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17. भाई महानँद जी व बिधिचन्द जी

श्री गुरू रामदास जी के दरबार में दो मित्र महानँद व बिधिचँद जी उपस्थित हुए। वह कई दिन गुरू जी के प्रवचन श्रवण करते रहे। इस बीच उनके दिल में बसी कुण्ठा का समाधान हो गया। वे सन्तुष्ट थे इसलिए उन्होंने गुरू जी के समक्ष सँशय रखा कि हमें अपने निजि स्वरूप के दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं अर्थात हमारा अंतःकरण सदैव हर्ष उल्लास में आनन्दित रहे ? वह विधि कौन सी है कृप्या मार्गदर्शन करें। उत्तर मे गुरू जी ने मुस्कराकर कहा: आपने तत्व ज्ञान की बात पूछी है यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। आवागमन के चक्र से छुटकारा पाने का इसी में रहस्य छिपा हुआ है, बस इस प्रकार समझ लो कि इस प्रश्न का उत्तर ही शाश्वत ज्ञान प्राप्ति का मार्ग है। वह प्रभु एक विशाल दिव्य ज्योति है जो कण-कण में विद्यमान है। हम भी उसी ज्योति के अँश मात्र हैं जो हमारे में जीवन के लक्ष्ण दिखाई देते हैं, यह उसी ज्योति के पूँज के कारण हैं। यदि वह हमारे मे से अपनी सत्ता का अँश निकाल लेता है तो हमें मृत घोषित कर दिया जाता है, इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी काया केवल एक मिटटी का पुतला है जो परम ज्योति के अँश के विद्यमान रहने से कार्यशील दृष्टिगोचर होती है। दूसरे शब्दों में हम शरीर नहीं है। शरीर तो नश्वर है इसमें विद्यमान ज्योति पूँज का अँश ही हम हैं अर्थात वही आत्मा है जो कि अमर है यही आत्मा बार-बार नया शरीर धारण करती रहती है जब तक कि पुनः परम ज्योति में विलय नहीं हो जाती। भाई बिधिचन्द जी: हमारी आत्मा क्यों भटकती रहती है अर्थात बार-बार नये रूपों में शरीर धारण करती रहती है ? गुरू जी: इसके दो मुख्य कारण हैः पहलाः जीव-आत्मा मिथ्या अभिमान करती रहती है अर्थात वह स्वयँ को ही सभी कार्यों का करता मानती रहती है और इसी अभिमान में फँसी रहती है। बस यही कर्म उसके पूर्नजन्म का कारण बनते हैं। इसके विपरीत यदि जीव-आत्मा को यह ज्ञान दृढ़ हो जाए कि मैं एक माटी का पुतला मात्र हूँ जो भी मेरे द्वारा हो रहा है वह उस परम तत्व द्वारा क्रियान्वित करवाया जा रहा है, मैं तो केवल काठ की पुतली मात्र हूँ। मेरी डोरी एक अदृश्य शक्ति के हाथ में है तो मिथ्या अभिमान समाप्त होकर, मैं-मैं के स्थान पर तूहीं-तूहीं हो जाता है। इस प्रकार अभिमान समाप्त होते ही जीवात्मा को कर्मों के बन्धनों से छुटकारा मिल जाता है। दूसराः तृष्णा का बन्धन ही जीव आत्मा को पूर्नजन्म लेने पर विवश करता है। दूसरे शब्दों में जीव आत्मा माया जाल से स्वयँ को मुक्त नहीं कर पाती। महानँद जी: माया के विस्तृत स्वरूप के विषय में बताएँ ? और इससे छुटकारा किस विधि से प्राप्त हो सकता है ? गुरूदेव जी: कि वे सभी वस्तुएँ और वे सभी रिश्ते मायाजाल हैं जिनको प्राप्त करने अथवा भोगने में मन में इच्छा बनी रहे। भले ही प्राप्ति का साधन कोई भी हो। माया के बन्धनों से मुक्ति प्राप्त केवल तृष्णा को सहज समाप्त करना ही युक्ति है। जब तृष्णा समाप्त हो जाए तो समझ लो आपने जीवन युक्ति के मार्ग में एक उपलबिध कर ली है। इस त्याग को समझने के लिए किसी ऐसी युवती के मन की अवस्था का अध्ययन करना चाहिए जो अपने प्रियतम से मिलने अपने मायके से ससुराल जाने की तैयारी करती है। अर्थात वह क्षण भर में सभी रिश्ते नातों का बन्धन तोड़ नई व्यवस्था को सहर्ष स्वीकार कर लेती है। बिधिचन्द जी: गुरू जी कृप्या बताएँ कि जब सभी में उस प्रभु की महा ज्योति का अँश है तो हम एक-दूसरे से भिन्नता क्यों पाते हैं। गुरू जी: यह तो शतप्रतिशत सत्य है कि जीव आत्मा परम ज्योति का अँश है, केवल अन्तर कई जन्म के सँस्कारों के कारण बनता चला जाता है इस बात को समझने के लिए हम मोमबती के सामने अलग-अलग काँच के टुकड़े रखें तो हमें भिन्न-भिन्न रँग का प्रकाश प्राप्त होगा जबकि हम जानते हैं कि मोमबती की ज्योति पूँज का प्रकाश केवल एक ही रँग का है। यदि हम चाहे कि हमें प्रकाश ज्योति पूँज एक जैसा प्राप्त हो तो हमें काँच के टूकड़ों को स्वच्छ करना होगा अर्थात उसका रँग हटाना होगा। यही क्रिया मनुष्य को भी अपने पूर्व सँस्कारों को समाप्त करने के लिए अपने दिल रूपी दर्पण को स्वच्छ करने के लिए करनी होती है इसकी विधि साधसंगत में आकर गुरू चरणों में बैठकर सीखनी होती है। गुरू जी नाम-बाणी का अभ्यास करवाते हैं। यही नाम रूपी अमृत दिल रूपी दर्पण को घीरे-धीरे मलीन सँस्कारों के प्रभाव को धो डालता है। जिससे परम तत्व के अँश का हमारे भीतर विकास प्रारम्भ हो जाता है। जैसे-जैसे उस परमतत्व के अँश का हमारे भीतर तेज बढ़ेगा वैसे-वैसे हमारे आत्मबल में वृद्धि होती चली जाती है। महानँद जी: गुरू जी ! देह अभिमान से कैसे छुटकारा पाया जा सकता है ? कृप्या इस विषय पर प्रकाश डालें। गुरू जी: हम सभी जानते हैं कि यह शरीर हमने न खरीदा है और न ही बनाया है। यह तो हमें प्रकृति द्वारा उपहार स्वरूप में प्राप्त हुआ है। अतः जब हम उस प्रकृति के आभारी होंगे। अथवा कृतिज्ञता व्यक्त करेंगे तो हमे एहसास हो जाएगा कि हम देह नहीं हैं हमें यह शरीर कुछ वर्षों के लिए मकान रूप में दिया गया है जिसका हमने सदोपयोग करना है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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