31. सढौरा तथा लोहगढ़ के किलों का पतन
दल खालसा की थानेसर (थानेश्वर) में हुई पराजय से सभी सिक्ख सैनिक सिमटकर सढौरा व
लोहगढ़ के किले में आ गए अथवा बिखरकर पर्वतों व जंगलों में शरण लेकर समय व्यतीत करने
लगे। इस समय दल खालसा के नायक बंदा सिंह को अपनी भूल का एहसास हुआ कि उसने समय रहते
बादशाह के लौट आने और उससे लोहा लेने की पहले से क्यों नही व्यवस्था की। वह केवल
भजन-बंदगी मे व्यस्त रहा। यदि वह चाहता अथवा ध्यान देता तो नये नियमित सैनिक भर्ती
किए जा सकते थे। क्योंकि उसके पास धन की तो कमी थी ही नहीं। दल खालसा के उत्थान और
थानेसर (थानेश्वर) की पराजय के बीच में हुए युद्धों में लगभग पचास हज़ार सिक्ख सैनिक
काम आ चुके थे, और बहुत से नकारा भी हो चुके थे। भले ही उनके स्थान पर नये मरजीवड़े
(स्वयँ समर्पित) सैनिक आ गए थे। परन्तु वे अभी नवसिखिया जवान ही थे, इस प्रकार
क्षतिपूर्ति नहीं हो पाई थी। बंदा सिंह द्वारा बादशाह के वापस लौटने पर कोई विशेष
नीति निर्धारित न करना और उदासीन रहना यह उसकी सबसे बड़ी भूल थी। बादशाह का डेरा 24
नवम्बर 1710 को सढौरा पहुँचा। अब लगभग सिक्ख सेना पीछे हटती हुई, थानेसर (थानेश्वर)
व सरहिन्द से यहाँ आ चुकी थी अथवा भटककर शिवालिक पर्वत माला की ओट में कहीं समय
व्यतीत कर रही थी। तभी 25 नवम्बर को समाचार मिला कि रूस्तम दिल खान कठिनाई से लगभग
दो कोस ही बादशाही डेरे से आगे गया होगा कि सिक्खों के एक दल ने उसकी पलटन पर
गुरिल्ला युद्ध कर दिया। इस छापा मारयुद्ध में शाही लश्कर बुरी तरह भयभीत हो गया।
देखते ही देखते मुग़ल फौजियों के चारों ओर शव ही शव बिखरे हुए दिखाई देने लगे। खाफी
खान जो उस समय उनके साथ था कहता है कि जो युद्ध इसके उपरान्त हुआ उसका वर्णन करना
मेरे लिए असम्भव है। उस समय तो ऐसा प्रतीत होता था कि युद्ध में मुग़ल पराजित हो रहे
हैं, क्योकि सिक्ख सरदार तलवारे हाथ में लेकर आगे बढकर जेहादियों के मौत के घाट
उतार रहे थे। इस प्रकार रूस्तम दिल खान के सैनिक इस आक्रमण को सहन न करके
तित्तर-बित्तर हो गए। परन्तु पीछे से अतिरिक्त सेना आ पहुँची, उनकी बहुसँख्या सिक्खों
पर भारी हो गई। इस प्रकार हारी हुई बाजी जीत में बदल गई। इस मुठभेड में फीरोजखान
मेवाती का एक भतीजा मार गया तथा उसका पुत्र घायल हो गया। दूसरी ओर सिक्खों के दो
सरदार तथा ढाई हजार जवान मारे गए। बाकी के सैनिक फिर से जँगलो में अलोप हो गए।
लोहगढ़ में उस समय केवल बारह तोपें थी। परन्तु इनके लिए गोला
बारूद इतना कम था कि मुश्किल से तीन या चार घण्टे युद्ध लडा जा सकता था। बारूद के
बिना अस्त्र तो नकारा माने जाते हैं। दल खालसा का लोहगढ़ केन्द्र था। अतः यहाँ बारूद
का निर्माण तो करवाया गया था। किन्तु अधिकाँश युद्ध के मैदानों में भेजा जाता रहा
था, इसलिए यहाँ बाकी बहुत थोड़ा सा बचा था। यही दशा अन्य वस्तुओं की भी थी। खाद्यान
व पानी की भी कमी अनुभव की गई। बादशाही लश्कर इतनी शीघ्र पहुँच जाएगा, यह किसी को
भी आशा नहीं थी। शाहबाज़ सिंघ तोप खाने का विशेषज्ञ था। उसने सभी मोर्चो पर तोपे तथा
