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6. भँगाणी का युद्ध भाग-2

युद्ध क्षेत्र के बीचों बीच घमासान का युद्ध हो रहा था। नीचे की और से बुद्धूशाह उन्हें रोक कर खड़ा था। नदी के किनारे इस मैदान की लम्बाई काफी दूर तक थी। कुछ पहाड़ी राजाओं, सेना और दूसरे लोगों का भारी जमघट इधर था, इसलिए इसे नीचे की ओर से रोकना जरूरी था। अतः इस ओर से बुद्धूशाह ने रोक रखा था कि इधर से शत्रु बीच से युद्ध की सहायता के लिए पहुँच न सके। अन्त में इन्होंने एक गोलाई में इक्टठा होकर धावा बोल दिया, जिसे बुद्धूशाह ने अपने बल और वीरता से रोका। पीर के चारों पुत्र अपनी-अपनी सेना को चतुराई से लड़वा रहे थे। इस धावे को इन्होंने इस वीरता से रोका कि बढ़ती आ रही सेना के सैंकड़ों जवानों को मार दिया। गुरू जी स्वयँ सारे मोर्चों का पता रख रहे थे और आवश्यकता पड़ने पर जगज-जगह पर चक्कर लगाकर सारी स्थिति को देख रहे थे। वे बुद्धूशाह और उसके सुपुत्रों की वीरता को देखकर प्रसन्न हो रहे थे। अब आप आगे बढ़े, तब पहाड़िये कट गये और जब भारी रोक पड़ी तब सारे पीछे हट गये। इस समय बुद्धूशाह ने दूसरी टुकड़ी से धावा बोल दिया। जिसे सहन न कर सकने पर आसपास की ओर से आगे बढ़े हुए पहाड़िये घबराकर उठ भागे। इन्हें भागते हुए देखकर गुलेरिया गोपाल घबराया कि इनके भागने से हीं सब ओर भगदड़ न मच जाये। वह आप आगे बढ़ा, भागते हुये सैनिकों ने जहाँ जगह खाली की थी, वहाँ पहुँच गया और आगे बढ़े आ रहे बुद्धूशाह की सेना को रोका। इसकी तीरँदाजी और इसके सिपाहियों की वीरता ने बुद्धूशाह की बढ़ती हुई टुकड़ी के तीर और बन्दूकें रोक दी और तलवारों से हाथों हाथ लड़ाई होने लगी। पीर के मुरीद बड़ी वीरता से लड़े और जूझे। घोर गुत्थमगुत्था हो गया। दोनों ओर से अत्यन्त वीरता दिखाई गई। किसी का भी पैर पीछे न पड़ा। घमासान युद्ध हो रहा था कि गुरू जी ने इस और रूख किया। मामा कृपालचँद जी को बुद्धूशाह की सहायता के लिए भेजा। यह अपने साथियों सहित राजा गोपाल की सेना पर तीरों की वर्षा करता हुआ कुमक पर जा पहुचे। इन तीरों की भरमार और उनके अचूक निशाने पर बैठने के कारण गोपाल की सेना को पीछे हटने पर विवश कर दिया, पर वैसे इस तरह से पीछे हटना एक दाँव था, पर मुरीदों को भी तीरँदाजी का समय मिल गया। तीरों की दोहरी मार ने गोपाल की कोई चाल न चलने दी। साथियों को निराश देखकर गोपाल ने निशाना बाँधकर मामा जी पर तीर छोड़ा पर लगा उनके घोड़े को।

गोपाल ने आगे बढ़कर तीर मारकर पीछे हटना चाहा, मगर मामा जी ने पुकार कर कहा– तुने वार किया है और बदला देकर जा और एक तीर जोर से मारा। गोपाल अभी लड़का था, घोड़े को चपला रहा था, आप तो बच गया, पर मामा जी का तीर घोड़े के कानफूल पर जा लगा और वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा। गोपाल शीघ्रता से अपने आपको सम्भालकर पीछे सेना में जा घुसा और वहाँ पर टिक कर खड़ा हो गया। इस सँग्राम में बुद्धूशाह का एक पुत्र शहीद हो गया था। इधर जहाँ पर सँग्राम था, वह स्थान खाली था। मामा जी आगे बढ़े और बुद्धूशाह के पुत्र के शव को खोजकर ले आये। गोपाल की सेना को हल्का करके पीछे हटाकर मामा जी गुरू जी के पास पहुँचे और सारी वार्ता जा सुनाई। फतेहशाह जो कि सारे सँग्राम का प्रबँधक था, स्थान-स्थान पर जाकर अपनी सेना के जमे हुए पैर देखे कि आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, बल्कि पीछे पड़ रहे हैं, तब उसने हयात खाँ आदि पठान सरदारों को सन्देश भेजा कि तुम बहुत ढींगें हाँक रहे थे और हमने लूट का माल माफ करने का वायदा किया है, फिर अब क्या हो गया है आगे क्यों नहीं बढ़ते। यह सुनकर हयातखाँ और निजाबतखाँ आदि ने अपनी टुकड़ियों को सम्भालकर धावा बोल दिया और बड़ी तेजी से तीर बरसाने शुरू कर दिये। दोनों पक्षों की सेना आमने-सामने हुई और एक दूसरे को ललकारने लगे, धड़ाधड़ योद्धा धरती पर गिरने लगे। उन्होंने सिक्ख सेनाओं की यह दशा की, मगर उधर से भी तीरों की ऐसी भरमार हुई कि अनेकों खान धरती पर लेट गये। हैयातखाँ बड़े जोर से ललकारता, दाँव बचाता, तीर चलाता और सारा जोर लगाता।

