15. भाई मणिकचँद जी
श्री गुरू रामदास जी के दरबार में गुरू के चक्क (श्री अमृतसर
साहिब जी) मे संगत आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति की अभिलाषा से दूर-दूर से आती। भाई
मणिकचन्द जी गुरू घर से बहुत लम्बे समय से जुड़े हुए थे। वह प्रायः अपने आध्यात्मिक
मार्ग के यात्री मित्रों को साथ लेकर गुरू दरबार में उपस्थित होते थे और अपनी
आध्यात्मिक उलझनों का समाधान पाकर लौट जाते थे। वइ इस बार कुछ अन्य मित्रों के संग
गुरू दरबार में पधारे। उनके मित्र पारो जी व विशनदास जी की जिज्ञासा थी कि मनुष्य
को इसी जीवन में गृहस्थ रहकर कैसे जीवन मुक्ति प्राप्त हो सकती है ? यह प्रश्न
समस्त जिज्ञासुओं के लिए उपयुक्त था। अतः गुरू जी ने कहा कि यदि हम आवागमन का चक्र
समाप्त करके कल्याण चाहते हैं तो हमें सदैव मन पर नियँत्रण करना होगा और उसे इस विधि
से साधना है कि हमारी तृष्णाएँ समाप्त हो जाएँ। प्रभु के हर कार्य में सन्तुष्टि
व्यक्त करें कभी भी विचलित न हो। जहाँ तक माया के बन्धनों का प्रश्न हैः माया का
बहुत विस्तृत स्वरूप हमारे चारों और छाया हुआ है। इसमें चल-अचल सम्पित के अतिरिक्त
रिश्ते-नाते आ जाते हैं। इनके उपराम रहने की एक विधि है। हम इनको अपना न मानकर,
प्रभु द्वारा दिया गया कुछ समय के लिए सँयोग ही समझें। जैसे कई बार यात्रा करते समय
नाव अथवा गाड़ी में इक्टठे बैठकर यात्रा करते हैं किन्तु यात्रा समाप्त होने पर
बिछुड़ जाते हैं और कोई एक-दूसरे से लगाव नहीं रखता, ठीक इसी प्रकार हम किसी भी
निकटवर्ती से मन का बन्धन न बनाए अर्थात विरिक्त रहने में ही कल्याण है।