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37. चम्बा क्षेत्र से बंदा सिंघ बहादुर पठानकोट व गुरदासपुर क्षेत्र में

बहादुरशाह, बंदा सिंघ जी के हाथ न आने के कारण बहुत परेशान था कि तभी उसे पर्वतीय क्षेत्रों से सुचनाएँ मिलने लगी कि बंदा सिंह ने दल खालसा का पुनर्गठन करके बिलासपुर के नरेश अजमेरचन्द को पराजित कर दिया है और वह इस समय फिर से शक्तिशाली बन गया है। अतः सम्राट बंदा सिंघ जी का दमन करना चाहता था। परन्तु कोई भी उसका सरदार इस जोखिम भरे कार्य को कर सकने के लिए स्वयँमेव तैयार न हुआ। सभी जानते थे कि पर्वतीय क्षेत्रों व बीहड़-जँगली स्थानों में यह कार्य असम्भव है। इसलिए वे सभी, बंदा सिंह के मैदानों में उतरने की प्रतीक्षा करने लगे। बंदा सिंघ विवाह के झमेलों में निपटकर जल्दी ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मैदानों मे पूरी शक्ति लेकर उत्तर आया। उन दिनों जम्मू क्षेत्र का फौजदार वायजीद खान खोशगी था। जिसे कुतुद्दीन का खिताब मिला हुआ था। इसने तुरन्त डेढ़ हजार घोड़सवार सिपाही देकर अपने बहनोइ शाहदाद खान को सिक्खों का सामना करने के लिए भेजा और उसके बाद स्वयँ भी सुलतानपुर के फौजदार शम्सखान के साथ नौ सौ (900) घुड़सवार लेकर उधर ही चल पडा। ये लोग आधे सफर के पश्चात् शिकार खेलने में व्यस्त हो गए। तभी इन्हें समाचार मिला कि सिक्ख बहुत ही निकट आ गए हैं। शम्सखान उनको रोकने के लिए आगे बड़ा परन्तु सिक्खों ने ‘राहोंन के किले’ वाली युक्ति से उसे अपनी चाल में फँसा लिया। वे पहले पहल मुग़ल सेना को देखकर भाग खडे हुए। वायजीद खान के मना करने पर भी शम्सखान ने सिक्खों का पीछा किया और वह उनके नजदीक जा पहुँचा। जैसे ही सिक्खों ने अनुभव किया कि शत्रु अब हमारे चुँगल में है तो वे तुरन्त लोट पड़े और शत्रु पर टूट पड़े। उस समय शत्रु अपनी मुख्यधारा से भटक कर अकेला पड़ गया और मारा गया। बस फिर क्या था सिक्खों की सँख्या कम होने पर भी वे शत्रु पर भारी हो गए और घमासान का युद्ध हुआ किन्तु मुग़लों के पैर उखड़ चुके थे। देखते ही देखते शवों और घायलों के ढेर लग गए। जब वायजीद खान ने देखा कि युद्ध का पासा उनके विरूद्ध पलट गया है तो वे अपने बचे हुए सैनिकों को लेकर एक बार फिर सिक्खों पर टूट पड़ा परन्तु वह इस धावे में स्वयँ बुरी तरह घायल हो गया। उसकी यह दशा देखकर उसके जवान उसे वापस लेकर भाग खड़े हुए। मैदान सिक्खों के हाथ लगा। इस विजय के होने पर दल खालसा को बहुत सी रण सामग्री हाथ लगी। इसके विपरीत घायल वायजीद खान तीसरे दिन मर गया। इस प्रकार वहरामपुर तथा रायपुर (राजपुर) से भी सिक्खों को बहुत सा धन प्राप्त हुआ। यहाँ से विजयी होकर वे कलानौर व बटाला के परगनों की ओर चल पड़े। यह ऐतिहासिक युद्ध 6 मार्च सन् 1711 को हुआ था।

ये वे दिन थे जब दल खालसे द्वारा स्थापित सिक्ख राज्य समाप्त हो चुका था। वे सभी मैदान छोड़कर पर्वतों की शरण में जा चुके थे। इस समय ये विजय प्राप्त होना सिक्खों का पुर्न उत्थान ही कहलाता था। जब बहरामपुर की विजय के पश्चात् दल खालसा का नायक बंदा सिंघ बहादुर कलानौर पहुँचा तो वहाँ के स्थानीय प्रशासन ने बंदा सिंह से युद्ध में उलझना ठीक नही समझा उसने समझोते का मार्ग चुना। वह नजराना लेकर बंदा सिंघ जी का स्वागत करने पहुँचा। इस प्रकार उसने युद्ध की विभीषिका से नगर को बचा लिया। बंदा सिंघ ने पिछली भूलों को सुधारने के हेतु नई नीतियों के अन्तर्गत सर्वप्रथम अपने सैन्यबल को बढ़ाने के लिए अन्य धर्मावलम्बिलयों को भी अपनी सेना में भर्ती करना प्रारम्भ कर दिया। बंदा सिंह व खालसा दल का मुसलमान समुदाय से कोई मतभेद तो था ही नहीं। वह तो केवल दुष्ट और भ्रष्ट सत्ताधरियों से लोहा ले रहे थे, जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता था, वहाँ किसी प्रकार का रक्तपात होता ही नही था। अतः बंदा सिंघ जी ने मुसलमान प्रजा से बहुत उदारतापूर्ण व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे बंदा सिंघ जी के सैन्यबल में लगभग पाँच हजार इस्लाम धर्मावलम्बी भर्ती हो गए। उनको उनके दैनिक जीवन में नमाज व खुतबा, अजान इत्यादि की खुल्ली छुट्टी मिली हुई थी। वे जैसे चाहें पढें। मई 1711 ई0 को बादशाह को समाचार दिया गया कि बंदा सिंघ जी ने व्यास व रावी नदी के मध्य क्षेत्र पर पुनः नियन्त्रण कर लिया है और शाही सेना से लोहा लेने के लिए बड़े पैमाने पर सिपाही भर्ती कर रहा है। इन दिनों शाही लश्कर लाहौर के लिए चल पड़ा था और बादशाह होशियारपुर के निकट पहुँच गया था। बादशाह सतर्क हुआ उसे पहले से ही शँका थी कि पहाड़ी क्षेत्रों से यात्रा करते समय किसी भी समय सिक्ख गुरील्ला युद्ध उस पर थोप सकते हैं। वह सढोरा क्षेत्र में सिक्खों के छापे अपनी आँखों से देख चुका था। अतः उसने तुरन्त लाहौर जाने का मार्ग बदलने का आदेश दिया और अपनी सुरक्षा कड़ी करवा दी।

