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41. दल खालसे व उसके नायक का गुप्तवास

केन्द्रीय प्रशासन की दृष्टि सिक्खों पर कड़ी हो गई तो उन दिनों दल खालसा को बहुत बड़ी कुरबानियाँ देने के पश्चात् भी अन्त में पराजय का मुँह देखना पड़ रहा था। अतः दूसरी बार लोहगढ़ और सढौरा किले छिन जाने के बाद खालसा पँचायत को बहुत गम्भीर होकर नई रणनीति तैयार करनी थी। पँजाब के मैदानी क्षेत्रों में सिक्खों को गैरकानून लोग (बागी) घोषित कर दिया गया था, उनका घरघाट लूट लेना कोई अपराध न था बल्कि उनको पकड़वाने में सहायता करने वालों को पुरस्कृत किया जा रहा था। ऐसे वातावरण में जहाँ सिक्ख होना एक अपराध माना जाने लगा हो। वहाँ सिक्खी का पनपना असम्भव सी बात बनती जा रही थी। ऐसे में दल खालसा को नये जवानों की भर्ती अथवा धन इत्यादि की आवश्यकताओं की पूर्ति भी कठिन हो रही थी। अतः दल खालसा ने निर्णय लिया कि कुछ समय के लिए शाँत हो जाएँ और किसी उचित समय की प्रतीक्षा करें अथवा वह क्षेत्र चुने जो सैनिक दृष्टि से कमजोर हो या जहाँ केन्द्रीय सैन्यबल सहज में न पहुँच पाएँ। उन दिनों देश में वर्षा न होने के कारण अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो रही थी तथा दल खालसा के जवानों को अपने परिवारों की सुरक्षा की भी चिन्ता सत्ताए जा रही थी। ऐसे में कोई विकल्प का न होना बहुत बड़ी दुविधा बन गई थी। दल खालसा के समक्ष सर्वप्रथम अपने परिवारों की सुरक्षा का भार था। अतः पँचायत ने निर्णय लिया अधिकाँश जवान छोटी-छोटी टुकड़ियों में अपने घरों को जाएँ और उनको सुरक्षा प्रदान करें अथवा किसी शिवालिक पर्वत की घाटियों में उनको स्थानाँतरित कर दिया जाए। जिससे वे शत्रु की कुदृष्टि से सुरक्षित हो जाएँ। जब विपत्तिकाल समाप्त हो जाए तो पुनः सँगठित होकर अपने लक्ष्य की पूर्ति पर ध्यान केन्द्रित किया जाए। दल खालसा में अधिकाँश जवान मालवा क्षेत्र के थे जिनके परिवारों पर प्रशासन कड़ी दृष्टि रखे हुए था और उन पर अत्याचारों का बाजार गर्म था।

इसलिए रोपड़ जिले के जवान सामुहिक रूप में अपने घरों को लौट आए क्योकि यह क्षेत्र कहिलूर पर्वतमाला के निकट था और दल खालसा इन्हीं पर्वतों में शरण लिए हुए था। रोपड़ जिले का फौजदार बड़ी सँख्या में सिक्खों के आगमन को देखकर भाग खड़ा हुआ और सरहिन्द पहुँच गया। वहाँ से वह कुमक (मदद) लेकर जब वापस लौटा तब तक सिक्ख जवान अपने परिवारों को साथ लेकर वापस लौट चुके थे। परन्तु कहीं-कहीं छोटी-मोटी दल खालसा के जवानों से झड़पें हुईं। जिसमें दोनों पक्षों को बराबर की क्षति उठानी पड़ी। दल खालसा का नायक बंदा सिंह भी पँचायत के निर्णय अनुसार अपने परिवार से मिलने अपने ससुराल चम्बा पहुँच गया। परन्तु उसे अब भी मन की इच्छा थी कि वह पुनः खालसे की प्रगति देखना चाहता था। किन्तु एक बार की गई चूक के कारण अब सब कुछ असम्भव जान पड़ता था। क्योकि शत्रु सावधान हो चुका था और कुछ प्रकृति द्वारा सँयोग भी नही बन रहा था। अतः सब उचित समय आने की प्रतीक्षा में इधर-उधर समय काट रहे थे। बंदा सिंघ का मन हुआ कि वह अपने जन्म स्थान राजौरी इत्यादि क्षेत्र का एक बार दौरा करे परन्तु यह सब कुछ सम्भव न था क्योंकि कदम-कदम पर शत्रु सतर्क बैठा हुआ था। परन्तु बंदा सिंघ बुजदिल तो था नहीं वह अपने अंगरक्षकों के एक दल को लेकर किसी न किसी विधि से राजौरी पहुँच ही गए। वहाँ लम्बे समय की जुदाई के पश्चात् अपने पूर्वजों से मिले। परन्तु सुरक्षा कारणों से वही एक सुरक्षित पहाड़ी क्षेत्र को अपना डेरा बनाया और अपने पूर्वजों के दबाव में अपनी बिरादरी के एक परिवार, वजीराबाद के एक क्षत्रिय शिवराम की सुपुत्री कुमारी साहिब कौर के साथ दूसरा विवाह करवा लिया। जिसके उदर से रंजीत सिंघ नामक पुत्र उत्पन हुआ। इसी बालक से बंदा सिंघ जी का वँश चलता आ रहा है। अनुमान लगाया जाता है कि बंदा सिंघ उचित समय की ताक में लगभग सवा वर्ष यहाँ रहे। यहीं रहकर उन्होंने दल खालसा की अगामी गतिविधि की योजनाएँ बनाईं। उन्हें जैसे ही मालूम हुआ लाहौर का सूबेदार अब्दुलसमद कसूर क्षेत्र में भट्टियों का फसाद मिटाने गया हुआ है। तभी उन्होंने समस्त बिखरे हुए सिक्खों को युद्ध के लिए तैयार किया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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