11. मसँद प्रथा की स्थापना
श्री गुरू रामदास जी का वास्तविक जीवन माया से उपराम था। उनकी
जीवन शैली साधारण मनुष्यों जैसी थी। उद्धारचित होने के कारण उनके दिल में धन का कोई
महत्व नहीं था। परन्तु मानव कल्याण हेतु वह जो निर्माण कार्य करवा रहे थे उसमें धन
के अभाव में बाधा उत्पन्न होनी प्रारम्भ हो गई। इस प्रकार गुरू जी ने अनुभव किया कि
सार्वजनिक कार्यों के लिए विशाल कोष की आवश्यकता है जिसे किसी विशेष योजनाबद्ध
प्रणाली की स्थापना से पूर्ण किया जा सकता है। अतः उन्होंने अपने समस्त अनुयाइयों
के लिए आदेश जारी करवाया कि वे गुरू घर के कार्यों के लिए अपनी आय का दसवंत यानि
अपनी आय का दसवाँ हिस्सा सदैव भिजवाते रहें, जिससे आर्थिक कठिनाईयां उत्पन्न न हों
और निर्माण कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न हो सके किन्तु संगत ने आप जी से आग्रह किया कि
आप कृप्या अपना कोई प्रतिनिधि भेजकर हमारे घरों से दसवंत एकत्रित करवा लिया करें
क्योंकि प्रतिमाह अथवा प्रतिवर्ष आपकी सेवा में उपस्थित होना सम्भव नहीं होता यदि
कोई ऐसी व्यवस्था स्थापित की जाए जिससे हम समय-समय पर गुरू घर में दशमाँश या दसवंत
भेज सकें तो यह कार्य बहुत सहज हो जाएगा। गुरू जी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करके
कुछ उच्च व निर्मल जीवन वाले सिक्खों को इस कार्य के लिए उन्हीं के अपने क्षेत्र
में नियुक्त कर दिया ताकि वह संगत से दूर-दराज जाकर सर्म्पक करें और उनके द्वारा
दिया गया धन एकत्रित करके भेजें अथवा स्वयँ लाकर गुरू कोष में जमा करवाएँ। सिक्ख
इतिहास में इन मध्यस्थ आदरणीय व्यक्तियों को मसँद कहकर पुकारा जाता रहा है। इस
प्रकार गुरू जी के पास गुरू घर के कार्यों के लिए एक सदृढ़ आर्थिक आधार स्थापित हो
गया। अब गुरू जी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तीव्र गति से कार्य करवा सकते थे।
अतः उन्होंने नवनिर्माण के कार्यों मे धन व्यय करना प्रारम्भ कर दिया। देखते ही
देखत गुरू का चक्क (श्री अमृतसर साहिब जी) एक विकसित नगर में परिवर्तित होने लगा और
इसके साथ ही वह विशाल सरोवर भी लगभग पक्का हो गया जिसके निर्माण का आदेश श्री गुरू
अमरदास साहिब जी स्वयँ दे गए थे।