यह देखकर उदासी संत कृपाल जी गुस्से में आकर गुरू जी से पूछने लगे– गुरू जी हैयातखाँ बड़ा बल लगा रहा है, इसके तीर भय पैदा कर रहे हैं यदि आपकी आज्ञा हो तो नमक हरामियों को दण्ड दिया जाये। गुरू जी ने मुस्कुराकर पूछा– तुम्हारे पास तो कोई शस्त्र नहीं है, मारोगे कैसे ? तब संत ने विनती की। मेरे पास यह धान पीटने वाला सोटा है। यदि आप की मुझ पर कुपा हुई तो यही शस्त्र का काम करेगा। इस पर गुरू जी मुस्कुराए और कँधा थपथपाया और स्वीकृति प्रदान की। तभी साधु ने अपने घोड़े को ऐड़ लगाई और हवा से बातें करता हुआ हैयातखाँ के पास जा खड़ा हुआ और ललकार कर बोला– आ जा, यदि तुझ में वीरता है तो आ मुझसे लड़। महंत कुपाल जी की ललकार सुनकर हैयातखँ ने उसकी हंसी उड़ाई किन्तु तलवार लेकर सम्मुख हुआ। यह नजारा देखकर हर ओर से तीर और तलवारें खड़ी हो गई और चकित होकर देखने लगे कि हैयातखाँ जैसे शूरवीर के साथ लड़ने के लिए सोटे वाला कौन आया है। इतने में हैयातखाँ ने एक दाँव देखकर बाज की फुर्ती से घोड़े को नचाकर साधु पर जा झपटा और बिजली की भाँति तलवार का वार किया, पर साधु ने सोटे को ढाल के स्थान पर इस तरह से तलवार के आगे किया के उसका वार झेल गया। तलवार टूटकर गिर पड़ी और हैयातखाँ अपने आपको सम्भालने की चिन्ता में पड़ गया। तब साधु ने बड़ी फुर्ती से काम किया। दोनों रकाबों में सन्तुलन बनाकर खड़ा हो गया और अपना सोटा घुमाकर बड़े ही वेग के साथ हैयातखाँ के सिर पर दे मारा। वह सोटा इतने जोर से जाकर लगा कि हैयातखाँ का सिर फूट गया। इस समय का हाल गुरू जी ने स्वयँ इस प्रकार लिखा है– "महंत कृपाल जी ने अपना सोटा हैयातखां के सिर पर इस प्रकार बलपूर्वक मारा कि उसक सिर फट गया जैसे कान्हा गोपियों के घड़े फोड़ा करते थे। सिर टुकड़े हो जाने से हैयातखाँ घोड़े से उलटकर जमीन पर गिर पड़ा और घोड़ा उठकर भागा तथा अन्य पठान साधु को घेरने लगे। इधर जीतमल ने सवारों सहित आगे बढ़कर साधु को अपने घेरे में लेकर बचा लिया"।

इस समय जोर की लड़ाई हो रही थी कि हैयातखाँ की मौत से पठानों के छक्के छूट जाने पर, भीखम खाँ ने समय को सम्भाला और घबराहट के कारण हिली हुई सेना को जाकर चुनौती दी कि शूरवीर बनो, हार खाकर क्या यही कहोगे कि साधुओं तथा नीची जाति के लोगों से पठान हार गये ? आओ, आगे बढ़ो मैं तो खड़ा हूँ, मुझे आज अवश्य ही विजय प्राप्त करनी है। इस प्रकार की चुनौती भरी बातें सुनकर हारे हुये पठान सावधान हो गये। भीखम खाँ आगे बढ़ा और उसके साथ बढ़ा निजावत खाँ। उधर से हैयातखाँ की मृत्यु को देखकर फतेहशाह ने अपनी सेना को आगे बढ़ाया। अब फिर शत्रु की सेना का बहुत जोर हो गया। हरीचँद्र हँडूरिया बड़े क्रोध में आया। यह अपने समय का प्रसिद्ध तीरँदाज था। उसके तीरों से गुरू जी की सेना का काफी नुकसना हुआ, जिससे गुरू जी की सेना में हलचल मच गई। गुरू जी ने जब यह देखा कि साहिबचँद जो कि एक ओर से बड़े हठ के साथ जम रहा है और बड़े बल के साथ युद्ध कर रहा है पर अब उसका वश नहीं चल रहा, तब उन्होंने नन्दचँद को कुमक के लिए भेज दिया और साथ ही दयाराम अपनी सेना लेकर पहुँचा। इन्होंने और इनके जत्थे ने ऐसे बाण मारे कि बढ़े चले आ रहे अनेकों सैनिक गिर गये। नन्दचँद और दयाराम के आगे बढ़े चले आने से गुरू जी की सेना में उत्साह बढ़ गया और फिर सारे जमकर लड़ने लगे। नन्दचँद ने अब धावा बोलकर एक पठान पर बरछी चलाई और उसे उसमें पिरोकर गिरा लिया। फिर एक और बरछी चलाई पर वह घोड़े को लगी और वह वहीं पर ही रही। नन्दचँद ने अब अपनी तलवार सम्भाली, सम्मुख होकर लड़ा और पीछे न हटा। इस कोप भरी लड़ाई को लड़ते समय दो पठानों को मारकर, तीसरे के साथ लड़ते हुए इसकी तलवार भी टूट गई। शीघ्रता से इसने छाती से जमधर निकाला और उसे मार दिया। इसके हठ ने तहलका मचा दिया। अब इसको घेरे में आ जाने अथवा तीर का निशाना बन जाने से कोई देर नहीं थी कि दयाराम आगे बढ़कर इसके पास जा पहुँचा।

