44. जत्थेदार बंदा सिंह जी का
आत्मसमर्पण
सरदार विनोद सिंघ जी समय रहते खाद्यान के अभाव को देखते हुए दुनीचन्द की अहातानुमा
गढ़ी खाली कर गए। पीछे केवल 250-300 के लगभग योद्धा रह गए। जिन्होंने भूखे मरना
स्वीकार कर लिया, किन्तु असमान्य परिस्थितियों के कारण सभी जवान कुपच रोग से पीड़ित
रहने लगे। कई तो बिमारी की दशा में शरीर त्यागकर परलोक सिधार गए। भोजन के अभाव में
लगभग सभी जवान सूख कर काँटा बन गए और कमजोरी की हालत में निडाल हो गए। अहाते के
अन्दर सिक्ख अर्धमृत अवस्था में पडे थे। रोग व दुर्बलता के कारण शिथिल, युद्ध करने
में असमर्थ थे। परन्तु शाही सेना पर सिक्खों का ऐसा आतँक बैठा हुआ था कि भय के कारण
कोई अहाते के भीतर जाने का साहस न करता था। मुग़ल सेना अध्यक्ष अब्दुलसमद खान ने
सिक्खों को एक पत्र द्वारा कहा कि यदि तुम द्वार खोलकर आत्मसमर्पण कर दोगे तो मैं
तुम्हें वचन देता हूँ बादशाह से तुम्हारे लिए क्षमा याचना करूँगा। कोई भी सिक्ख इस
झाँसे में आने वाला था ही नहीं। वे तो पहले से ही आत्मबलिदान देने के लिए तैयार बैठे
थे। उन्होनें लड़ना बँद कर दिया था। परन्तु आत्मसमर्पण का समय आने की प्रतीक्षा में
थे। अतः वह समय भी आ गया। सिक्खों ने दरवाजा खोल दिया। बस फिर क्या था शत्रु जो उनके
नाम से काँपते थे। अब उनकी बेबसी पर बहादुरी के जौहर दिखाने लगे। सफलता के गर्व में
अब्दुलसमद खान अच्छे व्यवहार के सभी वचन भूल गया और निढाल हो रहे सिक्खों के
हाथ-पाँव जकड़कर उन्हें यातनाएँ दी गईं। कुछ एक बेसुध सिक्खों का उसी स्थान पर वध कर
दिया गया और उनके पेट इस लोभ मे चीर दिए गए कि कहीं वे स्वर्ण मुद्राएँ निगल न गए
हों। इस प्रकार समस्त मैदान रक्त रँजित कर दिया गया। इसके पश्चात् उनके सिर काटकर
घासफूस से भर दिए गए और भालों पर टाँग लिए। गुरदास नँगल का गाँव तथा भाई दुनीचन्द
का अहाता सब तहस-नहस कर दिए गए। अब वहाँ केवल एक खण्डहर शेष है। यह घटना दिसम्बर के
प्रारम्भ में सन् 1715 ई0 को हुई। मुहम्मद हादी कामवर खान लिखता है: ‘यह किसी की
बुद्धिमत्ता या शूरवीरता का परिणाम न था अपितु परमात्मा की कृपा थी कि यह इस प्रकार
हो गया, अन्यथा हर कोई जानता है कि स्वर्गीय बादशाह बहादुरशाह ने अपने चारों शहजादों
तथा असँख्य बड़े-बड़े अफसरों सहित इस विद्रोह को मिटाने के कितने प्रयत्न किए थे।
परन्तु वह सब विफल हुए थे।