बारूद आवश्यकता पड़ने पर ठीक स्थान पर कुमक भेजी। लौहगढ़ किले के पूर्व व पश्चिम दिशा
में कई ऊँचे टीलेनुमा पहाडी चोटियाँ थी। जिन्हें विजय किए बिना लोहगढ़ पर सीधा
आक्रमण करना असम्भव था। अतः उन टीले पर छोटी तोपे तथा प्यादा सैनिकों की टुकडियाँ
बैठा दी गईं। जब बादशाह ने स्वयँ दूरबीन से किले की मज़बूत स्थिति देखी तो उसने किले
पर आक्रमण करने का आदेश नहीं दिया और कहा यदि हम जल्दबाजी में हमला करते हैं तो
हमारा बहुत जानी नुक्सान बहुत हो सकता है। अतः उसने कहा रूको और प्रतीक्षा करो कि
सिक्ख किस परिस्थिती में हैं। किन्तु सिपाहसालार मुनीम खान आक्रमण करने की जल्दी
में था। उसका कथन था कि एक साथ धावा बोलने से किला फतेह हो सकता है। किन्तु बादशाह
इस बात के लिए राजी न हुआ। उसने दूसरे वजीरों से विचारविर्मश किया। उनका मत था इतनी
बड़ी कीमत चुकाने की क्या जरूरत है। यदि हम इस किले को घेर कर रखेगे तो अन्दर की
फौज भूखी-प्यासी लड़ने के लायक नहीं रहेगी। जिससे किला हमारे कब्जे मे सहज ही आ
जायेगा। इस पर बादशाह ने कड़े आदेश दे दिए कि सिक्खों के मोर्चो की तरफ अभी कोई भी
आगे नहीं बढ़ेगा। किले के बाहर लम्बे समय का घेराव और मुग़ल सेना की चुप्पी देखकर
सिक्खों ने इस युद्ध में आई उदासीनता के अर्थ निकालने शुरू किए। वे समझने लगे हमें
भूखे प्यासे मरने पर विवश किया जाएगा। अतः सिक्खों ने रणनीति बदल डाली। निर्णय यह
लिया गया कि केवल उतने ही सैनिक किले में रहे जिनकी युद्ध में अति आवश्यकता है बाकी
की भीड़ धीरे-धीरे गुप्त मार्गों द्वारा धन सम्पदा लेकर श्री कीरतपुर साहिब जी में,
पर्वतीय मार्गों से होती हुई पहुँचे।
ऐसा ही किया गया, क्योंकि किले में धीरे-धीरे खाद्यान की कमी
अनुभव होनी प्रारम्भ हो गई थी। यही स्थिति सढौरे के किले की भी थी। वहाँ भी आवश्यकता
से अधिक सैनिक किले के भीतर थे ओर चारों ओर से शत्रु सेना से घिरे होने के कारण
अन्दर बहुत विकट परिस्थिति बनी हुई थी। अतः वहाँ के सिंघों ने निर्णय लेकर एक रात
अकस्मात् किला त्यागकर वनों में घुस गए। सढौरे का किला तो पर्वतों की तलहटी में
स्थित था। इसलिए शत्रु सेना किसी समय भी इस पर नियन्त्रण कर सकती थी क्योकि उनके
पास सैनिकों का टिड्डी दल जो था। एक दिन वजीर मुनइम खान खाना ने बादशाह से निवेदन
किया कि वे उसे शत्रु पक्ष के स्थानों और मोर्चो का सर्वेक्षण करने के लिए सेना
सहित आगे बढ़ने की आज्ञा प्रदान की जाए। बादशाह ने इस शर्त पर आज्ञा देना स्वीकार
किया कि वह बादशाह के अगले आदेश के बिना धावा नहीं प्रारम्भ करेगा। मुइनम खान जब
पाँच हजार जवानों की सेना लेकर सिक्खों के मोर्चो की मार में पहुँचा तो उनके अड्डों
से तोपों की जोरदार आग बरसानी आरम्भ हो गई तथा पहाड़ी चोटियों से उनके प्यादों ने
बाणों तथा गोलियों से बेध दिया। उस समय मुइनम खान दुविधा में फँस गया और उसने
बादशाह की नाराजगी की उपेक्षा करके अपनी सैन्य ख्याति की रक्षा के विचार से धावा
बोलने का निर्णय ले ही लिया। भले ही इसमें बादशाह के हुक्म की अवज्ञा थी। यह सब
बादशाही डेरे से स्पष्ट दिखाई दे रहा था। यह देखकर कि कहीं मुइनम खान बाजी न मार
