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6. शहीद भाई हकीकत राय जी

जिन दिनों श्री गुरू हरि राय साहिब जी स्यालकोट (पँजाब) पहुँचे, वहाँ भाई नँदलाल खत्री गलोटियाँ खुरद क्षेत्र में निवास करते थे। उन्होंने गुरूदेव का भव्य स्वागत किया और उनसे सिक्खी धारण की। इनके सुपुत्र श्री बाघमल जी, स्थानीय हुक्मरान अमीर बेग के पास एक अधिकारी के रूप में कार्यरत हुए, आगामी समय में श्री बाघमल की सुपत्नि श्रीमती गौरा जी ने एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम हकीकत राय रखा गया। हकीकत राय बहुत प्रतिभाशाली और साहसी युवक निकला। इसकी माता ने इसे सिक्ख गुरूजनों के जीवन वृतान्त सुना-सुनाकर आत्मगौरव से जीना सीखा दिया था। सिक्खी तो घर में थी परन्तु पँजाब सरकार के सिक्ख विरोधी अभियानों के कारण हकीकत राय केश धारण न कर सका। इसके पीछे राजनीतिक दबाव अथवा सामाजिक विवशता थी परन्तु उसका मन सदैव गुरू चरणों से जुड़ा रहता था। इस परिवार में सिक्खी के वातावरण को देखते हुए बटाला नगर जिला गुरदासपुर के निवासी सरदार किशन सिंह जी ने अपनी सुपुत्री का विवाह हकीकत राय से कर दिया। उन दिनों केशधारी युवक दल खालसा के सदस्य बन चुके थे अथवा शहीद कर दिए गए थे। अतः विवशता के कारण सरदार किशन सिंह जी ने हकीकत राय को अपनी सुपुत्री के लिए उचित वर समझा।

हकीकत राय का जन्म सन् 1724 ईस्वी में हुआ था। इन्हें इनके पिता बाघमल जी ने उच्च शिक्षा दिलवाने के विचार से, सन् 1741 में मौलवी अब्दुल हक के मदरसे में भेज दिया। वहाँ हकीकत राय अपने सहपाठियों से बहुत मिलजुल कर शिक्षा ग्रहण करते थे, वैसे भी बहुत नम्र स्वभाव और मधुरभाषी होने के कारण लोकप्रिय थे। परन्तु एक दिन ‘भइया दूज के दिन’ वह अपने माथे पर तिलक लगवाकर मदरसे पहुँच गए। मुसलमान विद्यार्थियों ने उनकी खिल्ली उड़ाई और बहुत अभद्र व्यँग्य किए। इस पर हकीकत राय ने बहुत तर्कसंगत उत्तर दिए। जिसे सुनकर सभी विद्यार्थी निरूत्तर हो गए। परन्तु बहुमत मुसलमान विद्यार्थियों का था। अतः वे हिन्दू विद्यार्थी से नीचा नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने हीनभावना के कारण मौलवी को बीच में घसीटा और इस्लाम का पक्ष प्रस्तुत करने को कहा। मौलवी ने एक विचार गोष्ठि का आयोजन कर दिया। दोनों पक्षों में जमकर बहस हुई और एक दूसरों की त्रुटियों को लक्ष्य बनाकर आरोप लगाए गए, इन खामियों के कारण बात लाँछन तक पहुँच गई। मुस्लिम विद्यार्थियों का पक्ष बहुत कमजोर रहा। वे पराजित हो गए परन्तु उनके स्वाभिमान को बहुत ठेस पहुँची, अतः वे हठधर्मी करने लगे कि हकीकत राय उनसे माफी माँगे परन्तु हकीकत राय ने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर मुस्लिम विद्यार्थियों ने दबाव बनाने के लिए अपनी-अपनी पगड़ियाँ उतारकर मौलवी के समक्ष रख दी और कहा कि हकीकत राय को पैगम्बरों के अपमान करने का दण्ड मिलना चाहिए। हकीकत राय का तर्क था कि मैंने कोई झूठ नहीं कहा और मैंने कोई अपराध नहीं किया जो सत्य था, उसकी ही व्याख्या की है। यह बातें सभी को स्वीकार करनी चाहिए। इस पर मौलवी भी दुविधा में पड़ गया, उसने मुस्लिम विद्यार्थियों के दबाव में इस काण्ड का निर्णय करने के लिए शाही काज़ी के सम्मुख प्रस्तुत किया।

