25. सिक्खों के चार दल
एक बार सिक्खों का एक दल लाहौर नगर के शालीमार बाग तक जा पहुँचा और नगर की सीमा तक
अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। लाहौर का हाकिम असलम खान कुछ डरपोक स्वभाव का स्वामी
होने के कारण शाँत रहा, परन्तु मौलवियों तथा मुल्लाओं को सिक्खों की शक्ति का उभरना
अपने लिए खतरे की घण्टी लगने लगा। उन्होंने मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को उकसाने
के लिए जिहाद, इस्लाम खतरे में है का नारा लगाया। ईदगाह मसीत के पास हैदरी झणेडा
गाड़ दिया गया। मीर तक्की तथा मुसा बेग ने अगवाई की। इन्होंने अपना घर तथा माल
असबाब बेचकर सैनिको के लिए, घोड़ो तथा फौजी सामान का प्रबंध किया। खोजा जाति के लोगों
तथा धनाढय व्यापारियों ने खुलकर आर्थिक सहायता की। गाजी सैयद ईसमाइल, गाजी बार बेग,
शाह इनायत तथा समस्त मुल्लां पीरों ने भी इस जेहाद में बढ़-चढ़कर भाग लिया। स्थानीय
हिन्दुओं में महत्वपूर्ण नेता टोडरमल का पौत्र जिसका पिता पहाड़ीमल था। उसने अपनी
राज्य भक्ति प्रदर्शित करने के लिए घोषणा की कि जिन जहादियों के पास सैनिक सामग्री
अथवा खर्च के लिए पैसे न हों वह मुझ से ले लें या उसकी ओर से नौकर होकर जिहादियों
में मिल जाएँ। नवाब असलम खान को उसने अपनी ओर से कुछ तोपें तथा बन्दूकें भी भेट
कीं। अंत मे जब सैययद असलम खान ने महसूस किया कि लोगों में उसकी बहुत निंदा हो रही
है, तो उसने पूर्व एक नेता मीर अता-उल्ला तरावड़ का राजपूत इनाय तुल्ला तथा फरीदाबाद
के जमींदार मुहब्बत खान खरल के नेतृत्व में पाँच सौ घुड़सवार और एक हज़ार प्यादों की
सेना देकर गाजियों की सहायता के लिए नियुक्त किया। इस प्रकार जिहादी, गाज़ियों लुटेरों
तथा प्रान्त की सेना का विशाल दल एकत्रित हो गया, जो कि हैदरी झण्ड़े लेकर अली के
नाम के नारे लगाते चल पड़े। दूसरी तरफ सिक्ख सँख्या में बहुत कम थे, और जो थे भी वे
टुकड़ियों में बिखरे हुए थे। जिहादियों की अपेक्षा उनकी सँख्या आटे में नमक के समान
थी। अतः प्रत्यक्ष मुठभेड़ उनके लिए कठिन थी। उन्होंने समय टालना ही उचित समझा।
इसलिए वे काहनुवाल नामक घने जँगली क्षेत्र में जा घुसे। इन झाड़ियों व जँगलों से सिक्ख भली भाँति परिचित थे। यहां अनाज
और पेयजल की अवश्य ही कठिनाई थी। इसके विपरीत लाहौर के जिहादियों को इन कठिन
परिस्थितियों में रहने का अभ्यास नहीं था। वह शहरी नागरिक होने के कारण कोमल शरीर
वाले थे। अतः उन्होंने काँटेदार झाडियों तथा घने जँगलों में घुसने का प्रयास किया
भी तो वे बुरी तरह असफल हुए क्योंकि जँगलों मे छिपे हुए सिक्खों ने बुरी तरह परास्त
किया और भागने पर विवश कर दिया। अतः अन्य कहीं जोर न चलता देख, जेहादी गाँवों में
जा घुसे और वहाँ के स्थानीय हिन्दुओं पर अत्याचार करने लगे। मांझा का क्षेत्र
क्योंकि लाहौर के निकट पड़ता था, इसलिए अधिकतर हिन्दुओं पर दुर्व्यवहार यहीं पर होने
लगा। जेहादी यह कहकर यहाँ के हिन्दुओं को तँग करने लगे कि इन्होंने ही अपने पुत्रों
को सिक्ख बनाकर प्रशिक्षण दिलवाकर सिक्ख सेना खड़ी की है। जब सिक्खों को इस कठोर
व्यवहार का पता चला तो वे अत्यन्त क्रोधित हो उठे और सोचने लगे कि यदि हमारे बदलें
हमारे माता-पिता को अपमान सहना पड़ रहा है तो हमारे जीवन को धिक्कार है, इसलिए
उन्होने अवसर मिलने पर झाडियों जँगलो में से निकलकर जहादियों पर छापे मारने आरम्भ
कर दिए। ज्यों-ज्यों वे सिक्खों को खोज-खोजकर मारते थे, त्यों-त्यों सिक्ख भी तेज
हो रहे थे तथा जेहादियों को मौत के घाट उतारते जाते थे। छापा मारने के बाद सिक्ख
फिर से जँगलों में जा छिपते और जेहादियों की पहुँच से दूर हो जाते।
इन कठिन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सिक्खों ने अपने आप
को चार दलों में विभाजित कर लियाः
1. पहला दल तो लाहौर तथा श्री अमृतसर साहिब जी के क्षेत्र के
मध्य में विचरण करेगा।
2. दूसरा रियाड़की में पर्वतों के निकट गुरूदासपुर-पठानकोट की ओर रहेगें।
3. तीसरा लाहौर नगर के बिल्कुल आसपास रहें।
4. चौथा जेहादी तुर्कों के ईद-गिर्द रहें।
यदि कोई दल अकेला विपत्ति में फँस जाए तो अन्य दल समय पर आकर
उनकी सहायता करें। ये दल दो सौ से चार सौ के बीच की सँख्या में जवान रखते थे और इनकी
गिनती घटती-बढ़ती रहती थी।