इधर से गुरू जी ने अपने मामा कृपालचँद जी को, जो कि शूरवीरों को जोश से भर रहे थे, सहायता के लिए भेज दिया, जिसने आगे बढ़कर घमासान उत्पात मचाया। मामा जी को कई तीर लगे, घाव आए पर प्रभु ने उनके प्राणों की रक्षा की। चोट खाकर भी मामा जी पीछे नहीं हटे और आगे बढ़कर लड़े। कितने ही खानों को घोड़ो से नीचे गिराया और कितने ही मार गिराये। अतः साहिबचँद जो कि बड़े हठ से इस ठिकाने पर जमा हुआ था, इन कुमकों के पहुँच जाने पर भी जमा रहा। इस तरह इन्होंने बहुत से पठानों का वध कर दिया। हरीचँद इस ओर से थोड़ा पीछे हटकर भीखन खाँ को टिकाकर और हौसँला देकर सँगोशाह की और शीघ्रता से चला गया। गुरू साहिब जी स्वयँ युद्ध के इस दृश्य का इस प्रकार वर्णन करते हैं– ‘‘मैदान बहुत लम्बा था। जगह-जगह पर मारो-मार हो रही थी, फतेहशाह उस पार से इधर को आ गया था, पर लड़ रही टुकड़ियों के पीछे खड़ा था। हताश होकर भागने वालों को दोबारा आगे भेजता, कुमकें भेजता और युद्ध को सभी ओर से सँभालता था। जिस ठिकाने पर सँगोशाह लड़ रहा था, अब उधर जोर बढ़ रहा था। जिस ओर बुद्धूशाह था, उस ओर भी युद्ध जारी था। पीर जी का एक पुत्र शहीद हो चुका था। पर पीर जी ने साहस नहीं छोड़ा था और उनकी सैनिक टुकड़ी उस और मैदान में डटकर युद्ध कर रही थी‘‘।
इस युद्ध में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं जो कि पठानों और राजाओं को चकित कर देने वाली थीं:

1. वे लोग जो कभी जँग में नहीं आये थे, उन्होंने भी वीरता दिखाई।
2. गुरू जी के वीरता भरे जोश का यह प्रभाव था कि दयाराम शूरवीर बन गया था। खैर, वह तो शस्त्र विद्या में निपुण हो चुका था।
3. चरवाहे तक भी युद्ध करने में अगुआ बन गये थे।
4. एक साधु ने उठकर मुख्य पठान सरदार को मार दिया था।
5. लालचँद नामक एक हलवाई का जिक्र आया है जो युद्ध का रँग देखकर मैदान में कूद पड़ा था। इसने अमीर खाँ नामक पठान को जाकर चुनौती दी और हाथों-हाथ लड़ाई में उसे मार दिया था।

हरीचँद, नजावत आदि पठानों को एक ठिकाने पर खड़ा करके सँगोशाह की ओर झपटा। इसे यह दिख रहा था कि यदि इस ओर जोर पड़ गया तो निश्चय ही हमारी हार हो जायेगी। सँगोशाह यहाँ पर बड़े जोर का युद्ध कर रहा था और शत्रुओं को मार रहा था। राजा गोपाल अभी तक शूरवीरता से जमा खड़ा था। यह हाल देखकर ही हरीचन्द इस ओर लपका था। उधर से मधुकरशाह चन्देल भी इधर को ही आ लपका था। हरीचन्द ने आकर बड़ी वीरता से तीर चलाए, जिसे वे तीर लगे, वहीं मर गया। इसने गुरू जी की सेना के अनेकों वीर हताहत किये। तब इधर से जीतमल जी हरीचन्द को बढ़ते हुए देखकर जूझ पड़े और आमने-सामने दाँव-घाव और वार करने लगे। अब फतेहशाह का सँकेत पाकर नजाबत खाँ भी इधर आ गया और आते ही सँगोशाह के साथ टक्कर लेने लगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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