36. बंदेई सिक्ख
चम्बा के स्थानीय निवासी बंदा सिंह जी को एक महापुरुष अथवा गुरु रूप जानकर आदर देने
लगे, बंदा सिंह जी भी अपनी गिनती बढ़ाने के विचार से श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी
द्वारा दर्शाय मार्ग पर प्रचार कार्य से नये सिंह सजाने लगे। परन्तु यहाँ के नये सजे
सिंह बंदा सिंह जी को गुरु रूप जानकर आदर देते अर्थात् पाँव र्स्पश करते तथा बंदा
सिंह जी के जत्थे द्वारा अमृत पान करने के कारण माँस आहार नहीं करते थे। और जब कभी
आपस में मिलते ‘वाहि गुरु जी का खालसा ! वाहि गुरु जी की फतेह’ कहने के स्थान पर
सँक्षिप्त रूप में ‘गुरु फतेह’ या ‘फतेह दर्शन’ कह देते। वास्तव में नये सजे सिंह
अभी खालसा रहित मर्यादा सीख रहे थे। बहुत सी नई बातें उन्हें सीखने में अभी समय लगना
था अथवा पूरी परिपक्वता आनी थी। तभी सबसे बड़ी भिन्नता तब उत्पन्न हो गई जब सेना में
दो प्रकार के लंगर अलग-अलग प्रचलन में आ गए। एक वह लोग थे जो माँसाहार करते थे और
दूसरे वे जो माँसाहार नही करते थे। जो माँस सेवन नहीं करते थे वे बंदेई सिक्ख कहलाने
लगे। जबकि इनमें आपसी सैद्धांतिक मतभेद कुछ भी न था। वैसे बंदा सिंह स्वयँ भी बहुत
ही उज्ज्वल जीवन वाला, नामवाणी का अभ्यामी और सँयमी पुरुष था। इसलिए उसके मुखमण्डल
पर तेजप्रताप की झलक मिलती थी और उसके वचनों में भी सिद्धि थी। वह सहज ही कुछ कह
देता तो वह सत्य हो जाता। कई बार उसके अँगरक्षक यह बात प्रत्यक्ष देख चुके थे। ऐसें
में उसकी मान्यता होनी स्वभाविक ही थी। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी से दीक्षा लेने
से पूर्व वह एक आश्रम चलाता था और उसके उन दिनों बहुत से शिष्य भी थे। अतः वह गुरु
शिष्य परम्परा को अच्छी तरह जानता था। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के दिव्य ज्योति
में विलीन होने के समय उनके अन्तिम आदेशों को नांदेड़ नगर से लौटने वाले सिंघों ने
उसे अवगत करवा दिया था कि आगामी समय में शरीर रूप में कोई भी व्यक्ति विशेष गुरु नही
कहला सकता। केवल समस्त सिक्खों का गुरु ‘आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ जी ही होगें।
जो कि केवल शब्द रूप में सर्वदा विद्यमान है। बंदा सिंह अपने गुरु जी पर पूर्ण
विश्वास और श्रद्धा भक्ति रखता था। अतः वह अपने गुरु जी के अन्तिम आदेश का सख्ती से
पालन करता था।
नोटः सिक्खों को माँस खाना मना है, किन्तु हर समाज में
अच्छे और बूरे लोग होते हैं। कुछ बूरी प्रवृत्ति वाले लोग सिक्खों में शामिल थे, बस
यही विभिन्नता का कारण था।