13. श्री अमृतसर साहिब जी में योगियों
का आगमन
गुरू गोरखनाथ के शिष्य 12 पँथों में विभाजित हो चुके थे।
प्रत्येक पँथ की अपनी विचारधारा और अपनी-अपनी मर्यादा हुआ करती है इनमें से एक पँथ
तीर्थ यात्रा इत्यादि में बहुत विश्वास करता है। वे लोग भ्रमण करते हुए एक समूह के
रूप में लाहौर आए। वहाँ उनको ज्ञात हुआ कि श्री गुरू नानक देव साहिब जी के
उत्तराधिकारी के रूप में श्री गुरू रामदास जी मानव कल्याण के कार्यों में व्यस्त
हैं और वह एक नया नगर बसा रहे हैं जो कि निकट ही है। बस फिर क्या था ? इन नाथ पँथियों
के दिल में गुरू जी द्वारा तैयार नये नगर को देखने की और उनसे मिलने की तीव्र इच्छा
हुई। वे गुरू के चक्क (श्री अमृतसर साहिब जी) पहुँचे। गुरू जी ने उनका हार्दिक
स्वागत किया। इन नाथ पँथियों को लोग सिद्ध अथवा योगी कहते थे। इनकी विचारधारा में
गृहस्थ में रहते हुए मनुष्य को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। जब इन्होंने गुरू के
चक्क में अमृत सरोवर तथा नगर का वैभव देखा तो इनके दिल में जिज्ञासाएँ उत्पन्न हुईं।
वे अपनी विचारधारा के विपरीत वातावरण देखकर आश्चर्य में आ गए और अपने मन में सँश्य
लेकर गुरू जी के सम्मुख उपस्थित हुए। योगियों ने गुरू जी से कहा: आपने माया के
प्रसार के कार्य प्रारम्भ किए हुए हैं, जबकि मोक्ष तो माया के त्याग से मिलता है ?
उत्तर में गुरू जी ने कहा: कि प्रकृति की उत्पति सब माया ही तो है, इसके बिना विकास
ही नहीं। विकास के बिना मानव सभ्यता फूले-फलेगी कैसे ? सभ्यता के विकास के बिना
मोक्ष का क्या अर्थ है ? वास्तव में मोक्ष प्रकृति के नियमों को समझने में है। यह
तभी सम्भव है जब मानव सभ्यता का विकास हो। बस हम वही कार्य करते हैं जिससे
जन-साधारण को सहज में ज्ञान प्राप्ति हो जाए। इस पर गुरू जी से योगी कहने लगे: कि
आप अपने शिष्यों को तो अष्ट योग तो सिखलाते नहीं उनके बिना मन वश में नहीं आ सकता
और भटकरन मिट नहीं सकती। मन की शाँति के बिना आत्मदर्शन नहीं होता। आत्मदर्शन के
बिना युक्ति नहीं और युक्ति के बिना मुक्ति नहीं मिलती। उत्तर में गुरू जी ने कहा:
हमारे शिष्य केवल "भक्ति" द्वारा प्रभु को प्रसन्न कर लेते हैं इसलिए उनको किसी
प्रकार हठ योग करने की आवश्यकता नही नहीं पड़ती। भक्ति मार्ग जहाँ सहज है वहाँ इससे
प्राप्तियाँ भी अधिक हैं। आप लोग वर्षों कड़ी साधना अथवा तप से जो प्राप्त नहीं कर
पाते। ये साधारण मनुष्य केवल अन्तःकरण में बसे प्रभु प्रेम से उसकी प्रातःकाल (अमृत
बेला) में स्तुति करते हैं। जिससे दिल निर्मल हो जाता है। दिल की पवित्रता ही ज्ञान
प्राप्ति का कारण बन जाता है। यही ज्ञान इनको माया में रहते हुए भी माया से उपराम
रहना सिखा देता है। जैसे नाव पानी में रहते हुए भी पानी में नहीं डूबती। ठीक वैसे
ही हमारे सिक्ख गृहस्थ में जीवन यापन करते हुए माया के बन्धनों से मुक्त रहते हैं
इस प्रकार उनके आसपास का वातावरण भी शुद्ध हो जाता है और वे अपने आध्यात्मिक रँग से
दूसरे लोगों को भी खुशियाँ बाँटते हैं। उन योगियों को गुरू जी के कथन में सत्य
प्रतीत हुआ और वह उनको नमस्कार करके चले गए।