध्यान
में रखकर लाहौर जाने का कार्यक्रम बनाया। जब आप वहाँ पहुँचे तो आपके स्वागत के लिए
जनसमूह उमड़ पड़ा। आपके चचेरे भाई सिहारीमल जी ने अगवानी की और अपने यहाँ प्रीतिभोज
दिया। संगत में से कुछ श्रद्धालूओं ने आपको क्रमवार अपने यहाँ पर प्रितिभोज पर
आमँत्रित करना प्रारम्भ कर दिया। फलस्वरूप आप जिज्ञासुओं के उद्धार के लिए दरबार
लगाकर प्रवचन करते। कार सेवा से वहाँ पर बहुत ही जल्दी एक धर्मशाला तैयार हो गई। इसी
बीच आपको एक सिक्ख मिलने आया उसने आपके समक्ष अपनी व्यक्तिगत घरेलू समस्या रखी और
बताया कि मेरे चचेरे भाईयों ने मेरे विरूद्ध षडयन्त्र रचकर मेरी भूमि हथिया ली है।
उन्होंने बहुत से सरकारी कर्मचारियों के साथ मिली-भगत कर ली है। अतः उनका पक्ष भारी
है। जबकि में सत्य पर हूं किन्तु मेरा पक्ष हल्का है। गुरू जी ने कहाः जब मानव शक्ति
काम न करे तो सत्यवादी को केवल उस परमात्मा की शरण लेनी चाहिए। प्रभु सदैव अपने
भक्तों की लाज रखता है। तभी गुरू जी ने निम्नलिखित रचना उच्चारण कीः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु २ महला ४ ॥
किस ही धड़ा कीआ मित्र सुत नालि भाई ॥
किस ही धड़ा कीआ कुड़म सके नालि जवाई ॥
किस ही धड़ा कीआ सिकदार चउधरी नालि आपणै सुआई ॥
हमारा धड़ा हरि रहिआ समाई ॥१॥
हम हरि सिउ धड़ा कीआ मेरी हरि टेक ॥
मै हरि बिनु पखु धड़ा अवरु न कोई,
हउ हरि गुण गावा असंख अनेक ॥१॥ रहाउ ॥
जिन्ह सिउ धड़े करहि से जाहि ॥ झूठु धड़े करि पछोताहि ॥
थिरु न रहहि मनि खोटु कमाहि ॥
हम हरि सिउ धड़ा कीआ जिस का कोई समरथु नाहि ॥२॥
एह सभि धड़े माइआ मोह पसारी ॥
माइआ कउ लूझहि गावारी ॥ जनमि मरहि जूऐ बाजी हारी ॥
हमरै हरि धड़ा जि हलतु पलतु सभु सवारी ॥३॥
कलिजुग महि धड़े पंच चोर झगड़ाए ॥
कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु वधाए ॥
जिस नो क्रिपा करे तिसु सतसंगि मिलाए ॥
हमरा हरि धड़ा जिनि एह धड़े सभि गवाए ॥४॥
मिथिआ दूजा भाउ धड़े बहि पावै ॥
पराइआ छिद्रु अटकलै आपणा अहंकारु वधावै ॥
जैसा बीजै तैसा खावै ॥
जन नानक का हरि धड़ा धरमु सभ स्रिसटि जिणि आवै ॥५॥