45. कैदी सिक्खों के साथ दुर्व्यवहार
7 दिसम्बर सन् 1715 ई शाही सेना ने गढ़ी गुरदास नँगल पर कब्जा कर लिया। बहुत बड़ी
सँख्या में बेसुध या अर्धमरे सिक्खों को मार दिया गया। जो बचे उनकी सँख्या लगभग 300
के करीब थी। अब्दुलसमद खान सिक्ख कैदियों को लाहौर ले गया। शाही सेना का ऐसा विचार
था कि दल खालसा का नायक जत्थेदार बंदा सिंघ करामाती शक्तियों का स्वामी है। अतः वे
बंदा सिंघ जी से बहुत भयभीत रहते थे। इसलिए उनको भय था कि बंदा सिंघ जी कैद में से
कहीं अदृश्य होकर लुप्त न हो जाएँ। अतः उनके पैरों में बेडियाँ, टाँगों में छल्ले,
कमर के आसपास सँगल (जँजीरें) तथा गले में कुँडल डाले हुए थे। और इन वस्तुओं को लकडी
के खम्बों में साथ बाँधा हुआ था। इस प्रकार बंदा सिंघ जी को अच्छी तरह जकड़कर लोहे
के पिँजरे में डाला हुआ था। इस पिँजरे की निगरानी दो मुग़ल सिपाही हाथ में नंगी
तलवार लिए कर रहे थे। बंदा सिंघ के सहायक अधिकारियों को बेड़ियाँ डाली हुई थीं और
उन्हें लँगड़े, निर्जीव तथा मरियल गधें, टटूओं या ऊँठों पर चढ़ाया हुआ था। उनके सिरों
पर टोपियाँ डाली हुई थीं। इनके आगे ढोल तथा बाजा बजता आ रहा था और पीछे मुग़ल
सिपाहियों ने भालों पर सिक्खों के सिर टाँगे हुए थे। कैदियों के पीछे विजय के रूप
में बादशाही अमीर फौजदार और कई हिन्दू राजा अपनी सेना सहित चले जा रहे थे। इस
प्रकार इस जलूस को लाहौर नगर में फिराया गया ताकि लोगों को भयभीत किया जा सके और
मुग़लों का दबदबा बिठाया जा सके। लाहौर से सिक्खों को दिल्ली ले जाने का कार्य ज़करिया
खान को सौपा गया। परन्तु उसे गिरफ्तार किए गए सिक्खों की सँख्या बहुत कम प्रतीत हुई।
उसने सारे पँजाब क्षेत्र में सिक्खों की खोज शुरू कर दी। उनके आदेश पर फौजदार और
चौधरी गाँव-गाँव में घूमे। इस प्रकार उन्होंने अनेकों निरापराध लोगों को पकड़कर
जकरिया खान के पास भेज दिया जिससे कैदी सिक्खों की सँख्या में बढ़ोतरी की जा सके।
लगभग 400 बेगुनाह सिक्ख इन कैदियों के साथ और सम्मिलित कर दिए गए। इन लोगों का
अपराध केवल सिक्ख धर्म धारण करना था अथवा गैर मुस्लिम होना था। लाहौर से दिल्ली
रवाना करते समय इन सभी सिक्खों की बहुत दुर्गति की गई, सभ्य समाज में ऐसी करतूत
जाहिल अथवा अर्घजँगली विजेता ही कर सकते हैं। बन्दा सिंघ जी की तरह इस बार सभी
कैदियों को लोहे की जँजीरों से जकड़ा हुआ था और दो-दो या तीन-तीन करके टाँगों पर लादा
गया था। सरहिन्द पहुँचने पर उनको वहाँ के बाज़ारों में घुमाया गया, जहाँ पर लोग उनका
मजाक उड़ाते और गालियाँ देते थे। इन सिक्खों ने यह सब कुछ शब्द (गुरुबाणी) पढ़ते हुए
धैर्य से सह लिया।
27 फरवरी 1716 को ये सिक्ख कैदी दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे।
इस पर फरुखसीअर बादशाह ने मुहम्मद अमीन खान को आदेश दिया कि वह सिक्ख कैदियों को एक
विशेष जलूस की शक्ल में दिल्ली के बाजारों में घुमाता हुआ बादशाही महल तक लाए। जलूस
में सबसे आगे मारे गए सिक्खों के शव थे। जिन्हें घासफूस से भरा हुआ था और इन्हें
भालों पर टाँगा हुआ था। इस प्रकार उनके बाल हवा में उड़ रहे थे।
उसके पश्चात् एक हाथी झूमता हुआ आ रहा था जिस पर दल खालसा के सेना नायक बन्दा सिंघ
