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118. सोहना-मोहिना

(कभी भी मानव सेवा से बढ़कर किसी बात को महत्व नहीं देना चाहिए। किन्तु कुछ लोग कर्मकाण्डों और पाखण्डों में इस प्रकार से उलझ जाते हैं कि उन्हें मानवमात्र की सेवा का ध्यान ही नहीं रहता।)

अम्बाला नगर के निकट रायपुर क्षेत्र में समृद्ध दम्पति सोहन और मोहिनी रहते थे लम्बे समय के पश्चात भी इनको सन्तान सुख प्राप्त नहीं हुआ। अतः यह अपने आप को व्यस्त रखने के लिए अधिकाँश समय ठाकुर जी क उपासना में लगाते और साधु सँन्यासियों के प्रवचन में पड़े रहते। एक बार इनको एक वैरागी साधु मिला जिसने इनको एक विशेष कर्मकाण्ड द्वारा ठाकुर जी को प्रसन्न करने की विधि बताई। ये भोला दम्पति उसी विशेष विधि द्वारा ठाकुर को प्रसन्न करने की चेष्टा करता रहता। जिसके अर्न्तगत किसी विशेष सरोवर से जल लाकर ठाकुर को स्नान कराकर भोग लगवाते और उस प्रतिभा के समक्ष नृत्य करते। इस प्रकार कई वर्ष बीत गए परन्तु मन को शान्ति नहीं मिली कि फल की प्राप्ति कब होगी। एक दिन भोर के समय वे दम्पति पवित्र जल की गागर लेकर घर लौट रहे थे तो रास्तें में एक घायल व्यक्ति उसके पास आया और वह विनम्रता से विनती करने लगा कि कृप्या मुझे थोड़ा सा पानी पिला दें अन्यथा मेरे प्राण निकल जाएगें। किन्तु पवित्र जल तो ठाकुर जी को स्नान कराने कि लिए था। अतः यह किसी अन्य व्यक्ति को कैसे दिया जा सकता था ? इसलिए सोहना मोहिना ने उस घायल की प्रार्थना अस्वीकार कर दी और घर की ओर चल पड़े तभी घायल व्यक्ति ने कहा यदि पीड़ित, जरूरतमँद की सहायता नहीं कर सकते तो यह जल किसी काम नहीं आएगा। जब दम्पति घर पहुँचा और ठाकुर को स्नान कराने लगा तो उसके कानों में घायल के कराहने की आवाज आती और वह वाक्य बार-बार याद आता कि तुम्हारा यह जल अथवा परीश्रम व्यर्थ है यदि किसी के कठिन समय काम नहीं आ सकते। सोहिना-मोहिना को अपनी भूल का अहसास होने लगा वह तुरन्त घर से लोट पड़े और वहीं पहुँचे जहाँ पर उनको घायल मिला था। परन्तु इस अन्तराल में घायल व्यक्ति ने प्राण त्याग दिये थे। घायल को मृत देखकर अब वह दम्पति के दिल को बहुत ठेस लगी परन्तु अब तो समय हाथ से निकल चुका था मृत को चारों और से भीड़ ने घेर रखा था। इस बीच भीड़ में से एक व्यक्ति ने शव की पहचान, एक सिक्ख व्यक्ति के रूप में कर दी जो कुछ समय पहले डाकुओं के गिरोह से लोहा लेते हुए घायल हुआ था। दम्पति के दिल में पाश्चाताप की ज्वाला भड़क उठी। वे क्षमा याचना करना चाहते थे। किन्तु कैसे दोष से मुक्ति प्राप्त की जाए वे समझ नहीं पा रहे थे। तभी उनको एक सुझाव मिला कि इस सिक्ख के गुरू जी बहुत की उदार दिल के स्वामी हैं। यदि उनसे आप भूल को स्वीकारते हुए क्षमा माँगें तो वह आपको कृतार्थ करेंगे। किन्तु दाम्पति को गुरू जी के समक्ष जाने से आत्मग्लानि अनुभव होने लगी। अतः वह विचारने लगे कि कोई ऐसी युक्ति हो जिससे सहज ही गुरू जी का