शाही काज़ी ने घटनाक्रम को जाँचा तो वह आग बबूला हो गया। उसका विचार था जब हम सत्ता में हैं तो इन हिन्दू लोगों कि यह हिम्मत कि हमारे पैगम्बरों पर लाँछन लगाएँ। अतः उसने हकीकत राय को गिरफ्तार करवाकर कारावास में डलवा दिया और उस पर दबाव बनाया कि वह इस्लाम स्वीकार कर ले। परन्तु हकीकत राय किसी और मिट्टी का बना हुआ था, वह अपने विश्वास से टस से मस नहीं हुआ। स्थानीय प्रशासक अमीर बेग तक जब यह बात पहुँची तो उसने विद्यार्थियों का मनमुटाव कहकर हकीकत राय को हरजाना (आर्थिक दण्ड) लगाकर छोड़ने का आदेश दिया परन्तु शाही मौलवी ने उसे इस न्याय के लिए लाहौर भेज दिया। उन दिनों लाहौर के घर-घर शहीद मनी सिंह, महताब सिंह, बोता सिंह, गरर्ज सिंह इत्यादि की धर्म के प्रति निष्ठा और उनके बलिदान की चर्चाएँ हो रही थीं। ऐसे में हकीकत राय के मन में धर्म के प्रति आत्मबलिदान देने की इच्छा बलवती हो गई। घर से चलते समय उसकी माता और पत्नि ने उन्हें विशेष रूप से प्रेरित किया कि धर्म के प्रति सजग रहना है, पीठ नहीं दिखानी है और गुरूदेव के आदेशों से बेमुख नहीं होना, भले ही अपने प्राणों की आहुति ही क्यों न देनी पड़े। लाहौर के शाही काज़ी के पास जब यह मुकद्दमा पहुँचा तो उसने भी स्यालकोट के काज़ी का ज्यों का त्यों फैसला रखा, उसने कह दिया कि पैगम्बर साहिब की शान में गुस्ताखी (अवज्ञा) करने वाले को इस्लाम कबूलना होगा, नहीं तो मृत्युदण्ड निश्चित ही है। इस पर लाहौर नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति दीवान सूरत सिंह, लाला दरगाही मल्ल तथा जमांदार कसूर बेग इत्यादि लोगों ने राज्यपाल जक्रिया खान से कहा कि वह हकीकत राय को छोड़ दे परन्तु वह उन दिनों काज़ियों के चक्र में फँसकर हठधर्मी पर अड़ा हुआ था, अतः उसने किसी की भी सिफारिश नहीं मानी और इस्लाम कबूल करने अथवा मृत्युदण्ड का आदेश बरकरार रखा। उन दिनों कई केशाधरी सिक्ख कैदी भी मृत्युदण्ड की प्रतीक्षा में जक्रिया खान की जेलों में बन्द पड़े थे। उनसे प्रेरणा पाकर हकीकत राय का मनोबल बढ़ता ही चला गया, वह मृत्यु दण्ड का समाचार सुनकर भेड़ों की तरह भयभीत न होकर भैं-भैं न करके शेरों की तरह गर्जना करने लगा। इस प्रकार वीर योद्धा 18 वर्षीय हकीकत राय को सन् 1742 ईस्वी की बसन्त पँचमी वाले दिन लाहौर के नरवास चौक में तलवार के एक झटके से शहीद कर दिया गया। जब इस निर्दोष युवक की हत्या की सूचना दल खालसा में पहुँची तो उन्होंने सभी अपराधियों की सूची तैयार कर ली और समय मिलते ही स्यालकोट पहुँचकर छापामार युद्ध कला से उन दोषियों को चुन-चुनकर मौत के घाट उतार दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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