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34. बंदा सिंघ पर्वतीय क्षेत्रों में

खालसा दल के नायक बंदा सिंह तथा उसके सैनिकों का किले लोहगढ़ से सुरक्षित निकल जाना, सिक्खों की पराजय नहीं कहा जा सकता। यह ठीक है कि दल खालसा को लोहगढ़ तथा सतरागढ़ किले खाली करने पड़े और वे बादशाही सेना के हाथ आ गए। परन्तु बादशाह की आज्ञा यह थी कि सिक्ख नेता बंदा सिंघ को पकड़कर हाज़िर किया जाए। इस कार्य हेतु बादशाह लोहे का एक पिँजरा भी बनवाकर साथ लाया था। वजीर मुनइम खान खाने-खाना ने बादशाह को विश्वास ही नहीं दिलवाया था, बल्कि पूर्ण उत्तरदायित्व लिया था कि वह सिक्ख नेता को पकड़कर ही उपस्थित होगा। इस युद्ध में बादशाह के सबसे बड़े अमीर तथा सरदार सम्मिलित हुए थे तथा उन्हें हर प्रकार की सहायता भी दी गई थी। युद्ध सामग्री का भी कोई अभाव न था। पर्याप्त सँख्या में बलोच तथा रोहेले पठान लुटेरे एँव वेतनभोगी सैनिक भी इक्ट्ठे किए थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि स्वयँ बादशाह भी इस आक्रमण के समय मौजूद था। इतना होते हुए भी बंदा सिंह तथा उसके प्रमुख साथी तलवारें हाथ में ले साठ हज़ार मुग़ल सेना की पँक्तियाँ चीरते हुए बचकर निकल गए। बादशाह, शाहजादे, वजीर, बख्शी-उल-मुल्क, हिन्दू राजपूत, बुन्देले राजा, एँव जाट हाथ मलते ही रह गए, परन्तु किसी की एक न चल सकी। आक्रमण के लक्ष्य में असफल हुआ बादशाही, वजीर निराश गर्दन नीची किए रणभूमि से लौटा। बादशाह ने बाजे बँद करवा दिए तथा बख्सी-उल-मुल्क महावत खान को मिलने से इन्कार करके उनको अपने-अपने डेरे में जाने का आदेश दिया। बादशाह के क्रोधित होने और अपमान जनकशब्द कहने से बड़ा वजीर दुखित होकर शाही दरबार से उठकर चला गया। यह सब कुछ इस बात का प्रमाण है कि बादशाही लश्कर वास्तव में अपने आक्रमण में असफल रहा था। इसमें कदाचित सँदेह नही कि बंदा सिंह को किले खाली करने पड़े परन्तु उसे एहसास था कि अल्पसँख्या तथा युद्ध सामग्री की कमी के कारण किले में टिके रहकर शाही सेना को भगाया नहीं जा सकता। अपने आरम्भ किए गए इस कार्य को पूर्ण करने के लिए उनका यहाँ से बच निकलना आवश्यक था और वे इस लक्ष्य में सफल हुए।

सिक्खों ने पानीपत से लेकर लाहौर के निकट तक पँजाब के आठ जिलों अमृतसर, गुरदासपुर, जालन्धर, होशियारपुर, लुधियाना, पटियाला, अम्बाला तथा करनाल एँव इसके आसपास का क्षेत्र विजय कर लिया। शायद ही कहीं बीच में कोई छोटे-छोटे टुकड़े अविजयी रहे होगें। परन्तु इस समूचे क्षेत्र पर सिक्खों का अधिकार अभी स्थापित न हुआ था। एक तो बंदा सिंह के पास अधिक नियमित सेना न थी। दूसरा नये आक्रमणों के लिए हर स्थान पर स्थानीय दल ही कार्य करते थे। थोडी बहुत जो सेना थी, वह विजयी क्षेत्रों में बिखरी हुई थी। युद्ध सामग्री भी बहुत कम थी। सामाणा नगर पर अधिकार करने से लोहगढ़ किले पर अधिकार करने तक जो कुछ भी बना-बनाया था, वह एक वर्ष के भीतर ही बना था। इन परिस्थितियों में बन्दा सिंह और उनके साथियों के लिए साठ हजार नियमित मुग़ल सेना तथा असँख्य गाजियों का, खाद्य सामग्री के भरे पूरे भण्डारों और गोला-बारुद के बिना लम्बी अवधि तक सामना कर सकना अत्यधिक कठिन था। परन्तु फिर भी बंदा सिंह एँव उनके मुट्ठी भर साथी इतनी बड़ी मुग़ल बादशाही शक्ति के रहते हुए उन्हें तुच्छ साबित करने में सफल हो गए। बंदा सिंह ने अपने किले एँव खज़ाना के छिन जाने से निराश होकर साहस नहीं छोड़ा। उन्हें पता था कि उनकी शक्ति तथा सफलता के मुख्य साधन ये नहीं थे। ये तो उनकी विजयों सफलताओं के कारण स्वयँमेव उनके हाथ आए थे। वास्तव में उनकी विजय खालसा का अजय साहस थी, जिस पर उन्हें पूर्ण विश्वास था। लोहगढ़ के किले में से निकलने के बारहवें दिन ही बंदा सिंह ने खालसा जगत के नाम पत्र प्रसारित किए ‘जिन्हें लोगों ने हुक्मनामें’ का नाम दिया। जिसमें लिखा था कि आदेश देखते ही खालसा उनके पास पहुँच जाए। तिथि 12 पौष सम्वत् 1767 (10 दिसम्बर सन् 1710)। लोहगढ़ में हुई हानि से खालसा भी निराश न हुआ था। हुक्मनामे प्राप्त होने की देरी थी कि जिन्हें पता चला वे सभी चारों ओर से कीरतपुर एकत्रित होने लगे। उन्हें देखकर बंदा सिंह का फिर से साहस बढ़ गया और शीघ्र ही उन्हें लगा कि वे शिवालिक पर्वत के देसी राजाओं के विरुद्ध आक्रमण कर सकने में समर्थ हो गए हैं।