जाए, ईर्ष्या तथा सैन्य प्राप्ति के लालसा के कारण दूसरे फौजी सरदारों ने भी अपने
प्यादों को धावा बोलने का आदेश दे दिया। उन्होने भी बादशाह के आदेश की प्रतीक्षा न
की। इनमें शाहजदां रफी-उ-शाह तथा रूसतम दिलखान भी शामिल थे। यह सब काण्ड बादशाह तथा
उसके शाहजादें अपने-2 तम्बुओं के आँगन से क्रोध व सन्तोष के मिश्रित भावों से देख
रहे थे। दल खालसा की चौकियाँ बहुत अच्छी स्थिती में थीं। उन्होंने ठीक-ठीक निशाने
लगाकर तोपों के गोले दागे जिससे शत्रु सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी। शवों के ढेर
लग गए परन्तु वे पीछे नहीं हट सकते थे। क्योकि मुनइम खान भारी कीमत चुकाकर भी लोहगढ़
को विजय करना चाहता था। इसलिए मुग़ल सेना का टिड्डी दल आगे बढ़ता ही चला आ रहा था।
उनका मानना था कि ऐसे पहाड़ी किलों को सदैव सँख्या के बल पर ही जीता जाता है। इस
प्रकार वे हर प्रकार की कुर्बानी देने को तैयार थे। दूसरी तरफ दल खालसा के पास गोला
बारूद सीमित था।
वे बहुत विचार करके एक-एक गोला दागते थें। पूरे दिन तोपें चलती
रही। आखिर बारूद समाप्त हो गया। इस पर सिक्ख सैनिकों ने हाथ में तलवार लेकर शत्रुओं
से लोहा लेना ही ठीक समझा। वे खदँको से बाहर निकल आए और शत्रुओं पर टूट पड़े और मर
गए। सूर्यास्त के समय तक मुनइम खान केवल दो चौकियों पर ही कब्जा कर पाया। उसने अपनी
सेना को युद्ध बँद करके अगले दिन की रणनीति निर्धारित करने के लिए कहा और आदेश दिया
जो जहाँ है वहीं डटा रहे ताकी अगले दिन वहीं से आगे बढा जाए। मिर्जा रूकन ने इस समय
रणक्षेत्र से लौटकर बादशाह को सूचना दी कि युद्ध अभी पहाड़ी दर्रो में चल रहा है और
रूस्तम दिलखान उस पहाडी के आँचल तक पहुँच गया है। जिसकी सफेद इमारत में सिक्खों का
नेता बंदा सिंघ है। तब मुनइम खान भी मोर्चों से लौट आया और उसने बादशाह को विश्वास
में लिया। उसने बादशाह को बताया कि कल के हमले में हम मरदूद बंदा सिंघ को अपनी कैद
में ले लेंगे क्योंकि किले को हमने चारों तरफ से घेर लिया है और हमारी स्थिति मजबूत
है और जान पड़ता है सिक्खों के पास अब गोला बारूद बिल्कुल खत्म हो गया है। इस पर
बादशाह ने कहा कि यह तो खुदा का करम समझो कि उनकें पास बारूद पर्याप्त मात्रा में
नहीं था, नहीं तो तेरी हिमाकत ने तो आज सभी शाही फौज़ को मरवा ही दिया था। तुमने मेरे
हुक्म की कोई परवाह नहीं की है, हम तुम्हें एक ही शर्त पर माफ कर सकतें हैं कि कल
मरदूद बंदा हमारी कैद में होना चाहिए। मुनइम खान ने बादशाह को विश्वास में लेते हुए
बताया कि मुझे पहले धावे के समय में ही एहसास हो गया था कि सिक्खों के पास गोला
बारूद नहीं के बराबर है क्योंकि वे तोपें बहुत सोच विचार के बाद में ही दागते थे।
तो जैसे ही हम उनकी मार के नीचे पहुँच गए थे, खूब गोलाबारी होनी चाहिए थी। मैंने इसी
बात का अँदाजा लगाकर थोड़ा खतरा मोल लिया था, जिसमें सफलता मिली है। आज दोपहर तक
हमने उनकी दो बाहरी चौकियाँ अपने कब्जें में ले ली थीं। जिसमें सिर्फ तीन सौ ही
प्यादे थे। इन्शाह-अल्लाह कल हम अपनी सँख्या के बल से किले में बहुत आसानी से घुसने
