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32. सम्राट तथा मुग़ल सेना की दयनीय दशा

बादशाह बहादुरशाह जिन दिनों अपने भाई कामबख्श के विरुद्ध दक्षिण भारत में समस्त देश की सेना एकत्र करके उसका दमन करने गया हुआ था। लगभग उन ही दिनों दिल्ली के निकट दल खालसा के नायक बंदा सिंह बहादुर ने मुग़ल प्रशासन के विरुद्ध कार्यवाही प्रारम्भ कर दी थी। वह कुछ ही दिनों में एक बडी शक्ति के रुप में उभरने लगा। उसकी क्रमवार विजय की सूचनाओं ने सम्राट की नींद हराम कर दी थी। वह लौटते समय राजपूताने के नरेशों को उनकी कुचालों का सबक सिखाना चाहता था किन्तु सामाणा, सढौरा और सरहिन्द में हुई मुग़ल सेना की पराजय ने उसको तुरन्त पँजाब आने पर विवश कर दिया। इस लम्बी अवधि में उसके साथ चल रही सेना को घरों से चले लगभग दो वर्ष होने को थे। लम्बी यात्राओं और गर्मी, वीराने जँगल, पठारी क्षेत्रों में पेयजल के अभाव व सुख सुविधाओं से वन्चित जीवन जी रहे सैनिक थके हारे घर लौटने की जल्दी में थे। परन्तु उनके भाग्य में सुख कहा ? एक मुहिम के समाप्त होते ही, दूसरी उससे भी कठीन मुहिम प्रारम्भ हो जाती थी। वेतन मिले भी कई माह व्यतीत हो चुके थे। दिल्ली से दक्षिण भारत और वहाँ से सढौर क्षेत्र का सफर लगभग 3000 मील था, जिसमें मौसम के परिवर्तन इत्यादि के कारण कई सैनिक बिमारियों से घिर गए और कई युद्ध में मारे गए अथवा घायल अपँग होकर नकारा हो चुके थे। अतः सभी ओर से सेना छुटटी की माँग कर रही थी। कुछ सैनिक तो विद्रोह पर उतारु हो चुके थे। बंदा सिंघ बहादुर का लोहगढ़ के किले से सुरक्षित निकल जाना और बादशाह का क्रोधित होने के साथ ही सेना का मनोबल टूट चुका था। वे जल्दी घर लौटने की चेष्टा में थे, परन्तु बादशाह का हुकम था कि दल खालसा के नायक बंदा सिंह का पीछा करो और उसे जिन्दा या मुर्दा हाज़िर करो। सभी जानते थे घने जँगली पर्वतीय क्षेत्रों में यह कर पाना सम्भव नहीं, अतः सभी सरदार चुप्पी साध गए। इसके विपरीत लोहगढ़ से मिले धन को अपने वेतन के रुप में प्राप्ति की होड़ में उल्लझ गए। लोहगढ़ किले की खुदाई में वहाँ से प्राप्त धन का वेतन रुप में बँटवारा और सैनिकों की घर वापसी में बहुत दिन लग गए।

तभी सम्राट को सूचना मिली कि खालसा दल कीरतपुर व उसके आस पास कोई ऐसा योग्य सरदार नहीं है जो सिक्खों के विरुद्ध नई मुहिम के लिए तैयार हो। क्योकि सभी जानते थे खालसा विशाल सेना से घिर जाने के कारण दबाव में आकर लोहगढ़ से चले आए थे। अन्यथा वे खुले मैदानों में किसी को निकट टिकने नहीं देते और वे जीवन मृत्यु का खेल खेलते। जिससे विजय उनके हाथ लग जाती है। इसलिए सिक्खों ने कहिलूर पति राजा अजमेहरचन्द को परास्त कर दिया और मण्डी के नरेश से संधि कर ली। जब बादशाह को दल खालसे के पुनः उत्थान की सूचनाएँ मिलीं तो वह बहुत गम्भीर हो गया। क्योंकि उसकी दशा उस समय दयनीय थी। उसे लगा यदि वह इस क्षेत्र को छोड़कर दिल्ली जाता है तो सिक्ख पुनः लाहौर और सढोरा क्षेत्र पर नियन्त्रण कर लेगें। यदि वह लाहौर जाता है तो हो सकता है उस पर सिक्ख गुरीला युद्ध थोप दे जिसमें वे निपुण हैं। इसके अतिरिक्त वह सिक्खों का पीछा करने की स्थिति में नहीं था क्योंकि उसकी अधिकाँश सेनाएँ अपने-अपने क्षेत्रों में छुट्टी लेकर लोट चुकी थीं। अतः उसने यहीं रहकर समय व्यतीत करने का निर्णय लिया। जब तक उसके पास ताजा दम फौज की नई कुमक नहीं आ जाती। इस प्रकार उसे इस कार्य के लिए छः माह लग गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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