5. शहीद सरदार सुबेग सिंघ जी व शहीद
सरदार शाहबाज सिंघ जी
लाहौर नगर से कुछ मील की दूरी पर स्थित गाँव जम्बर के निवासी सरदार सुबेग सिंह जी
बहुत ऊँचे आचरण वाले गुरसिक्ख थे। वह बहुमुखी प्रतिभावान, फारसी तथा पँजाबी भाषा के
विद्वान, जक्रिया खान के शासनकाल में आप सरकारी ठेकेदारी करते थे। आप जी स्थानीय
जनता में गणमान्य व्यक्तियों में से एक थे। आपकी लोकप्रियता ने आपको शासक दल में भी
प्रतिष्ठित व्यक्तियों में सम्मिलित करवा दिया था। अतः आपकी योग्यता को मद्देनजर
रखकर राज्यपाल जक्रिया खान ने आपको निरपेक्ष व्यक्ति जानकर लाहौर नगर का कोतवाल
नियुक्त कर दिया। सरदार सुबेग सिंह जी ने कोतवाल का पदभार सम्भाले के तत्पश्चात्
बहुत से प्रशासनिक सुधार कर दिए। जैसे हिन्दुओं के शँख की अथवा घड़ियालों की गूँजों
पर लगा प्रतिबन्ध हटा दिया। कठोर मृत्युदण्ड को सहज मृत्युदण्ड में बदल दिया। परन्तु
कट्टरपँथियों ने उनके यह सुधार स्वीकार्य नहीं थे। अतः उन पर निराधार आरोप लगाकर
उनको इस पद से जल्दी हटवा दिया गया। सरदार सुबेग सिंह जी को पँजाब के राज्यपाल
जक्रिया खान ने उग्रवादी सिक्ख दलों के साथ संधि करने के लिए मध्यस्थता की भूमिका
करने को भेजा, जिसमें वह पूर्णतः सफल हुए थे। जक्रिया खान की मृत्यु जब भाई तारू
सिंह के जूतों से हो गई तो उसके पश्चात् उसका पुत्र याहिया खान पँजाब का राज्यपाल
बन बैठा और वह मनमानी करने लगा।
उन्हीं दिनों सरदार सुबेग सिंह का युवा पुत्र शाहबाज सिंह जो कि
अति सुन्दर और प्रतिभाशाली था, लाहौर के एक मदरसे में एक काज़ी से उच्च विद्या फारसी
भाषा में प्राप्त कर रहा था। अध्यापक काज़ी शाहबाज सिंह की योग्यता, उसके आचरण और
उसके डीलडौल से प्रभावित हुए बिना न रह सका। एक दिन काज़ी के मन में आया कि क्या
अच्छा हो जो यह युवक मेरा दामाद बनना स्वीकार कर ले परन्तु यह तो सम्भव न था क्योंकि
साम्प्रदायिक दीवारें बीच में आड़े आ रही थीं। अतः काज़ी विचारने लगा क्यों न शाहबाज
सिंह को इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जाए। उसने इस मँतव्य की पूर्ति
हेतु धीरे-धीरे शाहबाज सिंह को इस्लाम सम्प्रदाय की अच्छाइयों को बताना शुरू कर दिया।
भले ही शाहबाज सिंह का इस्लामी वातावरण में पालनपोषण हो रहा था परन्तु उसे बाल्यकाल
से ही माता पिता द्वारा सिक्ख सम्प्रदाय के धर्मनिरपेक्ष मानववादी सिद्धान्त और
समस्त विश्व के कल्याणकारी फिलासफी तथा गुरूबाणी, गुरूजनों के अद्भुत जीवन वृतान्तों
से अवगत करवाया जा रहा था। शाहबाज सिंह ने अब युवावस्था में अन्य मतों का भी
तुलनात्मक अध्ययन कर लिया था। अतः वह अब सुचेत था और उसे स्वयँ के ऊपर सिक्ख
सम्प्रदाय का होने के कारण गर्व था। अतः काज़ी उसको अपने मँतव्य की ओर आकर्षित न कर
सका। जब कभी काज़ी इस्लाम सम्प्रदाय के गुणों का व्याखान करने लगता, तभी शाहबाज सिंह
उसकी तुलना में सिक्ख सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ गुणों का वर्णन करने लग जाता। काज़ी
के द्वारा नित्य इस्लाम की प्रशँसा से शाहबाज सिंह सतर्क हो गया कि कहीं कोई घोटाला
है, इसलिए वह काज़ी से हुई दैनिक वार्तालाप की सूचना अपने माता-पिता को देने लगा। जब
काज़ी के लम्बे समय के परिश्रम के पश्चात् भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका तो
उसने कुटिल नीति से काम लेने की सोची। यह शुभ अवसर उसे जक्रिया खान की मृत्यु के
पश्चात् प्राप्त हो गया। जब पँजाब के राज्यपाल याहिया खान बन गया। याहिया खान
जक्रिया खान का बड़ा बेटा था, वह पिता की मृत्यु के समय दिल्ली में अपने ससुर
कमर-उद-दीन के पास कार्यरत था। वजीर कमर-उद-दीन के बहुत सिफारिश करने के कारण उसे
पँजाब के राज्यपाल के लिए नियुक्ति पत्र बादशाह से दिलवा ही दिया। याहिया खान की भी
सिक्खों के प्रति कोई अच्छी नीति नहीं थी। अतः शाही काज़ी ने उसका पूरा लाभ उठाने की
युक्ति सोची।
एक दिन काज़ी के लड़के और शाहबाज सिंह की किसी बात को लेकर लड़ाई
