28. जालन्धर, दोआबा क्षेत्रों पर
अधिकार और राहों (राहोन) पर विजय
दोआबा क्षेत्र (जालन्धर, होशियारपुर तथा काँगड़ा इत्यादि जिलों) में भी सिक्ख मांझा
क्षेत्र की तरह जगह-जगह पर स्वतन्त्रता के लिए उठ खड़े हुए। वे लोग जो सरकारी
कर्मचारियों से परेशान थे, सिक्खों के साथ हो लिए। क्राँति की लहर चारों ओर फैल गई।
कुछ सप्ताहों में ही दोआबा के अनेक स्थान पर अपने तहसीलदार और थानेदार नियुक्त कर
दिये गए। केवल एक पलटन सिक्ख सैनिकों की सरहिन्द विजय करने के पश्चात् वहाँ से
पहुँची थी, बाकी के जवान स्थानीय सिक्ख परिवारों के ही थे। परन्तु उथलपुथल की दृष्टि
से वे अपनी सँख्या से कहीं अधिक बडे कार्यो को करनें में संघर्षरत थे। इन दिनों
सुलतानपुर लोधी नगर का फौजदार शम्स खान था। जब सिक्खों को जालन्धर (दोआबा) के
क्षेत्र में पर्याप्त सफलता मिल गई जिससे उनकी शक्ति बढ़ गई तो उन्होंने स्वयँ
फौजदार शम्स खान को भी चुनौती दी। उनकी यह परम्परा थी कि जब भी किसी क्षेत्र पर
आक्रमण करना होता तो पहले वहाँ के प्रशासक अथवा चौधरी को अधीनता स्वीकार करने के
लिए पत्र लिखते। यदि वह उनकी बात स्वीकार कर उनसे मिल जाता तो ठीक, अन्यथा धावा बोल
दिया जाता। इसी के अनुसार सिक्खों ने शम्स खान को भी पत्र लिखा कि वह अपने क्षेत्र
की व्यवस्था में अपेक्षित सुधार लाए, अधीनता स्वीकार कर ले तथा खजाना लेकर उपस्थित
हो जाए। इस पर शम्स खान ने अपने बडे-बडे सरदारों से परामर्श किया। उन सबने कुरान को
मध्य में रखकर विश्वास पात्र रहने तथा सहयोग देने की कसमें (सौगन्ध) ली और डटकर
सिक्खों का सामना करने का दृढ निर्णय किया, परन्तु शम्स खान भीतर ही भीतर भयभीत था
कि इन्कार सुनकर सिक्ख कहीं अचानक ही आक्रमण न कर दें। अतः तैयारी के लिए समय लेने
हेतु उसने सिक्खों को गोलमोल शब्दों में उत्तर भेज दिया कि मैं शीघ्र ही मिलने के
लिए आऊँगा। इसके साथ ही उसने कुछ गोला-बारूद भी भेजा और लिखा कि इस समय बैलगाड़ियों
का प्रबन्ध न होने के कारण मैं आपकी माँग अनुसार माल भेजने में असमर्थ हूँ। यहाँ
बाजार में व्यापारियों के पास और सरकारी गोदामों में पर्याप्त मात्रा में बारूद
विद्यमान है, यदि भेजने की व्यवस्था हो तो भेजा जा सकता है। शम्स खान चतुर व्यक्ति था। उसने छलकपट का सहारा लिया। उसे
विश्वास था कि यदि ईमान के नाम पर इलाके की जनता को बुला भेजे तो पर्याप्त सँख्या
में मुसलमान लोग सिक्खों के विरूध एकत्रित हो जाएँगे। इसलिए उसने जेहाद का ढोल बजवा
दिया तथा हैदरी झण्डा गाड़ दिया। जिहाद की चुनौती से सीधे-सादे मुसलमानों, विशेषकर
किसानों और जुलाहों पर काफी प्रभाव पड़ा। इन लोगों ने प्रशासन को आर्थिक सहायता भी
दी और स्वयँ धर्मयुद्ध में शहीद होने के लिए (कुरान मजीद) ईश्वरीय बाणी मध्य में
रखकर परस्पर वचनबद्ध होकर एकत्रित हो गए। फौजदार शम्स खान के पास पाँच हज़ार
घुड़सवार तथा तीस हजार प्यादे तोपची तथा अन्य शस्त्रों के प्रवीण वैतनिक सेना थी।
इस प्रकार आधा लाख से अधिक लश्कर लेकर बहुत शक्तिशाली बनकर सुलतानपुर से चल पड़ा।
दूसरी ओर सिक्ख प्रसन्न थे कि शम्स खान का अधीनता स्वीकार करने का पत्र आ गया है,
यदि शम्स खान स्वयँ उपस्थित होकर एक विशेष संधि के अन्तर्गत अधीनता स्वीकार कर लेता
है, तो शेष इस क्षेत्र के प्रशासनिक अधिकारी स्वयँ ही खालसे के झण्डे के नीचे आ
जाएँगे। परन्तु उन्हें वास्तविकता की भनक तब मिली जब उन्हें ज्ञात हुआ कि शम्स खान
ने जेहाद का ढोल बजाकर आधा लाख व्यक्ति इकट्ठे कर लिए हैं और वह उन्हें साथ लेकर चल
पड़ा है। सिक्खों ने सारी सूचनाएँ बाबा बंदा सिंघ बहादुर जी को लिखकर भेजीं और जल्दी
सहायता भेजने के लिए लिखा। इस नाजुक समय में सिक्खों के सैनिक दल बिखरे हुए थे।
मांझा और रियाड़की क्षेत्रों की तरफ से सभी सैनिक दल शीघ्र नहीं पहुँच सकते थे, उन
