14. सेवक अथवा भक्त के लक्षण
श्री गुरू रामदास जी के दरबार में एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया
कि भक्त में क्या-क्या गुण अथवा लक्षण होने चाहिए ? प्रश्न सुनकर आप गम्भीर हो गए
और कहने लगेः 1. सर्वप्रथम किसी पूर्ण पुरूष के जीवन चरित्र को अध्ययन करके उसके
अनुसार स्वयँ भी जीवन जीना चाहिए। यदि ऐसा सम्भव न हो सके तो प्रभु के सेवक को प्रभु
के की रजा में रहना चाहिए अर्थात प्रभु के कार्यों पर किन्तु परन्तु न करके उसकी
लीला में प्रसन्नता व्यक्त करनी चाहिए। सुख-दुख दोनों, एक समान जानकर अडोल रहना
चाहिए। भाव यह कि हर्ष शोक से न्यारे रहते हुए भी कभी भी विचलित नहीं होना चाहिए
दोनों अवस्थाओं को प्रभु द्वारा प्रदान निधि समझते हुए उस पर सन्तोष व्यक्त करना
चाहिए। 2. दूसरे गुण में भक्त गण को मन की गति और "अहँकार" को त्यागकर प्रभु को
समर्पित होकर समस्त मानव मात्र की सेवा बिना भेदभाव से करनी चाहिए। 3. तीसरे गुण
में निष्कामता होनी चाहिए यानि कि सेवा के बदले किसी फल की इच्छा न करके केवल प्रभु
से स्नेह ही एक मात्र मनोरथ होना चाहिए। इसी विषय को आपने जनसाधारण का मार्ग दर्शन
करते हुए अपनी बाणी में इस प्रकार व्यक्त किया जिससे सदैव भक्तजनों का पथ प्रदर्शन
हो सकेः
जो सुखु देहि त तुझहि अराधी दुखि भी तुहै धिआई ।।
जो भुख देहि त इत ही राजा दुखु विचि सुख मनाई ।।
तनु मनु काटि काटि सभु अरपी विचि अगनी आपु जलाई ।।
पखा फेरी पाणी ढोवा जो देवहि सो खाई ।।
नानकु गरीबु ढहि पइआ दुआरै हरि मेलि लेहु वडिआई ।।