8. शहीद भाई गुरबख्श सिंघ जी निहंग
सरदार गुरबख्श सिंह जी का जन्म खेमकरण के निकट गाँव सील में हुआ। बाल्यकाल में ही
माता पिता द्वारा दी गई शिक्षा अनुसार आप जी सिक्ख धर्म की मर्यादाओं अनुसार जीवन
व्यतीत करने लग गए। जब आप युवा हुए तो आपने भाई मनी सिंघ जी की छत्रछाया में
अमृतपान किया। आपका निवास लाहौर नगर के निकट था। अतः आपको स्थानीय प्रशासन द्वारा
सिक्खों के विरूद्ध अभियानों में कई बार कष्ट उठाने पड़े। आप जी बहुमुखी प्रतिभा के
स्वामी थे। अतः आप एक अच्छे सिक्ख प्रचारकों में गिने जाते थे। आप जी जहाँ विद्वान
थे, वहीं युद्धकला में भी निपुण और कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र तथा घुड़सवारी करने
में कुशल थे। आपको छोटे घल्लुघारों और बड़े घल्लुघारों में भी भाग लेने का शुभ अवसर
प्राप्त हुआ परन्तु आपको दल खालसा के अध्यक्ष सरदार जस्सा सिंघ जी ने श्री आनन्दपुर
साहिब जी में स्थिर रहकर सिक्खी प्रचार करने का कार्य सौंपा। जब आपको ज्ञात हुआ कि
अहमदशाह अब्दाली ने श्री दरबार साहिब जी की इमारत धवस्त कर दी है तो आपको बहुत खेद
हुआ। आपने इच्छा प्रकट की कि मुझे वहाँ पर गुरूधामों की रक्षा हेतु प्राणों की बलि
देनी चाहिए। इसी बीच सिक्खों ने अब्दाली को पराजित करके काबुल लौटने पर विवश कर दिया
और सन् 1769 की वैशाखी को श्री हरिमन्दिर साहिब के भवन को पुर्ननिर्माण हेतु
प्रस्ताव पारित कर के 24 लाख रूपये एकत्रित करके कार सेवा निष्काम भवन निर्माण
कार्य प्रारम्भ कर दिया। यह शुभ समाचार सुनकर सरदार गुरबख्श सिंघ जी हर्ष में आ गए।
वह श्री दरबार साहिब जी के दर्शन दीदार करना चाहते थे और उनके हृदय में यही एक
अभिलाषा थी कि किसी भी विधि से वही पुराना वैभव पुनः स्थापित हो जाए। परन्तु प्रकृति
को कुछ और ही मँजूर था। जब सरदार गुरबख्श सिंह निहंग जी कार सेवा में अपने जत्थे
सहित व्यस्त थे तभी अब्दाली के सातवें आक्रमण की सूचना मिली। अतः तभी नवनिर्माण
कार्य रोक दिया गया और जनसाधारण संगत रूप में आए श्रद्धालु घरों को लौट गए। इस पर
सरदार गुरबख्श सिंघ निहंग को शहीद होने का चाव चढ़ गया। मानों उन्हें मुँहमाँगी
मुराद मिल रही हो। उन्होंने अपने जत्थे को श्री दरबार साहिब की सुरक्षा हेतु शहीद
होने की प्रतिज्ञा करवाई और स्वयँ केसरी बाणा पोशाक पहनकर तैयार हो गए और घात लगाकर
बैठ गए। जैसे ही अब्दाली के सैनिक परिक्रमा में घुसे, सिंघ जी अपने जत्थे सहित
जयघोष करते हुए उन पर टूट पड़े और घमासान का युद्ध किया।
प्रत्यक्षदर्शी काज़ी नूर दीन शब्दों में इस प्रकार वर्णन करता
है: ‘जब बादशाह और लश्कर गुरू चक्क बाद श्री अमृतसर साहिब जी में पहुँचा तो सिक्ख,
वहाँ दिखाई न पड़े किन्तु थोड़े से आदमी अकाल बुँगे में छिपे हुए थे, हमें देखते ही
यकायक बाहर निकल आए। शायद इन्होंने गुरू के नाम पर अपना खून बहाने की शपथ ले रखी
थी। वे देखते ही देखते लश्कर पर टूट पड़े। वे अभय थे, उन्हें किसी मौत-वोत का डर था
ही नहीं, वे गाजियों के साथ जूझते हुए मारे गए। उनकी कुल गिनती तीस (30) थी।