40. फर्रूखसीयर की सिक्खों के विरूद्ध
नीति
18 फरवरी 1712 ई0 को सम्राट बहादुरशाह का देहान्त हो गया। जिस कारण शहजादे एक-दूसरे
के खून के प्यासे हो गए और उनका आपसी युद्ध प्रारम्भ हो गया। जब यह सूचना दल खालसा
को मिली तो वह इस समय का भरपूर लाभ उठाने के उद्देश्य से अपने सैनिक सँगठन को सुदृढ़
बनाने की चेष्टा में व्यस्त हो गए। नया स्वयँमेव बना सम्राट जहाँदार शाह कोई अधिक
योग्यता नहीं रखता था। उसका अधिकाँश समय सुरा-सुन्दरी में व्यतीत होता और वह
राग-रँग की महफिलें सजाकर ऐशो-आराम का जीवन जीने में, समय और धन नष्ट करता रहता था।
यह डरपोक-बुजदिल प्रवृति का व्यक्ति था। अतः इसकी आज्ञा की अवहेलना कदम-कदम पर होती
थी। इसलिए सत्ता पर इसकी पकड़ ढीली पड़ती जा रही थी। उसकी इस त्रुटि का लाभ उठाते हुए
इसके भतीजे फर्रूखसीयर ने इस पर आक्रमण कर दिया। वह अपने पिता के खून का बदला इससे
लेना चाहता था और वह उन दिनों बँगाल व बिहार प्राँत का सूबेदार (राज्यपाल) नियुक्त
था। बादशाह जहाँदार शाह और फर्रूखसीयर के मध्य हुए युद्ध में 31 दिसम्बर 1712 ई0 को
जहाँदार शाह पराजित हो गया और उसकी हत्या 1 फरवरी 1713 ई0 को कर दी गई। फर्रूखसीयार
के सम्राट बनने पर उसने सिक्खों के प्रति बहुत कड़ी नीति अपनाई। उसने फिर से मुहम्मद
अमीन को भारी लश्कर देकर सढ़ौरा किला फतेह करने भेज दिया। यह सिपाहसलाहर कुछ समय के
लिए सढौरा का घेराव छोड़कर जहाँदार शाह की सहायता के लिए दिल्ली गया हुआ था। इसके
वापस लौट आने पर सढौरा के किले व लोहगढ़ के किले पर लम्बे समय का घेराव करके शाही
सेना बैठ गई। सिक्ख समय-समय पर आकस्मात छापामार युद्ध करते और कुछ रणसाम्रगी अथवा
खाद्यान लूटकर किले में ले जाते। इस प्रकार छैः (6) माह से अधिक व्यतीत हो गए।
जैनुद्दीन अहमद खान की तोपों के गोलों का सिक्खों की गद्दी पर कोई अधिक प्रभाव नहीं
पड़ रहा था। अतः उसने एक ऊँचा चबूतरा बनाकर उस पर तोप लगाई जिसकी मार प्रभावशाली थी।
सिक्खों ने किले के अन्दर से एक सुरँग बनाई और उस तोप के पास उसका अर्धरात्रि को
मुँह खोल दिया।
वर्षा की अन्धेरी रात में उन्होंने रस्सी से बाँधकर दूसरी तरफ
से घोड़े से तोप को खीँचवाया। वह सुरँग तक खीची चली आई। परन्तु सुरँग के पास पहुंचकर
तख्ते से पलटकर पानी में गहरे गड्डे में गिर गई। इस प्रकार यह सिक्खों की योजना
विफल रही। सढौरे के किले का घैराव बहुत देर तक चलता रहता परन्तु इसमें नये सिरें से
प्राण डालने के लिए नये बादशाह फर्रूखसीयर ने मुहिम का नेतृत्व अबदुलसमद खान को दे
दिया और उसको वचन दिया कि यदिं तुम सिक्खों का दमन करने में सफल हो जाते हो तो
लाहौर का सूबेदार (राज्यपाल) तुम्हें ही नियुक्त किया जाएगा। केन्द्र सरकार की तरफ
से सिक्खों का पलड़ा हल्का हो गया क्योंकि समस्त केन्द्रिय सेना का यहीं दबाव बना
रहने लगा। अबदुलसमद खान ने नई नीति के अन्तर्गत एक-एक करके सढौरा और लोहगढ़ को विजय
करने की ठानी। इस पर सिक्खों ने एक रात अकस्मात् किला त्याग दिया और वे लोहगढ़ के
किले में चले गए। जब लोहगढ़ के किले पर भी शत्रु सेना का अधिक दबाव हो गया तो सिक्खों
ने उसे भी इसी विधि अनुसार त्याग दिया और नाहन की पहाड़ियों में अलोप हो गए। शत्रु
सेना ने उनको कई स्थानों पर बिखरे हुए देखा परन्तु शाही सेना में से किसी का सहास
नहीं हुआ कि वे सिक्खों का पीछा करें क्योकि वे जानते थे कि इनको पराजित नहीं समझाना
चाहिए। यह शत्रु को घेरे में लेकर घात लगाकर आक्रमण कर देते है। अतः सिक्खों को जहाँ
जाते हैं जाने दिया। यह घटना नवम्बर माह के मध्य में घटित हुई। इसके पश्चात् मुग़ल
सेना ने इन दोनों किलों को गिराकर सदा के लिए उनका अस्तित्व समाप्त कर दिया। लोहगढ़
खाली हो जाने के बाद अबदुलसमद खान तो अपनी सूबेदारी के चक्कर में लाहौर चला गया।
उसका पुत्र जकरिया खान और फौजदार शम्भु को दिल्ली बादशाह फर्रूखसीयार की सेवा में
भेजा, जो कि बादशाह को सिक्खों की पराजय का विवरण बताए ताकि बादशाह से पुरस्कार
प्राप्त हो सके। बादशाह ने इन्हें एक खिलअत, जड़ाऊ कलगी, झन्डा और घौसा (नगारा)
उपहार स्वरूप दिए।