बहादुर जी को लोहे के पिँजरे में कैद किया हुआ था। उनका मजाक उड़ाने के लिए, उनके
सिर पर तिल्ले की कढाई वाली लाल पगड़ी डाली हुई थी और तिल्ले से कढाई की गई अनारों
के फूलों वाली गूढ़े लाल रँग की पोशाक डाली हुई थी पिँजरे की निगरानी एक दूसरा
अधिकारी मुहम्मद अमीन खान, नंगी तलवार हाथ में लेकर कर रहा था। उसके पश्चात् 740
सिक्ख कैदी दो-दो करके ऊँठों पर बाँधे हुए लाए जा रहे थे। उनका एक-एक हाथ जकड़ा हुआ
था। सिरों पर कागज़ या भेड़ की खाल की नोकदार टोपियाँ रखी हुई थीं, जिनको शीशे के मनकों
से सजाया हुआ था। उनके मुँहों पर कालिख लगाई हुई थी। कुछ सिक्ख अधिकारियों को भेड़ों
की खाल डाली हुई थी, जिसके बाल बाहर की ओर थे ताकि ये अधिकारी सिक्ख रीछों की तरह
दिखाई दें। सबके अन्त में तीन बादशाही अमीर घोड़ों पर आ रहे थे। इनके नाम थे मुहम्मद
खान, कमरुदीन खान और ज़करिया खान। पुस्तक "इबारत नामे" के लेखक, मिजी मुहम्मद ने यह
जलूस अपनी आंखों से देखा था। वह नमक मण्डी से बादशाही किले तक जलूस के साथ आ गया
था। वह लिखता है कि: मुसलमान सिक्खों की इस दुर्दशा को देखकर खिल्लियाँ उड़ा रहे थे
परन्तु भाग्यहीन सिक्ख जो इस अन्तिम दशा को प्राप्त हुए थे, वे बड़े ही प्रसन्न चित
दृष्टगोचर हो रहे थे और अपनी नियति पर सन्तुष्ट थे। उनके चेहरों पर कोई उदासी अथवा
अधीनता का चिन्ह अथवा प्रभाव नज़र नहीं आ रहा था। बल्कि ऊँटों पर चढ़े उनमें अधिकाँश
गायन में लीन थे शायद वे अपने मुर्शद (गुरू) का कलाम पढ़ रहे थे।
बाजारों या गलियों में से यदि कोई उन्हें कहता कि अब तुम लोगों
की हत्या कर दी जाएगी तो उत्तर देते हाँ वह तो होनी ही है, हम मृत्यु से कब डरते
हैं यदि मौत से डरते होते तो शाही फौजों से आज़ादी की लड़ाई क्यों लड़ते ? हमें तो घिर
जाने के कारण, भूख और खाद्यान के अभाव की व्याकुलता ने तुम्हारे हाथों डाल दिया नहीं
तो हमारी वीरता के कारनामे तुमने सुने ही होंगे। "तवसिरतु-नाजिरीन" का लेखक सैयद
मुहम्मद भी इस अवसर पर प्रत्यक्षदर्शी के रूप में वहीं विद्यमान था। वह कहता है कि:
उस समय मैंने उनमें से एक को लक्ष्य करके कहा– ‘यह घमण्ड क्या और नखरा क्या ? उत्तर
में उसने अपने माथे पर हाथ रखकर अपने भाग्य की ओर इशारा किया। उस समय मुझे उसका
अर्न्तभावों को व्यक्त करने का ढँग बहुत अच्छा लगा। वे सारे अपमान और दुर्व्यवहार
जो शत्रुओं ने उनके साथ किए पर श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के इन वीर सपूतों
को उनकी स्वाभाविक उच्च मानसिक अवस्था से गिरा न सके। मुहम्मइ हादी कामवर खान का
लिखना है: ‘ये सिक्ख कैदी लोग बिना किसी आत्मग्लानि अथवा लज्जा के शान्तचित और
प्रसन्नतापूर्वक जा रहे थे। वे शहीदों की मौत मरने के इच्छुक जान पड़ते थे। जैसे ही
यह जलूस शाही किले के निकट पहुँचा तभी बादशाह फर्रूखसियार ने आदेश दिया दल खालसा के
नायक जत्थेदार बंदा सिंघ और उसके अधिकारियों को अलग करके शेष 694 सिक्ख कैदियों को
सरवहार खान कोतवाल को सौंप दिया जाए। ताकि वह इनकी हत्या का प्रबन्ध कर सकें। बंदा
सिंघ की पत्नी, उसके चार वर्षीय पुत्र अजय सिंघ तथा उसकी आया को शाही जनाना खाने का
प्रबन्धक दरबार खान नाज़र को सौंप दिया गया। बंदा सिंघ और उसके साथियों को इब्राहीम