हो गई, वे दोनों सहपाठी थे। बात बढ़ते बढ़ते तू-तू, मैं-मैं से मारपीट पर पहुँच गई।
काज़ी के लड़के ने पिता से अध्यापक होने की अकड़ में शाहबाज सिंह के लिए कुछ अभ्रद भाषा
का प्रयोग किया और सिक्ख गुरूजनों के लिए भी अपमानपूर्ण शब्दावली इस्तेमाल की, इसके
उत्तर में शाहबाज सिंह ने उत्तर में शाहबाज सिंह ने उसकी जमकर पिटाई कर दी और उसी
के अँदाज में उसने भी इस्लाम की त्रुटियाँ गिना कर रख दी। बस फिर क्या था, काज़ी को
एक शुभ अवसर मिल गया, प्रशासन से शाहबाज सिंह का दमन करवाने का, उसने नये नियुक्त
राज्यपाल याहिया खान को शाहबाज व उसके पिता के विरूद्ध खूब भड़काया और कहा कि ये लोग
हमारी ही प्रजा है और हमें ही आँखें दिखाते हैं। इनकी हिम्मत तो देखो, किस प्रकार
इसने पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब की शान के विरूद्ध भद्दे शब्द कहे हैं। याहिया खान
को जनता में अपना रसूख बढ़ाना था, इसलिए उसने काज़ी को खुश करने के लिए बिना किसी
न्यायिक जाँच के पिता व पुत्र दोनों को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। बाप-बेटे
दोनों को जेल की अलग-अलग कोठड़ियों में रखा गया। इस्लामी कानून का उस समय यह हाल था
कि गैर-मुस्लिम लोगों को सरकार की तरफ से न्याय मिलने की कोई आशा नहीं होती थी। उन
लोगों का जीवन सुरक्षित रह सकता था जो अपने सम्प्रदाय को तिलाजँलि देकर मुसलमान बनना
स्वीकार कर लें। विशेषकर सिक्खों को तो सत्ताधरियों ने विद्रोही घोषित कर रखा था।
इनका नगरों में जीना वैसे भी दूभर हो चुका था, ऐसे में इन्साफ की आशा रखना व्यर्थ
था। काज़ी के बहकाने पर याहिया खान ने पिता व पुत्र को इस्लाम कबूल करने को कहा,
अन्यथा मृत्युदण्ड सुना दिया। कालकोठड़ी में बन्द दोनों पिता-पुत्र को यातनाएँ दी गई
और उन पर दबाव डाला गया कि वे इस्लाम कबूल कर लें परन्तु उन दोनों का विश्वास बहुत
दृढ़ था, वे विचललित नहीं हुए। इस पर शाहबाज सिंह को कहा गया कि तुम्हारे पिता जी की
हत्या कर दी गई है। अतः तुम इस्लाम स्वीकार कर लो और अपना जीवन सुरक्षित कर लो, क्यों
व्यर्थ में अपनी जवानी गँवाता है ? उधर सुबेग सिंह से कहते, देख ! तेरे पुत्र ने
मुसलमान बनना परवान कर लिया है, अब तू जिद्द न कर और हमारी बात मान ले, तुम्हें सभी
प्रकार की सरकारी सुख सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाएँगी। परन्तु वे दोनों इस झूठे
प्रचार से नहीं डगमगाए और दोनों ने एक-दूसरे की श्रद्धा भक्ति पर अटूट विश्वास
दर्शाया। इस प्रकार उनकी कई प्रकार से कड़ी परीक्षाएँ ली गईं, परन्तु वे दोनों हर
परीक्षा में सफल ही रहे। अन्त में शाही काज़ी ने चरखियों पर चढ़ाकर हत्या कर देने का
फतवा (निर्णय) सुनाया। पिता व पुत्र को, दो पहियों वाली तेज़ की हुई टेढ़ी कटारों से
जड़ी हुई दो चरखियों के सामने खड़ा कर दिया गया। फिर उनसे पूछा गया कि अब भी समय है
इस्लाम स्वीकार कर लो, नहीं तो बोटी-बोटी नोच ली जाएगी। परन्तु गुरू के लाल टस से
मस न हुए, उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देनी स्वीकार कर ली परन्तु अपनी सिक्खी
शान को दाग लगाने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर उनको चरखियों पर जोर से बाँध दिया
गया और चरखियों को घुमाया गया। तेज कटारों ने सिंघों के तन चीरने प्रारम्भ कर दिए।
शरीरों में से खून की धाराएँ बहने लगीं। सिंघों ने गुरूबाणी का सहारा लिया और
गुरूवाणी पढ़ते-पढ़ते नश्वर देह त्यागकर गुरू चरणों में जा विराजे। लाहौर की जनता में
सरदार सुबेग सिंह बहुत सम्मानित और प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे, इनकी शहीदी की
घटना जँगल में आग की तरह चारों ओर फैल गई, यह समाचार दल खालसा के जत्थों में पहुँचा
तो वह जवान उग्र रूप धारण कर बैठे, उन्होंने उस काण्ड का बदला लेने की योजना बनाई
उन्होंने गोरिल्ला युद्ध का सहारा लेते हुए एक दिन अकस्मात् काज़ी के घर पर छापा मारा
और उसे सदा की नींद सुलाकर वनों को लौट गए।
शहीदी के समय शाहबाज सिंघ की आयु 18 वर्ष थी।