सामना हो जाए और वे क्षमा के लिए प्रार्थना करें तभी उनको मालूम हुआ कि गुरू जी श्री पाउँटा साहिब जी से श्री आनंदपुर साहिब जी प्रस्थान कर रहें हैं। अतः वह रायपुर क्षेत्र से होकर गुजरेंगे। यह ज्ञात होते ही दम्पति ने प्रतीक्षा प्रारम्भ कर दी। जिस रास्ते से सैन्यबल तथा परिवार जा रहा था। मुक्ष्य मार्ग पर सोहना और मोहिना घण्टों प्रतीक्षा करते रहे किन्तु गुरू जी मार्ग बदलकर दुसरे क्षेत्र से गुजर गये क्योंकि वह सोहना-मोहिना से रूष्ट थे ओर वह नहीं चाहते थे कि जिसको उनके सिक्ख ने शाप दिया हो, उन पर कृपा दृष्टि की जाए। जब इस दम्पति को यह ज्ञात हुआ कि गुरू जी उनको दर्शन नहीं देना चाहते तो वे काँप उठे और क्षमा याचना की युक्ति ढूँढने लगे। अन्ततः उन्होंने निर्णय लिया कि उन्हें श्री आनंदपुर साहिब जी चलना चाहिए वहीं विधि बन जाएगी और गुरू जी से अवश्य की क्षमा प्राप्त हो जायेगी। यह दृढ़ निश्चय करके यह दम्पति जोड़ा गुरू जी नगरी श्री आनंदपुर साहिब जी जा पहुँचा। वे अपनी व्यथा प्रमुख सेवकों को बताने लगे और निवेदन करने लगे कि हमें क्षमा दिलवाएँ। जब सिक्ख-सेवकों को यह ज्ञात हुआ कि गुरू जी इस दम्पति से रूष्ट हैं तो किसी को साहस नहीं हुआ कि वह उनकी गुरू जी के सम्मुख सिफारिश करें। सभी ने उन्हें सुझाव दिया कि आप गुरू घर की निष्काम सेवा में अपने आप को समर्पित कर दें तो कभी न कभी गुरू जी दयाल होंगे और स्वयँ आपको क्षमा कर देंगे। यह सुझाव उचित था। अतः वे सेवा में व्यस्त रहने लगे। सोहना-मोहिना बागवानी का कार्य बहुत कुशलता से कर लेते थे इन्होंने अपने घर पर एक सुन्दर वाटिका बना रखी थी जिसमें भान्ति-भान्ति के फूल उगाए हुए थे और उन्हें ठाकुर को अर्पित करते रहते थे। अतः उन्होंने मेल-जोल बढ़ाकर माता सुन्दरी जी से उनकी फुलवाड़ी की देखरेख की जिम्मेदारी ले ली। इन्हें आशा थी कि कभी न कभी गुरू जी अपनी वाटिका में अवश्य ही आएँगे। सोहना-मोहिना वनस्पति विशेषज्ञ होने के नाते नये-नये फूल उगाने लगे और नये ढँग से बागवानी करने लगे। उनकी लगन से माता सुन्दरी जी अति प्रसन्न हुईं। इस दम्पति ने एक विशेष प्रकार के फूल उगाये जिनकी छटा अनुपम थी वे चाहते थे कि कभी गुरू जी वाटिका में आयें और वह उनको एक विशेष गुलदस्ता भेंट करें और उनसे प्रायश्चित की प्रार्थना की जाए। किन्तु गुरू जी वहाँ कभी भी नहीं गये। एक दिन श्री आनंदपुर साहिब जी में एक वैरागी साधु गुरू जी की स्तुति सुनकर उनके दर्शनों के लिए बहुत दूर से आया। जब वह वहाँ पहुँचा तो विचारने लगा कि गुरू जी को क्या वस्तु भेंट की जाये जिससे वह उनकी अनुकम्पा का पात्र बन सके। इस तलाश में उसकी दृष्टि गुरू जी की वाटिका पर पड़ी जहाँ यह दम्पति नित्य वाटिका की देख-रेख किया करते थे। साधु उनके पास पहुँचा और अनुरोध करने लगा कि आपने जो यह विशेष प्रकार के फूल उगाये हैं। मुझे देने की कृपा करें मैं आपको उचित दाम दूँगा। किन्तु इस साधु