42. दल खालसा का पुनः प्रकट होना
खालसा दल के सेना नायक बंदा सिंघ बहादुर जी ने लगभग एक अथवा डेढ़ वर्ष तक गुप्तवास
रखकर अनिश्चता का जीवन जीया। इसमें उनके स्वयँ के परिवारिक कारण भी थे। परन्तु दल
खालसा का मुख्य उद्देश्य केन्द्रीय मुग़ल सरकार का ध्यान अपनी ओर से हटाना था और नये
सिरे से दल खालसा का पुर्नगठन करना अथवा अपने जवानों के परिवारों को सुरक्षित
क्षेत्रों में बसाना तथा विपत्तिकाल में अपने लिए नये सुरक्षित क्षेत्र ढूँढना था।
इस कार्य में सफलता मिलते ही सन् 1715 ई0 की बसंत ऋतु आते ही दल खालसे ने अपने
निर्धारित लक्ष्य को सम्मुख रखकर जम्मू क्षेत्र के मैदानों में गए और सर्वप्रथम
कलानौर को अपने नियन्त्रण में लेने का लक्ष्य रखा। सिक्खों के प्रकट होने का समाचार
सुनकर कलानौर के फौजदार सुहराव खान और उसके कानूनगाँ संतोष राय ने अड़ोस-पडोस के
परगनों से अतिरिक्त सेना मँगवा ली और बहुत सी जेहादियों की भीड़ भी इक्ट्ठी कर ली।
परन्तु सिक्खों के एक धावे में सभी भाग खड़े हुए और कई तो पीछे मुड़कर देखने वाले
भी नहीं थे। स्वयँ सुहराब खान, सँतोष राय व अनोखे राय अपने प्राण बचाकर रणभूमि से
भाग निकले। इस प्रकार कलानौर फिर से सिक्खों के हाथ आ गया। बंदा सिंघ जी ने इस बार
जनसाधारण के हितों का बहुत ध्यान रखा और अच्छी प्रशासन व्यवस्था करके बटाले नगर की
तरफ प्रस्थान किया। बटाला नगर का फौजदार मुहम्मद दाइम फौजें लेकर टकराव के लिए नगर
के बाहर आ गया और मोर्चा लगाकर बैठ गया। लगभग 6 घण्टे तक खूब घमासान युद्ध हुआ। दोनों
पक्षों की भारी क्षति हुई परन्तु मुग़ल सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई। अतः बटाले पर
दल खालसे का पुनः अधिकार स्थापित हो गया। जब इन विजयों का समाचार बादशाह
फर्रूखसीयार को मिला तो उसके क्रोध की सीमा न रही। वह बौखला उठा उसने लाहौर के
सुबेदार (राज्यपाल) अब्दुलसमद खान को कड़े शब्दों में पत्र लिखा और कहा कि वह अपनी
समस्त शक्ति सिक्खों के दमन व उनके नेता को पकड़ने में लगा दे। इस बीच सिक्खों ने
रायपुर इत्यादि क्षेत्र जीत लिए।
दल खालसा को अभास तो था कि हमारी नई विजयों के समाचारों ने
बादशाह फर्रूखसीयर की नींद हराम कर दी होगी। अतः वे केन्द्रीय मुग़ल सेना के
हस्तक्षेप से पहले अपने लिए कोई सुरक्षित स्थान अथवा किला बना लेना चाहते थे। अतः
जत्थेदार बंदा सिंघ जी ने कलानौर व बटाला के मध्य में एक किले के निर्माण का कार्य
प्रारम्भ किया। किले के निर्माण का कार्य प्रारम्भिक अवस्था में ही था कि दिल्ली की
ओर से नायब आरिफ बेगखान की अध्यक्षता में बहुत बड़ा मुग़लिया शाही लश्कर दल खालसा के
विरूद्ध कारवाही करने के लिए पहुँच गया। स्थानीय राज्यपाल की सेना तथा केन्द्र की
सेना दल खालसा की सँख्या से दस गुना थी। किन्तु दल खालसे के नायक बंदा सिंह का साहस
देखते ही बनता था। वह बिल्कुल विचलित नहीं हुए। वे अपने मोर्चों में अभय बनकर डटे
रहे। प्रथम युद्ध में वे इतनी शूरवीरता से लड़े कि बादशाही जरनैंल उनकी वीरता देखकर
आश्चर्यचकित रह गए। एक बार तो ऐसा आभास होने लगा था कि शाही लश्कर की पराजय होने
वाली है किन्तु वे अपनी सँख्या के बल पर फिर से रणक्षेत्र पर काबू पा गए। विवश होकर
दल खालसा को पीछे हटना पड़ा। दल खालसा ने धैर्य से पीछे हटते हुए गुरदासपुर का रूख
किया। शत्रु सेना ने उनका पीछा किया परन्तु सिक्ख पीछा करने वालो पर घायल शेर की
भाँती झुँझलाकर आक्रमण कर देते और उनको भारी क्षति पहुँचाते। इस लिए शत्रु सेना अपने
बचाव को ध्यान में रखकर उनसे टक्कर लेने से कटने लगी। अतः दल खालसा धीरे-धीरे पीछे
हटते हुए गुरदासपुर नँगल की गढ़ी में पहुँचने में सफल हो गए। इस गढ़ी का वास्तविक नाम
भाई दुनी चन्द का अहाता था। सँयोग से इसके ईद-गिर्द बहुत ऊँची पक्की दीवार थी और
भीतर ऐसा खुला स्थान था, जहाँ दल खालसा के जवान समा सकते थे। जत्थेदार बंदा सिंघ जी
ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया सभी लोग शीघ्रता से इस आश्रय स्थल को किले में बदलने
के कार्य में जुट जाएँ और प्रत्येक प्रकार की रण सामग्री एकत्र करने में ध्यान दे।
बस फिर क्या था सिक्खों ने शत्रु के निकट आने से पूर्व खाद्यान गोलाबारूद, अस्त्र
शस्त्र किसी भी कीमत पर खरीद लिए और गढ़ी को मजबूत किले में बदलने में जुट गए।
उन्होनें शत्रु को अहाते से दूर रखने के लिए ईद-गिर्द एक खाई बना ली और उसे नजदीक
की नहर के पानी से भर लिया। इसके साथ ही उन्होंने मुख्य नहर काटकर उसका पानी इस
प्रकार फैला दिया कि शत्रु उसके निकट न आ सके चारों ओर कीचड़ और दलदल का प्रदेश बना
दिया।