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38. बादशाह की लाहौर में मृत्यु

किला लोहगढ़ फतेह करने के पश्चात् शाही लश्कर को पुरस्कार, वेतन और छुट्टी इत्यादि वितरण के काम में बहुत लम्बा समय नहीं ठहरना पड़ा। दूरदराज से आई सभी फौजें जब वापस चली गईं तो बादशाह को अपनी सुरक्षा की चिन्ता सताने लगी। उसे डर रहता था कि उस पर सिक्ख गुरील्ला युद्ध का सहारा लेकर छाप न मार दें ? क्योंकि उसे कीरतपुर इत्यादि पर्वतीय क्षेत्र में बहुत बड़ी सँख्या में सिक्खों के इकट्टे होने की सूचनाएँ मिल रही थीं। जल्दी ही उसे शम्सखान व वाजिदखान के सिक्खों द्वारा मारे जाने की भी सूचना मिल गई। अतः वह बहुत धीमी गति से लाहौर प्रस्थान कर गया किन्तु उसे रास्तें में सूचना मिली कि सिक्ख फिर से पठानकोट, बटाला इत्यादि क्षेत्रों पर नियन्त्रण कर बैठे हैं। इस पर उसने सिक्खों के दमन के लिए खान बहादुर मुहम्मद अमीन (रूस्तमे जँग) को विशाल सेना देकर जम्मू क्षेत्र में भेजा। डर के मारे उसने होशियारपुर से लाहौर जाने का अपना रास्ता बदल लिया जिस कारण वह 1 अगस्त 1711 ई0 को लाहौर पहुँचा। इस बार बादशाह ने अपना डेरा शाही किले में नही डाला बल्कि रावी नदी के तट के निकट आलुवाला गाँव में रखा। शाहजादा अज़ीजुद्दीन अजीमुश्शान गाँव के पास ठहरा और डेरे के ईद-र्गिद खजाने की बैल गाड़ियों से परिसीमा बना ली। बादशाह के लाहौर की ओर आने के समाचारों को सुनकर ही लाहौर के कट्टर मुसलमानों का उत्साह बढ़ गया और लाहौर के सिक्खों के लिए बहुत विपत्ति के दिन व्यतीत हो रहे थे। वास्तव में जेहादियों के भीलोवाल में बुरी तरह मार खाकर निराश होकर वापस लौट आने के कारण सिक्खों पर क्रोध था। इन्हीं दिनों सिक्खों के कत्लेआम का शाही फरमान भी यहाँ पहुँच गया। जो लोग रणभूमि में सिक्खों का सामना नहीं कर पाए थे, वे अब मौलाओं द्वारा अपने कट्टर मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने के कारण, सिक्खों के घर व दुकाने लूटने लगे। उन दिनों हिन्दू अथवा सिक्ख में कोई विशेष पहिचान न थी सभी लोग दाढ़ियों रखते थे। अतः सिक्खों की भूल में हिन्दुओं पर भी अत्याचार होने लगे। एक महिला सँन्यासी की हत्या कर दी गई और एक सरकारी अधिकारी शिव सिंघ जो कि मन्दिर में पूजा-अर्चना के लिए परिवार सहित गया था। कट्टर मौलविओं ने यह कह दिया कि नगर में कुफर बढ़ता ही जा रहा है, इस्लाम के लिए यह ख़तरा है। जनता को आपस में लड़वा दिया।

इस मारपीट में हिन्दुओं को बहुत क्षति उठानी पड़ी। यह देखकर बादशाह की सुरक्षा के लिए तैनात बुन्देलखण्ड के हिन्दू फौजी अधिकारी बचन सिंघ कछवाहा और बदन सिंह बुन्देला निर्दोष हिन्दू जनता के पक्ष में आ खडे हुए। इस प्रकार बादशाह के खेमें में फौजी बगावत शुरू हो गई। इस समय स्थानीय प्रशासक असलम खान ने गम्भीर परिस्थितियों को भाँप लिया और विवेक बुद्धि से काम लेते हुए अपराधियों को दण्ड देकर मामला शाँत किया। हिन्दुओं की बगावत का मामला निपटा ही था कि ताजियों के प्रदर्शन के कारण मुसलमानों के दो सम्प्रदायों शिया व सुन्नी में सख्त लड़ाई हो गई। बहादुरशाह स्वयँ शिया था। इसलिए उसने सुन्नी मुसलमानों को उनकी नजायज हरकतों के लिए कठोर दण्ड दिए। इसलिए स्थानीय कट्टर मौलवी बादशाह के विरूद्ध हो गए और नगर में तनाव बढ़ गया। तभी बादशाह को समाचार मिला कि मुहम्मद अमीद खान जो कि दल खालसा के नायक बंदा सिंघ का पीछा करने जम्मू क्षेत्र में गया हुआ था बहुत बडे लश्कर का जानी नुकसान करवाकर खाली हाथ लौट आया है। इन दिनों बादशाह को पहले से ही चिंता के कारण कुछ हज़म नहीं हो रहा था। शायद उसकी तिल्ली में सूजन आ गई थी। ऊपर से इस समाचार ने उसका स्वास्थय और अधिक बिगाड़ दिया। बादशाह इसी चिन्ता में अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा। वह बैचनी में वहमी-भ्रमी हो गया और बेसिर पैर की बाते करने लगा। इसी उत्तेजना में उसने आदेश दिया कि नगर के सभी आवारा कुत्तों को मार दिया जाए, फिर आदेश दिया कि सभी गधों को मार दिया जाए इत्यादि। तीन दिन तक वैद्यो-हकीमों ने अपनी ओर से बहुत प्रयत्न किए, परन्तु बादशाह का स्वास्थ्य ओर बिगड़ गया। इस प्रकार 18 फरवरी 1712 की रात्री में उसका देहान्त हो गया। बादशाह की मृत्यु के पश्चात् बाप-दादा की परम्परानुसार गद्दी के लिए आपाधापी मच गई। भाईयों में गद्दी प्राप्ति के लिए युद्ध हुआ। जिसमें शाहजादा जहाँदर शाह ने अपने भाईयों का वध कर दिया और 19 मार्च को गद्दी पर बैठ गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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