खान मीर-ए-आज़म की देखरेख में त्रिपोलिया कारावास में विशेष कालकोठियों में रखा गया।
उन्हीं दिनों दल खालसा के नायक बंदा सिंघ जी की पत्नी ने स्वाभिमान को ध्यान में
रखते हुए कुँए में कूदकर आत्महत्या कर ली।
नायक बंदा सिंह तथा उसके सिपाहियों (सिक्खों) को हत्या का
दण्ड
5 मार्च सन् 1716 ई0 को दिल्ली के त्रिपोलिया दरवाजे की ओर के
चबूतरे पर जो कोतवाली के सामने स्थित है, 100 सिक्खों की प्रतिदिन हत्या की जाने लगी।
यह हत्याएँ कोतवाल सरबराह खान की देखरेख में प्रारम्भ हुई। इस प्रकार 7 दिन तक यह
कहर भरा कत्लेआम जारी रहा। जल्लाद प्रत्येक सिक्ख सिपाही को कत्ल करने से पहले, काजी
का फतबा सुनने को कहता था। काजी हर सिक्ख सिपाही से पूछता यदि तुम इस्लाम कबूल कर
लो तो तुम्हारी जान बख्श दी जाएगी। परन्तु कोई भी सिपाही अपनी जान बख्शी की बात
सुनना भी नहीं चाहता था। उसे तो केवल शहीद होने की चाहत ही रहती थी। इस प्रकार सभी
सिपाही काजी की बात ठुकराकर जल्लाद के पास आगे बढ जाते और उसे कहते मैं मरने के लिए
तैयार हूँ। इस प्रकार उन्हें पाँच-पाँच के समूहों में गले में रसे डालकर और उनको वट
चढ़ाकर फाँसी देकर मार दिया जाता। तद्पश्चात् उनके शवों को नगर के बाहर सड़कों के
किनारे वृक्षों पर उल्टा टाँग दिया जाता ताकि लोगों को भयभीत किया जा सके। बागियों
को इस प्रकार मृत्युदण्ड दिया जाता था। शवों में जब दुर्गध पड़ जाती तो उनके माँस को
पक्षी नौच-नौचकर खा जाते। जब कभी रसों को वट चढ़ाने वाले जल्लादो की कमी महसूस की
जाती तो बाकी सिक्ख सिपाहियों का सिर कलम कर दिया जाता। इस प्रकार वह त्रिपोलिया
दरवाजे का चबूतरे वाला स्थल रक्तरँजित रहने लगा। इन हत्याओं के दृश्यों को बहुत से
लोग देखने के लिए आते। इनमें उस समय के ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राजदूतु, सर जौहर
सरमैन तथा एडवर्ड स्टीफैनसन ने सिक्ख कैदियों का कत्लेआम अपनी आँखों से देखा। इन
महानुभवों ने जो विचित्र प्रभाव अनुभव किया, उस अद्भुत घटनाक्रम को लिखित रूप में
सँकलित करके अपने हैड कवार्टर कलकत्ता भेजा। वे अपने पत्र न0 12 में दिनांक 10
मार्च सन् 1716 ई0 को निम्नलिखित इबारत लिखते है: वे सिक्ख कैदी जिन पर कि बगावत (देशद्रोह)
का आरोप था उन्होंने मृत्यु स्वीकार करते समय जिस धैर्य और साहस का परिचय दिया वह
अद्भुत और विचित्र घटना है। क्योंकि ऐसा होता नहीं, साधारणतः अपराधी डर के मारे
चीखता चिल्लाता है, परन्तु वहाँ तो तथाकथित अपराधी मृत्यु के लिए स्वयँ को समर्पित
कर रहे थे और शाँतचित अपने भाग्य को स्वीकार करते थे। सभी को जान बख्शी का लालच दिया
गया बशर्ते वह इस्लाम कबूल कर ले परन्तु अंत तक यह नहीं मालुम हो सका कि किसी सिक्ख
कैदी ने इस्लाम स्वीकारा हो।
इतिहासकार दुर्विन लिखता है: क्या हिन्दुस्तानी तथा यूरोपीयन सारे ही दर्शक उस
हैरान कर देने वाले धैर्य तथा दृढ़ता की प्रशँसा करने में सहमत थे। जिससे इन लोगों
ने अपनी किस्मत को स्वीकार किया। देखने वालों के लिए, इनका अपने धर्म नेता के लिए
प्रेम तथा भक्ति बहुत आश्चर्यजनक थी। उनको मौत का कोई भय नहीं था और वह जल्लाद को
मुक्तिदाता कहकर पुकारते थे।