में कामयाब हो जाएँगे। सूर्यास्त होने से पहले कुछ मुग़ल सिपाही सोम नदी की ओर से आगे
बढ़ने में सफल हो गये। उन्होने किल की दीवार को सीड़ी भी लगा ली किन्तु अन्दर के
सर्तक सिक्ख जवानों ने उन पर तलवारों से हमला करके उनके हाथ अथवा बाजू ही काट दिए।
अँधकार और सर्दी बढ़ने के कारण दोनो ओर से युद्ध रूक गया। किले के अन्दर दल खालसा के
नायक ने तुरन्त अपनी पँचायत का सम्मेलन किया और नई रणनीति के लिए विचार गोष्ठी की।
सभी ने एकमत होकर कहा किला त्यागने में ही खालसे का भला है
क्योंकि खाद्यान व बारूद, युद्ध के दोनो प्रमुख साधनों का अभाव स्पष्ट है और दूसरी
और शुत्र सेना टिड्डी दल के समान बढ़ती ही चली आ रही है। अतः समय रहते सुरक्षित
स्थानों के लिए निकल जाना चाहिए। उस समय एक नये सजे सिक्ख ने स्वयँ को समर्पित किया
और कहा कि मैं जत्थेदार बंदा सिंह जी की वेषभूषा धारण करके उनके स्थान पर बैठ जाता
हूँ। जिससे शत्रु भ्रम में पड़ा रहे। बंदा सिंघ ने आदेश दिया जो रण सामग्री साथ ले
जाई जा सकती है। वे तो उठा लो बाकी को आग लगा दो। इस नीति के अन्तरगत सिक्खों के
पास एक इमली के पेड़ के तने से बनी तोप थी जिसमें उन्होंने आवश्यकता से अधिक बारुद
भरकर किला त्यागने से पहले अर्धरात्रि को उठा दिया। जिसका धमाका इतना भयँकर था कि
कोसो तक धरती काँप उठी तभी बंदा सिंह और उसका दल खालसा हाथ में नंगी तलवार लेकर किले
के द्वार को खोलकर शुत्र सेना की पँक्तियों चीरते हुए नाहन की पहाड़ियों में अलोप हो
गए। एक दिसम्बर 1710 गुरुवार को प्रातः पौ फटने से पूर्व ही सिपाहसालार मुनइम खान
ने अपने समस्त टिड्डी दल के साथ लोहगढ़ किले पर धावा बोल दिया और थोड़े ही परिश्रम से
लोहगढ और उसके उपकिले सतारागढ़ पर अधिकार कर लिया। वह उस समय बहुत प्रसन्न था। उसे
विश्वास था कि वह शीघ्र ही सिक्खों के नेता बंदा सिंह को जीवित अथवा मृत रूप में
बादशाह के पास उपस्थित कर सकेगा। परन्तु उसकी निराशा, व्याकुलता तथा दुःख का कौन
अनुमान लगा सकता है जब मुनइम खान को पता चला कि बाज तो उड़ गया है और पीछे वह इस बात
का कोई सँकेत तक भी नहीं छोड़ गया कि वह किधर गया है।
इरादत खान बताता है कि कुछ देर के लिए मुनइम खान भौचक्का सा रह
गया और बादशाह के क्रोध के भय में डूब गया। कोतवाल सरवराह खान ने भाई गुलाब सिंघ
को, जो कि बंदे की वेषभूषा में था तथा दस-बारह अन्य घायल व मृतप्राय सिक्खों को पकड़
लिया। यह समाचार तुरन्त बादशाह के खेमें में पहुँच गया। बादशाह के क्रोध की सीमा न
रही उसने तुरन्त ढोल व नगाडे बजवाने बँद करवा दिए और कहा कि इतने कुत्तों के घेरे
से गीदड़ बच कर कैसे भाग गया ? वजीर मुनइम खान ने उसे पकड़कर पेश करने की जिम्मेदारी
ली थी। अब उसे इस वायदे को निभाकर दिखाना चाहिए। थोड़ी देर बाद जब मुनइम खान सिर
नीचा करके बादशाह के खेमें के पास पहुँचा तो बादशाह ने अन्दर से ही क्रोध में कहा
मैं तुमसे मिलना ही नहीं चाहता। जब सिक्खों के बचे हुए कोष की खोज में किले लोहगढ़
की धरती को खोदा गया तो वहाँ से पांच लाख रुपये तथा तीस हजार चार सौ स्वर्ण मुद्राएँ
प्राप्त हुईं। जिन्हें शाही कोष में जमा कर दिया गया।