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1. जन्म (प्रकाश)

  • जन्मः सन 1534
    जन्म किस स्थान पर हुआः चूना मण्डी लाहौर, पाकिस्तान
    माता जी का नामः माता दया जी
    पिता जी का नामः हरिदास जी
    माता पिता का देहान्त कब हो गया थाः एक वर्ष की उम्र में
    विवाह कब हुआः सन 1554
    विवाह किससे हुआः बीबी भानी जी
    गुरू रामदास जी गुरू अमरदास जी के दामाद थे।
    कितनी सन्तान थीः 3 बेटे
    सन्तानों का नामः पृथ्वीचन्द, महादेव और अरजन देव जी
    कौनसा नगर बसायाः श्री अमृतसर साहिब जी
    श्री गुरू रामदास जी पाँचवें गुरू श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के पिता जी थे।
    गुरूआई कब मिलीः सन 1574
    श्री अमृतसर साहिब जी का पहले क्या नाम रखा गया थाः गुरू चक्क
    समकालीन बादशाहः अकबर
    गुरू रामदास जी का पुराना नामः भाई जेठा
    जोती-जोत कब समाएः 1581 ईस्वी
    जोती.जोत किस स्थान पर समायेः श्री गोइन्दवाल साहिब जी

श्री गुरू रामदास जी का प्रकाश लाहौर नगर (पाकिस्तान) के बाजार चूना मण्डी में सन् 1534 संवत 1591 हुआ था। आपके पिता हरिदास जी और माता दया कौर थी। ज्येष्ट पुत्र होने के कारण आसपास व सम्बन्धी आप को जेठा जी कह कर पुकारने लगे इस प्रकार आपका नाम जेठा प्रसिद्ध हो गया। आप अभी नन्हीं आयु के थे कि आप जी की माता जी का निधन हो गया। हरिदास जी छोटी-मोटी दुकानदारी करते थे, जिससे साधारण आय होती थी वे नाम के ही हरिदास बल्कि वास्तव में हरि भक्त थे। देवी-देवताओं तथा मूर्ति पुजा में बिलकुल विश्वास नहीं रखते थे। रामदास (जेठा जी) 7 वर्ष के ही हुए थे कि पिता जी भी सँसार छोड़कर चले गये, जिससे वह अपनी नानी के धर पर रहने लगे। अब बासरके गाँव में ही बालक रामदास (जेठा जी) का पालन-पालन होने लगा। उन दिनों गुरू अमरदास जी दुसरे गुरू अंगद देव जी की शरण में थे और सेवा आदि करते थे, किन्तु वर्ष में एक दो बार अपने प्रियजनों से मिलने अपने गाँव बासरके पहुँच जाते थे। वहाँ पर आध्यात्मिक विचार-विर्मश होता। इन सभाओं में बालक रामदास (जेठा जी) भी पहुँच जाते और ज्ञान चर्चा बहुत घ्यान से सनते। इस बालक की जिज्ञासा देखकर अमरदास जी बहुत प्रभावित होते थे। इस प्रकार वह उनको भा गया और उनके दिल में इस अनाथ बालक के लिए स्नेह उमड़ पड़ा और वह मन ही मन इस बालक को उसकी विवेकशील बुद्धि के लिए चाहने लगे। आपकी शिक्षा बासरके गाँव में ही हुई। आपके नाना जी के अकस्मात निधन के कारण आपकों शिक्षा बीच में ही छोड़कर जीविका चलाने के लिए केवल 12 साल की आयु में परिश्रम करना पड़ा। आपकी नानी आपको घुँगड़ियां (उबले हुए चने) बेचने के लिए देती थीं। उन्हीं दिनों आपको ज्ञात हुआ कि श्री गुरू अंगद देव जी के आदेश अनुसार अमरदास जी ब्यासा नदी के तट पर शाही के किनारे गोइँदवाल नामक नया नगर बसा रहे हैं। कुछ समय पश्चात नगर वासियों को पता लगा कि श्री गुरू अमरदास जी अपने परिवार सहित श्री गोइँदवाल में रहने जा रहे हैं। तो बालक जेठा ने अपनी नानी से बोला कि नये नगर में मजदूरों और कारीगरों का भी जमघट लगा रहता है। यदि ऐसे स्थानों पर में छोटा सा व्यवसाय चलाने का प्रयास करूँ तो वहाँ चलने की सम्भावना अधिक है। नानी को यह सुझाव बहुत अच्छा लगा और उन्होंने नये नगर में जेठा जी को पुर्नवास की अनुमति प्रदान कर दी। इस प्रकार जेठा जी नानी सहित अमरदास जी की क्षरण में पहुँच गये। आप व्यास नदी के घाट पर चले जाते वहाँ नावों से पुल पार करने वाले यात्रियों का ताँता लगा रहता था। यहीं आपके चनों की यात्रियों द्वारा खूब खरीद की जाती जिससे आप की जीविका चलने लगी। चने बचने पर वह उस जगह पर पहुँच जाते, जहां पर मजदूर होते थे। कभी-कभी आप व्यास नदी पार करके गुरू अंगद देव जी के दरबार में उनके दशर्नों को पहुँच जाते, वहाँ गुरू चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करते और उसी शिक्षा के अनुसार जीवन यापन करते थे। लगभग पाँच सालों बाद जब श्री गुरू अंगददेव जी ने श्री अमरदास जी को गुरू पद देकर अपना उतराधिकारी नियुक्त किया तो भाई जेठा जी को अति प्रसन्नता हुई। गुरू अंगद देव जी के आदेश अनुसार जब श्री गुरू अमरदास जी ने गोइँदवाल साहिब को स्थाई प्रचार केन्द्र बना लिया तो यहाँ पर दूर दूर से सिक्ख संगत बड़े पैमाने पर आने लगी, जिनके लिए लंगर की व्यवस्था की जाती थी। अब जब भी अवसर मिलता भाई जेठा जी लंगर की सेवा में समय देने लगे उनका सिक्खी में विश्वास पहले से ही परिपक्व था अब जबकि श्री गुरू अमरदास जी को गुरू पद प्राप्त हुआ तो उनके प्रति असीम श्रद्धा का समुंद्र मन में उमड़ने लगा। साध संगत की सेवा की लग्न, जनून में बदल गई। जिससे उन्हें सेवा से असीम सुख मिलने लगा। किन्तु आप चने बेचने का कार्य भी करते और सेवा भी। वह गुरू उपदेश अनुसार जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब गुरू दरबार में संगत अधिक जुटती तो आप अन्य काम छोड़कर संगत की आवभगत करते। संगतों को शीतल जल पिलाते और पंखे से हवा करते। जब सब विश्राम करते तो आप बर्तन साफ करते और लंगर में सफाई के लिए झाड़ु पोंचा लगाते। निःस्वार्थ भाव से सेवा करने की भावना शायद उन्हें अपने पिता से मिली थी। श्री गुरू अमरदास जी की दृष्टि से भाई जेठा जी की गुरू भक्ति और धर्म निष्ठा छिपी न थी, वह भी जेठा जी को बहुत चाहने लगे और चाहते थे कि यह प्रीत सदैव बनी रहे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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