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29. सम्राट बहादुरशाह का दल खालसा के विरूद्ध अभियान

बादशाह बहादुरशाह को पँजाब में सिक्खों के विद्रोह करने के समाचार सन् 1709 के अंत मे प्राप्त होने लगे थे। तब वह अपने भाई कामबख्श के विरूद्ध दक्षिण में युद्ध करने गया हुआ था। लोटते समय उसे अजमेर के निकट समाचार मिला कि सिक्खों ने सरहिन्द पर विजय प्राप्त कर ली है और वहाँ के सूबेदार वजीर खान को मौत के घाट उतार दिया है और उन्होंने अपने नेता बंदा सिंघ बहादुर के नेतृत्व में पंजाब के अधिकाँश भाग पर नियन्त्रण कर लिया है। इन दुःखत समाचारों के मिलने पर सम्राट के क्रोध की सीमा न रही। उसने राजपूताने के अड़ियल राजा जय सिंह कुशवाह तथा जसवन्त सिंह राठौर की मरम्मत करने का काम बीच में ही छोड़कर, वह स्वयँ ही सिक्खों को समाप्त करने के लिए पँजाब की तरफ बढ़ा। उसने सभी उत्तरी भारत के फौजदारों और गवर्नरों के नाम आदेश जारी कर दिए कि वे सभी मिलकर बंदा सिंघ बहादुर और उसके साथियों कि विरूद्ध सम्मिलित गठजोड़ स्थापित करें। बादशाही राजधानी के इतना निकट इस प्रकार का सामान्य जनता का विद्रोह जैसा कि सिक्खों ने कर दिया था, राजपूतों के झगड़ो से अधिक भयानक था तथा भविष्य के लिए कई समस्याएँ उत्पन्न कर सकता था। अतः बादशाह ने राजपूतों को फिर कभी निपटने के लिए छोड़कर सीधा पँजाब की ओर सैन्यबल का रूख किया। इस समय बादशाह तथा वजीर मुनइस खान के मध्य मतभेद हो गया। वजीर का कहना था कि इतने बड़े प्रतापी बादशाह के लिए सिक्खों जैसे तुच्छ विद्रोहियों के विरूद्ध स्वयँ आक्रमणकारी होना उसकी शान के विरूद्ध है। परन्तु इस मतभेद के रहते भी बादशाह ने इस विद्रोह को बहुत गम्भीरता से लिया और स्वयँ उसे कुचलने के विचार से सीधा ही समस्त सेना के साथ पँजाब की ओर बढ़ा चला आया। उसने सबसे पहले हिन्दुओं और सिक्खों के बीच पहिचान के लिए अपने उन सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को चाहे वे उसके दरबार में थे या राज्य के अन्य कार्यालयों मे, आज्ञा दी कि वे सभी अपनी दाढी-मूँछें मुँडवा दें ताकि हिन्दु व सिक्ख को पहचानने में कोई कठिनाई न हो और यही आदेश उसने फिर सामान्य जनता के लिए भी लागू करने को कहा। बादशाह को दल खालसा के नायक बंदा सिंघ द्वारा नई मुद्रा जारी करने की भी सूचना दी गई और बताया गया कि उसने जमीदारी नियामावली समाप्त कर दी है और किसानों को समस्त अधिकार देकर उन्हें सीधे लगान सरकार को देने को कहा है। सम्राट बहादुर शाह ने अपने दो सेनापतियों महावत खान व फीरोज़ खान मेवाती के नेतृत्व में लगभग 60 हजार सैनिकों का सैन्यबल सिक्खों को कुचलने के लिए भेजा। इस समय सिक्खों की शक्ति बिखरी हुई थी। अधिकाँश सिंघ अपने जत्थेदारों के साथ यमुना पार उत्तर प्रदेश के सहारनपुर और जलालाबाद के क्षेत्रों में सर्घषरत थे। इस मुहिम में बहुत से सिंघ शहीद हो गए थे और जलालाबाद के किले के घेराव के कारण बडा उलझाव उत्पन्न हो गया। जो न चाहते हुए भी समय की बर्बादी का कारण बन गया। इसलिए यहाँ के सिक्ख सैनिक समय अनुसार लौट नहीं सके। बाकी के सैन्यबल पँजाब के मांझा व दुआबा क्षेत्र के परगनों में जगह-जगह बिखरे हुए प्रशासनिक व्यवस्था करने में जुटे हुए थे। सरहिन्द में केवल प्रबन्ध योग्य सेना ही रखी हुई थी। इन सबकी सँख्या बड़े युद्धों में भाग लेने योग्य नही थी। दूसरी तरफ मुग़ल शासक पूरी तैयारी से हिन्दुस्तान भर में से सेना एकत्र करके लाए थे। अतः ऐसे समय में सिक्खों की विजय की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फिर भी जत्थेदार विनोद सिंघ तथा जत्थेदार राम सिंघ को ही अपने थोड़े से सिपाहियों के साथ फिरोजखान की शाही सेना के साथ टक्कर लेनी पड़ी। तेरोडी (करनाल) के समीप अमीनगढ़ के मैदान में दोनों सेनाओं का बड़ा मुकाबला हुआ। महावत खान ने पहले आक्रमण किया। इस पर सिक्खों ने उसकी फौजों को मात दे दी महावत खान ने कायरता प्रदर्शित की और हानि उठाकर पीछे हट गया। फीरोज खान मेवाती पहली चोट में ही युद्ध की यह बुरी दशा देखकर बहुत चकित हो गया और वह अपने प्राणों की बाजी लगाने पर उतर आया। फीरोज खान ने गुस्से में पागल होकर समस्त सेना को एक साथ सिक्खों पर टूट पड़ने का आदेश दिया। सिक्ख सँख्या में आटे में नमक के बराबर भी नही थें। इसलिए वे इतने बड़े आक्रमण में घिर गए फिर भी वे बहुत वीरता से लड़े और अपने जीवन की आहुति देकर कड़ा मुकाबला किया और खालसा गौरव को बरकरार रखा। परन्तु इस क्षेत्र के लोगों ने भी मुग़ल सेना का साथ दिया। जिससे सिक्ख पराजित होकर पीछे हटने लगे। जिस समय अमीन क्षेत्र में हुई विजय का समाचार बादशाह को मिला तो उसने प्रसन्न होकर 20 अक्तूबर को सरहिन्द की फौजदारी फीरोज खान को प्रदान की और विशेष खिलअतें (पुरस्कार) भेजे। अमीनगढ़ से दल खालसा पीछे हटता हुआ थानेसर (थानेश्वर) पहुँच गया। परन्तु यहाँ भी किसी ओर से सहायता अथवा कुमक पहुँचने की आशा नहीं थी। अतः थानेसर (थानेश्वर) में एक छोटी सी झड़प के बाद सिक्ख सढोरा नगर की ओर हटते गए ताकि आवश्यकता पड़ने पर लौहगढ़ के किले में पनाह ली जा सकें। विजय का समाचार सुनकर बादशाह स्वयँ युद्ध का अन्तिम परिणाम देखने के लिए 3 नवम्बर 1710 ई0 तरावड़ी जिसे आलमगीरपुर भी कहते हैं पहुँचा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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