16. भाई पदारथु, तारू व भारू राम जी
श्री गुरू रामदास जी के दरबार में जहाँ साँसारिक सुख चाहने वालों
का ताँता लगा रहता, वहीं दूर-दूर प्राँतों से आध्यात्मिक प्राप्तियों के लिए भी
जिज्ञासु बड़े पैमाने पर आते रहते। गुरू जी से प्रायः जिज्ञासुओं के प्रश्न होते कि
आपके द्वारा दर्शाया गया मार्ग अन्य धार्मिक पुरूष कहलाने वालों से बिलकुल विपरीत
है। आप कहते हैं कि गृहस्थ में सभी कर्तव्य करते हुए कल्याण हो सकता है जबकि समाज
में यह धारणा प्रचलित है कि प्रभु प्राप्ति अथवा आत्म कल्याण के लिए घर-गृहस्थी के
सभी कार्यों को त्यागकर एकाँतवास अथवा वनवास में सँन्यास लेकर जाना अति आवश्यक है ?
इसी प्रकार का प्रश्न भाई पदारथु, भाई तारू और भाई भारू राम ने भी किया कि हे गुरू
जी ! कोई सहज मार्ग बताएँ, जिससे हमें वनों में भटकना न पड़े। अथवा भिक्षा माँगकर
उदरपूर्ति के लिए दर-दर हाथ न पसारने पड़ें। तत्कालीन ज्वलँत समस्या को ध्यान में
रखते हुए गुरू जी ने उनका मार्ग दर्शन करने हेतु समस्त संगत को सम्बोधन करते हुए
प्रवचन कहेः हे जिज्ञासुओ ! आध्यात्मिक दुनियाँ में शरीर गौण है केवल शरीर से किए
गए कार्य फलीभूत नहीं होते जब तक कि उसमें मन भी सहयोगी न हो। यदि हमने शरीर से
गृहस्थ त्याग भी दिया तो उसका क्या लाभ जबकि मन में वैराग्य उत्पन्न नही हुआ। मन तो
चँचल है वह कभी भी भटक सकता है और उसके विचलित होते ही शरीर द्वारा किए कार्य
निष्फल हो जाते हैं। यदि आप मन पर अँकुश रखना चाहते हैं तो वह गृहस्थ आश्रम ही है
जहाँ मन के भटकने की सम्भावना क्षीण हो जाती है क्योंकि सँसारिक कर्तव्यों के बोझ
उसको भटकने नहीं देते और मन ने भटकना भी किसके लिए है जबकि सभी साधन गृहस्थ में
उपलब्ध हैं। इसके विपरीत तथाकथित सँन्यासी बार-बार भ्रष्ट होते देखे गए हैं। यदि हम
मान भी लें कोई पूर्ण वैराग्य को प्राप्त व्यक्ति सँन्यासी का जीवन व्यतीत करता है
तो भी उसके द्वारा अर्जित योग फल का अधिकाँश भाग वह गृहस्थी ले जाते हैं जो उसकी
सेवा करते हैं अथवा भोजन व्यवस्था करते हैं। इस प्रकार सँन्यासी कठिन साधना करने के
पश्चात भी वँचित ही रह जाता है। गुरू जी ने संगत को बताया कि गुरमति विशाल मार्ग है
इसलिए यह बहुत सहज-सरल है इसे कोई भी मानव बिना किसी कठिनाई के अपना सकता है यदि
कोई पुरातन पँथी इसका उपहास करता है तो जान लो वह अनजान है, नासमझ है उसे पूर्ण
सतिगुरू की प्राप्ति नहीं हुई।