क्षेत्रों को खाली करके आना भी उचित न था। दल खालसा के नायक बंदा सिंह बहादुर स्वयँ
गँगा-दोआबा क्षेत्र (सहारनपुर के आसपास) विचरण कर रहे थे। उन दिनों वहाँ सिक्खों ने
जलालाबाद को घेर रखा था। अतः वहाँ से भी कुमक आने की आशा न थी। अतः यहाँ के स्थानीय
सिक्ख सेनापति ने एक विशेष प्रकार की योजना बनाई। उन्होने पहले स्थानीय किले राहोन
पर नियन्त्रण कर लिया।
वहाँ कुछ सैनिकों को तैनात करके बाकी की सेना को मुख्य मार्ग की
झाड़ियों में घात लगाकर बैठ जाने को कहा। एक पुराने ईंटों के भट्ठे को गढ़ी की शक्ल
देकर मोर्चाबन्दी कर ली ताकि कठिन समय में स्वयँ को सुरक्षित किया जा सके। जैसे ही
शम्स खान अपनी सेना लेकर बढ़ता हुआ सिक्खों की मार के नीचे आया, वैसे ही घात लगाकर
बैठे सिंघों ने झाड़ियों में से शत्रुओं पर तोपों के गोले दागे और बन्दूकों से निशाने
साधे। इस अप्रत्यक्ष मार की जेहादियों को आशा न थी। वे घबराकर इधर-उधर भागकर बिखर
गए। अन्त में आमने-सामने तलवारों का भयँकर युद्ध हुआ। सिक्ख तलवार चलाने में बहुत
कुशल थे, उनके सामने भावुक होकर धर्मयुद्ध लड़ने आए नवसिखिये गाजी क्षण भर भी न टिक
सके। देखते ही देखते चारों और शव ही शव दिखाई देने लगे। दिन भर घमासान युद्ध हुआ।
शत्रु की कमर टूट चुकी थी, परन्तु उनकी सँख्या बहुत अधिक थी। अतः सिक्खों ने
‘राहों’ (राहोन) के किले में अँधेरा होते ही शरण ली। यह उनके कब्जे में पहले से ही
था। दूसरे दिन शम्स खान ने अपने वैतनिक सैनिकों के बल पर किला घेर लिया उसकी गाजी
सेना भाग चुकी थी। किले का घेराव लम्बा समय ले सकता था। सिक्ख सेना ऐसा नहीं चाहती
थी, क्योकि किले में खाद्यान की कमी थी। एक रात अकस्मात् सिक्खों ने किला खाली कर
दिया और दूर जँगलों में जा घुसे। इस प्रकार मुग़ल फौज़ किले पर कब्जा जमा बैठी। शम्स
खान ने खालसा दल को पराजित हुआ जानकर उनका जँगलों में पीछा नहीं किया और वह अपनी
राजधानी सुल्तानपुर लौट गया। उन दिनों जरनैली सड़क पर स्थित होने के कारण सुलतानपुर
लोधी बहुत विकसित नगर था। सिक्खों ने सभी परिस्थितियों का अनुमान लगाया और फिर नई
योजना बनाकर किला राहों (राहोन) पर पुनः आक्रमण करके अपने अधिकार में कर लिया। इस
विजय से सभी आसपास के क्षेत्र दल खालसा के झण्डे के नीचे आ गए।
राहों (राहोन) नगर का शासक नियुक्त करके सिक्ख जालन्धर की ओर बढ़
निकले। यहाँ के पठान ऐसे भयभीत थे कि वे उनके पहुँचने का समाचार सुनते ही नगर छोड़कर
भाग निकले। जालन्धर पर सिक्खों का अधिकार बहुत ही सरलतापूर्वक हो गया। ठीक इसी भाँति
बजवाड़ा (होशियारपुर) के सरकारी अधिकारी ने भी कोई सामना न किया और अधीनता स्वीकार
कर ली। इस प्रकार कुछ ही दिनों में प्रायः समस्त दोआबा क्षेत्र दल खालसा के अधीन हो
गया। दोआबा का मुख्य फौजदार शम्स खान स्वयँ भी सुलतानपुर में शाँति से न रह सका।
इतिहासकार लिखते है उन दिनों उसके साथ सिक्खों की बाइस बार अलग-अलग स्थानों पर झड़पे
हुईं। जिससे वह सदैव भयभीत रहने लगा। अतः वह केवल नाममात्र का ही प्रशासक रह गया
था। इतिहासकार मैलकम लिखता है– इसमें कोई भी सँदेह नहीं रह गया था, यदि बादशाह अपनी
समस्त फौजे लेकर पँजाब न आता तो खालसा दल ने सारे हिंदुस्तान को घेर लेना था। उसके
पँजाब आने से पासा पलट गया और मुसलमान जेहादी शक्तियाँ फिर से एकत्र करके उसने पुनः
मुकाबला किया और सफल भी हुआ। ठीक इसी प्रकार इतिहासकार इरादत खान कहता है– उन दिनों
में दिल्ली में कोई ऐसा सरदार नही था, जिसमें दल खालसा के विरूद्ध दिल्ली से आक्रमण
करने की दिलेरी होती। राजधानी का बडा सरकारी हाकिम आसफ दौला (असद खान) डर रहा था,
इसलिए शहर के वासी दिखाई दे रहे मुसीबत के बादलों से बचने के लिए अपने परिवारों तथा
माल-असबाब को पूर्व के पड़ोसी प्राँतो में सुरक्षा के लिए भेज रहे थे।