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46. मैं गुरु का सच्चा सिक्ख हूँ

इतिहासकार खाफी खान लिखता है: मैंने इन सिक्खों के निश्चय की ऐसी-ऐसी बातें सुनी हैं, जिन पर बुद्धि यकीन नहीं करती। पर जो कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा है वह लिखता हूँ इन कैदियों में एक लड़का था जिसकी दाढी मूँछ अभी निकल रही थी। उसकी माता ने अवसर देखकर अपने किसी समर्थक की सहायता से बादशाह और उसके मन्त्री सैयद अब्दुल से रोते हुए विनती की कि मेरा बेटा इन कैदियों में है। एक बार सिक्ख लूटमार को आए और इसे पकड़कर ले गए थे। उस समय से ही यह इनके साथ है और उसका निर्दोष ही कत्ल किया जा रहा है, वह सिक्ख नहीं है। बादशाह को तरस आ गया और उसके बेटे की रिहाई के लिए उसने एक आदमी भेजा। वह स्त्री खलासी का आदेश लेकर ठीक उस समय पहुँची जब जल्लाद खून से भरी तलवार लेकर उसका कत्ल करने ही वाला था। उसके बेटे ने जोर से कहा कि उसकी माता झूठ बोल रही है। मैं तन-मन से गुरु पर बलिहार जाता हूँ, मैं सिक्ख हुं, मुझे जल्दी मेरे साथियों के पास पहुँचाओ। तवारीख मुहम्मद शाही के लेखक ने इस कहानी को दूसरा रूप दिया है: उसके लेख से ज्ञात होता है कि जब जकरिया खाँ सिक्खों को लेकर दिल्ली के पास पहुँचा तो पता चला कि उस सामने वाले गाँव में एक लड़का सिक्ख बन गया है। उस समय उसे पकड़ लाने का आदेश दिया और कुछ आदमी उस गाँव की ओर भेजे गए। परमात्मा का चमत्कार वह अभी शादी करवा कर आया ही था कि ये यमदूत पहुँच गए। डोली अभी घर भी नहीं पहुँची थी कि वह बेचारा पकड़ लिया गया और घर वालों की खुशी शोक में बदल गई। बेचारे के पिता का देहान्त हो चुका था, जो इस समय उसकी सहायता करता और बारातियों या गाँव वालों में से किसी व्यक्ति में साहस न था कि इस निर्दोष को छुड़वाने का प्रयास करें। विधवा माँ अपनी नई बहू को लेकर दिल्ली गई और बादशाह से न्याय की गुहार की। अत्याचार और अन्याय का समय, सत्य बोलकर छुटकारा नहीं मिलता था। यदि वह यह कह दे कि मेरे बेटे को जबरदस्ती पकड़ा है तो बेटे के साथ उसका अपना भी अंत है। इसलिए उसने यह झुठी कहानी कही कि एक बार सिक्खों ने उसका गाँव लूटा तो उसका नवविवाहित बेटा भी लूट के साथ ले गए। उसकी पत्नी के हाथ-पैर की मेंहदी भी अभी उसी तरह है और गौना अभी तक किसी ने नहीं खोला। बुढ़िया के विलाप ने पत्थर दिल अधिकारियों को मोम कर दिया और अंत में उसने बादशाह से हुक्म ले ही लिया कि इसके पुत्र को छोड़ दिया जाए।

यह आदेश लेकर जब वह दरोगा के पास पहुँची तो क्या देखती है कि कोतवाली के सामने सिक्खों की पँक्ति बैठी है। एक-एक को मुस्लमान बनने के लिए कहा जाता है। जब वह नही मानता तो कई प्रकार की यातनाएँ देकर कत्ल किया जाता है। उस समय उसके बेटे की बारी थी और जल्लाद रक्त भरी तलवार लेकर काम आरम्भ करने को तैयार ही था कि वृद्धा ने यह आदेश-पत्र कोतवाल को दिया। वह लड़के को बाहर ले आया और कहा कि जा तुझे छोड़ा जाता है। परन्तु उस लड़के ने मुक्त होने से इनकार कर दिया और उँचे स्वर में चिल्लाने लगा कि मेरी माँ झूठ बोलती है। मैं दिलोजान से अपने गुरु का सच्चा सिक्ख हूँ। मुझे शीघ्र अपने गुरु-भाईयों के पास पहुँचाओ। तारीख-ए-मुहम्मदशाही के लेखक का कथन है: उसकी माँ की दर्दभरी चीखें और अश्रुपुर्ण लिलकाड़ियाँ तथा सरकारी अधिकारियों का समझाना-बुझाना उसे अपने धर्म के प्रति आस्था से डिगा न सका। वहाँ खडे सभी दर्शकगण चकित रह गए। जब उस आस्थावान युवक ने कत्लगाह की ओर मुँह मोड़ा और शहीदी प्राप्ति के लिए उसने अपनी गर्दन जल्लाद के समक्ष झुका दी। एक क्षण में जल्लाद की तलवार ऊपर उठी और उस युवक का सिर कलम कर दिया गया और वह सिक्ख अपने गुरु की गोदी में जा विराजमान हुआ। एक प्रसँग के बारे में तत्कालीन इतिहासकार लिखते है: कि एक काल कोठरी में चार सिक्ख कैदियों को एक साथ रखा हुआ था। उनको भोजन के लिए दो रोटियाँ रोशनदान से फैक दी गई। शत्रु का मत था कि कैदी भूखे है। इन रोटियों की प्राप्ति के लिए वे आपस में लड़ मरेगें परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। झरोखों से देख रहे पहरेदारों ने देखा। उन रोटियों को लेकर चारों कैदी आपस में विचार कर रहे थे कि इन रोटियों को बुर्जुग कैदी खा ले। हमें तो अब कोई कमजोरी नहीं, हम कुछ दिन और भूखे रह सकते है। परन्तु बुर्जुग कैदी कह रह थे हमने तो मरना ही है। यदि यह रोटियाँ तुम खा लो तो हो सकता है शायद तुम्हें और पँथ की सेवा करने का मौका मिल जाए। इस प्रकार वे रोटियाँ किसी ने भी नही खाई। अंत में यह निर्णय हुआ कि इनको बराबर बाँटकर खाया जाए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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