बटाला नगर के निकट बंदा सिंह जब अपनी सेना लेकर पहुँचा तो वहाँ की स्थानीय जनता का धैर्य टूट गया। वे अपनी सुरक्षा चाहते थे, जो कि उन्हें स्थानीय प्रशासन द्वारा मिलने की आशा नहीं थी। अधिकाँश धनाढय लोग अपने परिवार और धन लेकर लाहौर भाग गए। यहाँ के फौजादार सैययद मुहम्मद फ़जलुद्दीन कादरी ने नगर के बाहर बंदा सिंघ जी के सैन्यबल से कड़ा मुकाबला किया परन्तु वह जल्दी ही रणक्षेत्र में मारा गया और उनकी पराजय हो गई। नगर के दरवाजे तोड़कर और यहाँ की सैनिक सामग्री पर अधिकार स्थापित कर लिया गया परन्तु यहाँ पर रूकना उसे रणनीति के अन्तर्गत उचित नहीं मालुम हुआ क्योकि बादशाह विशाल लश्कर लेकर लाहौर की ओर बढ़ रहा था। बंदा सिंह कोई ख़तरा मोल लेना नहीं चाहता था। अतः वह अपनी समस्त सेना के साथ रावी नदी पार करके जम्मू क्षेत्र की ओर बढ़ गया। यह घटना मई माह सन् 1711 के अन्तिम दिनों की है। दल खालसा ने अपने लिए सुरक्षित स्थान बनाने के लिए जम्मू क्षेत्र में पहुँचते ही औरँगाबाद और पसरूर नगरों को विजय कर लिया और इनका प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया। उधर बादशाह ने खान बहादुर मुहम्मद अमीन को विशाल सेना देकर सिक्खों को कुचलने के लिए भेजा। बंदा सिंह सतर्क था, उसने अपने दल को दो भागों में विभाजित कर लिया। जून के पहले सप्ताह में उन्होंने पसरूर क्षेत्र में शाही लश्कर पर धावा बोल दिया। भयँकर मुठभेड़ हुई, दोनो पक्षों के बहुत बड़ी सँख्या में सैनिक लड़े। किन्तु सिक्खों की गिनती बहुत कम थी। अतः उन्हें पीछे हटना पड़ा। परन्तु इस छापामार युद्ध में खान बहादुर मुहम्मद अमीन बुरी तरह घायल हो गया। बंदा सिंघ ने समय की नज़ाकत को ध्यान में रखते हुए पर्वतों की ओट ले ली और दूर निकल गए। जब दल खालसा अपने जत्थेदार बंदा सिंघ जी के नेतृत्व में जम्मू क्षेत्र पूर्व-दक्षिण की पर्वत माला में पहुँचा तो यहाँ के जमवाली नरेश ध्रुवदेव ने तुरन्त इस बात की सूचना लाहौर के सूबेदार को भेजी तथा राजौरी क्षेत्र के फौजदार सैययद अज़मतुल्ला खान को सहायता के लिए बुलाकर पर्वतीय दर्रों का मार्ग आवागमन के लिए रोक दिया। उधर खान बहादुर मुहम्मद अमीन (रूस्तमे जँग) अपनी बची-खुची सेना को लेकर सिक्खों का पीछा करता हुआ पहुँचा।

बंदा सिंघ जी ने इस कठिन परिस्थिति को समझा और तुरन्त एक युक्ति अपनाई। उस समय तीनों ओर शत्रु सेना थी एक तरफ ऊँचे पर्वत, दल खालसा घिर चुका था, परन्तु उन्होनें बहुत धैर्य से काम लिया। एक पँक्ति बनाकर पीछे हटते हुए दर्रे की ओर बढ़ने लगे। जैसे ही दर्रे के निकट पहुँचे तो शत्रु सेना पर टूट पड़े और उनकी पँक्तियों को चीरते हुए दर्रे से निकलने में सफल हो गए।
मुहम्मद अमीन हाथ मलता ही रह गया। इसने बादशाह को सूचना भेजी थी कि अब जल्दी ही बंदा सिंघ को हम पकड़ने में सफल होने वाले हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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