का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया और उसे बताया गया कि यह वाटिका उनकी नहीं है। वे तो केवल सेवादार हैं और जो फूल माँग रहा है वह सुरक्षित रखे गये हैं क्योंकि यह किसी विशिष्ट व्यक्ति को समर्पित किये जायेंगे। वैरागी साधु जिसे जनसाधारण रोडा-जलाली के नाम से जानता था। निराश होकर वापिस लौट आया। किन्तु वह उन फूलों को प्राप्त करने की लालसा को त्याग नहीं सका। वह आधी रात को उठा और उस वाटिका में पहुँचकर चुपके से वही फूल तोड़ लाया और प्रातःकाल सभा में गुरू जी को समर्पित कर दिये। इन विशेष प्रकार के फूलों को देखकर गुरू जी प्रसन्न नहीं हुए।

उन्होंने साधु से विपरीत प्रश्न किया– आप तो वैरागी संत है आपका दिल भी कोमल होगा फिर आपने ये कोमल फूल किस प्रकार तोड़ने का प्रयास किया ? यह प्रश्न सुनते ही साधु काँप उठा उसे एहसास हुआ कि गुरू जी ने उसकी चोरी पकड़ ली है। परन्तु वह सर्तक होकर अपनी गल्ती पर परदा डालने लगा। और कहने लगा– गुरू जी, फूल तो उत्पन्न ही इसलिए किये जाते हैं कि उनको डाली से तोड़कर दूसरों का श्रँगार बनाया जाए। इस पर गुरूदेव जी ने कहा– किन्तु यह अधिकार तुम्हारा तो नहीं था। जिनका अधिकार क्षेत्र था क्या तुमने उनका दिल नहीं तोड़ा है ? यह भूल उससे भी अधिक बड़ी भूल नहीं। अब साधु के पास कोई उत्तर नहीं था। वह सिर झुकाकर अपराधी बनकर खड़ा हो गया। गुरूदेव जी ने कहा– यहाँ पर तो श्रद्धा-भक्ति से भेंट की गई हर प्रकार की वस्तु स्वीकार्य है, कोई आवश्यक तो था नहीं कि आप फूल ही लाएँ। साधु ने कहा– मेरे पास कँगाली के अतिरिक्त है ही क्या जो आपको भेंट करता। गुरू जी उसकी चतुराई देखकर मुस्कुरा दिये और एक सिक्ख को सँकेत किया कि उस साधु की टोपी उतारो। टोपी उतारी गई जिसमें से स्वर्ण मुद्राएँ गिरने लगे। यह मुदाएँ बहुत चतुराई से टोपी में सिली गई थीं। किन्तु सिक्ख द्वारा टोपी को खनखनाने से एक-एक करके बाहर गिरने लगीं। तभी समस्त सभा में हास्य का वातावरण बन गया। गुरू जी ने कथनी-करनी में अन्तर स्पष्ट कर दिया। जिससे साधु बहुत शर्मिन्दा हुआ और क्षमा याचना करने लगा। गुरू जी ने कहा कि अब तो आपको उन भक्तों से क्षमा माँगनी होगी जिन्होंने इन फूलों को बहुत स्नेह से सींचा और पाला है। आइये उनके पास चलें। गुरू जी साधु के साथ वाटिका में पहुँचें। वहाँ पर सोहना-मोहिना उन फूलों के चोरी हो जाने पर बेसुध पड़े थे। वाटिका में पहुँचकर गुरू जी ने उनके मुख में जल डाला और बहुत ही स्नेह से कहा– आँखें खोलो मैं आ गया हूं और वह फूल मुझे प्राप्त हो गये हैं जिन्हें तुमने कड़े परिश्रम से उम्पन्न किया था हमने आप दोनों को उस भूल के लिए क्षमा कर दिया है। इस प्रकार उनकी मूर्छा टूटी और वे दोनों सुचेत अवस्था में आए। गुरू जी ने उन्हें अति स्नेह किया और उनकी मँशा पूर्ण की।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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