बंदा सिंह की दृष्टि सर्वप्रथम राजा भीमचन्द्र के पुत्र अजमेहरचन्द कहिलूरी पर पड़ी। इसका बड़ा कारण यह भी था कि वह आरम्भ से ही श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के साथ शत्रुता करता रहा था। परन्तु उसे कभी सफलता नहीं मिली थी। इसलिए उसने सरहिन्द व लाहौर के मुग़ल शासकों से गठजोड़ कर लिया था। परन्तु बंदा सिंह किसी पर अचानक आक्रमण नहीं करता था। अपनी परम्परानुसार बंदा सिंह ने परवान देकर उसके पास विशेष दूत भेजा कि वह अधीनता स्वीकार कर लें। नरेश अजमेहर का अपराधी मन पहले से ही धड़क रहा था। सरहिन्द पर दल खालसे की विजय ने उसे भयभीत कर दिया था कि वह उनके आक्रमण से नहीं बच सकता। अतः उसने जालन्धर दोआबा के प्रमुख मुसलमान जमींदारों तथा पड़ोसी पर्वतीय नरेशों की अपनी सहायातार्थ बुला लिया। उसने बिलासपुर की किलेबन्दी सदृढ कर ली तथा सिक्खों के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगा। इस प्रकार उसने बंदा सिंह की ललकार (चुनौती) को स्वीकार कर लिया और संधि करके अधीनता स्वीकार करने से साफ इन्कार कर दिया। परन्तु जब सिक्ख उसके क्षेत्र में विजयी होते हुए घुस गए तो उसके सभी प्रयासों के उपरान्त भी कोई उनके सामने टिक न सका। इस मुठभेड़ में तेरह सौ (1300) राजपूत मारे गए और कठिनाई से ही कोई विशिष्ट व्यक्ति बचकर निकल सका होगा। बिलासपुर नगर से दल खालसे को पर्याप्त धन उपलब्ध हुआ। नरेश अजमेरचन्द कहिलूरी तथा उसके सहायको की पराजय ने बहुत से अन्य पर्वतीय नरेशों को व्याकुल कर दिया। वे सिक्खों के आक्रमण की कल्पना से ही काँपने लगे। उनके लिए बचाव का सरल मार्ग यही था कि वे चुपचाप बंदा सिंघ जी की अधीनता स्वीकार कर लें। अतः उनमें से बहुत से दल खालसा के डेरे में आ उपस्थित हुए तथा नजराने भेंट करके, बंदा सिंघ जी के सेवक बन गए। ऐसा करने वालों में सबसे पहला नरेश था, मण्डी क्षेत्र का नरेश सिद्धसेन, उसने प्रार्थना की कि हम तो पहले ही श्री गुरु नानक पँथी हैं और श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने मण्डी क्षेत्र को अपने चरण स्पर्श से पावन किया और राजपरिवार को आर्शीवाद देकर कृतार्थ किया था। बंदा सिंह, नरेश सिद्धसेन की अधीनता देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। दोनो पक्षों ने एक दूसरे में विश्वास प्रकट किया और मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए। इन दिनों सम्राट बहादुरशाह ने सभी हिमाचल प्रदेश के प्रर्वतीय नरेशों को आदेश भेज दिए कि यदि बंदा सिंघ उनके क्षेत्र में हो तो उसे किसी भी विधि से पकड़कर मेरे समक्ष प्रस्तुत कर पुरस्कार प्राप्त करें। बंदा सिंघ प्राकृतिक सौन्दर्य पर मुग्ध होने वाला एक भावुक व्यक्ति था। वह पर्वतीय दृश्यों की मनोहर छटा से प्रभावित होकर अकेले ही घुमता हुआ कुल्लू के क्षेत्र में प्रवेश कर गया। वहाँ के स्थानीय नरेश ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए उसे बन्दी बनाकर एक विशेष कारावास में कैद कर लिया। किन्तु बंदा सिंह के अंगरक्षकों को जैसे ही इस बात की सूचना मिली। वे तुरन्त राजामान सिंह के कारावास को तोड़कर अपने नेता बंदा सिंह को स्वतन्त्र कर वापस लाने में सफल हो गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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