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2. शहीद भाई मनी सिंघ साहिब जी

धर्म रक्षा हेतु भाई मनी सिंघ जी द्वारा अपने प्राणों की आहुति

भाई मनी सिंह जी सिक्ख इतिहास में एक पूज्य व्यक्ति हैं। आपका जन्म सन् 1644 को गाँव अलीपुर, जिला मुजफरगढ़ (पश्चिमी पाकिस्तान) में हुआ था। आपकी माता का नाम मघरी बाई और पिता का नाम माई दास था। आपके दादा भाई बल्लू जी छठे गुरू, श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब के समय पर तुर्कों से युद्ध करते हुए 1634 को अमृतसर में शहीद हो गए। भाई माई दास जी के 12 बेटे थे इनमें से केवल एक को छोड़कर बाकी, 11 ने शहीदी प्राप्त की। जब भाई मनी सिंह की आयु 13 साल की हुई तो उनके पिता भाई माई दास उन्हें संग लेकर सांतवें गुरू हरिराय साहिब के पास दर्शन के लिए कीरतपुर साहिब आये। 15 वर्ष की आयु में मनी सिंघ का विवाह भाई लखी राय की सुपुत्री बीबी सीतो जी से हुआ। ये भाई लखी राय जी वही थे, जिन्होंने श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के पवित्र घड़ का सँस्कार अपने घर जाकर किया था। सातवें गुरू, हरिराय साहिब के ज्योति में विलीन होने के बाद आप गुरू हरिकिशन साहिब की सेवा में लगे रहे। गुरू हरिकिशन साहिब के दिल्ली में ज्योति में विलीन हो जाने के उपरान्त आप बकाले गाँव में श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी की सेवा में आ गए। श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी जब पूर्वी क्षेत्रों के प्रचारक दौरे से वापिस श्री आनंदपुर साहिब जी पहुँचे तो भाई मनी सिंह भी वहीं पर आ गए। यहाँ पर आपने गुरबाणी की पोथियों की नकलें उतारने व उतरवाने की सेवा को सम्भाला। 1699 की बैसाखी वाले दिन श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी द्वारा खालसा पँथ की स्थापना की गई। इस अवसर पर भाई मनी सिंघ जी ने अपने भाईयों तथा पुत्रों सहित अमृतपान किया। आपका नाम मनिये से भाई मनी सिंघ हो गया। श्री आनंदपुर साहिब जी के पहले युद्ध में, जिसमें पहाड़ी राजाओं ने हाथी को शराब पिलाकर किले का दरवाजा तोड़ने के लिए भेजा था, उसका मुकाबला भाई मनी सिंह के सुपुत्रोः भाई बचित्र सिंह और भाई उदै सिंह ने किया था। जब गुरू गोबिन्द सिंह जी ने श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ा तो भाई मनी सिंह जी गुरू जी की स्त्रियों (पत्नियों), माता सुन्दर कौर जी तथा माता साहिब कौर जी को दिल्ली पहुँचाने में सफल हुए।

मुक्तसर के युद्ध के पश्चात् जब श्री गुरू गोबिन्द सिंह साहिब जी साबो की तलवँडी (बठिण्डा) पहुँचे तो भाई मनी सिंह जी, गुरू जी की पत्नियों और संगत को लेकर वहाँ हाजिर हुए। वहीं पर गुरू जी ने श्री दमदमी बीड़ साहिब जी आप से लिखवाई। बाबा बंदा सिंह बहादर जी की शहीदी के बाद श्रद्धावश कई सिंघों ने बाबा बंदा जी को मानना शुरू कर दिया था। वे अपने आपको बंदई खालसा कहते थे। भाई महंत सिंह खेमकरण, बंदइयों के जत्थेदार थे। बंदई एक दुसरे को मिलते समय वाहिगुरू जी का खासला वाहिगुरू जी की फतेह के स्थान पर फतेह दर्शन बोल कर अभिवादन करते थे। बंदई, अमृतसर पर कब्जा करने के लिए चल पड़े। दूसरी और वास्तविक खालसे की ओर से बाबा बिनाद सिंह के सुपुत्र बाबा काहन सिंह ने दीवाली पर सिक्खों को एकत्रित करने की आज्ञा हुकुमत से पहले ली ले ली थी। दोनों गुट श्री अमृतसर साहिब जी पहुँचे और अपने-अपने को असली वारिस और प्रबन्धक साबित करने के लिए एक-दूसरे को मरने मारने तक तैयार हो गए। सिख संगत ने दोनों गुटों को इस नाजूक समय में झगड़ा न करने की बात मनवा ली, क्योंकि काफी समय बाद सिक्ख आपस में मिलकर बैठे थे। ये मुगल हुकुमत की भी चाल लगती थी कि ये आपस में झगड़ कर मर जाएँगे। इसलिए एकत्रित करने की आज्ञा भी दे दी गई थी। दीवाली तो आराम से निकल गई पर जजबात भड़क उठे। इसके लिए किसी स्थाई हल की आवश्यकता थी। दीवाली के बाद सिक्खों ने माता सुन्दर जी को सभी खतरों से अवगत कराया। माता सुन्दर जी ने दूरदृष्टि से काम लेते हुए, भाई मनी सिंह जी को श्री अमृतसर साहिब जी का इंचार्ज बनाकर भेजा और साथ ही उन्हें मुख्यग्रँथी भी नियुक्त किया गया। श्री अमृतसर साहिब जी आकर भाई मनी जी ने सारी स्थिति का मूल्याँकन किया। पहले तो सेवा सम्भाल का प्रबन्ध ठीक किया। मर्यादा कायम की। बैसाखी पर समूचे खालसा पँथ को एकत्रित होने को कहा।

भाई मनी जी ने देख लिया कि किसी हल की आवश्यकता है, वरना सारा लावा फूट का, पँथ के खड़े महल को उधेड़ देगा। अकाल बुँगे पर वास्तविक खालसा के जत्थेदार बाबा काहन सिंह ने तथा झण्डा बुँगा पर भाई महंत सिंह खेमकरण वाले ने कब्जा कर लिया। सिक्खों में रोश उस समय बढ़ गया, जब महंत सिंह रथों पर गदेले लगाकर श्री दरबार साहिब जी तक आ गया। बैसाखी वाले दिन भाई मनी सिंह जी ने यह सुझाव दिया कि रोज-रोज के झगड़े को मिटाने के लिए, यह निश्चित करने के लिए की प्रबंध किसके हाथ में होना चाहिए और वारिस कौन है, इसके लिए हरि की पौड़ी (अमृत सरोवर) पर पर्चियाँ डाली जाएँ। दोनों दल मान गए। श्री अमृतसर साहिब जी में जी पर्चियाँ डालने तथा निकालने की डयूटी भाई मनी सिंघ जी की लगाई गई। भाई मनी सिंह जी ने दो पर्चियाँ, एक पर बंदई खालसे का जँगी नारा फतेह दर्शन और दूसरी पर वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतेह लिखकर हरि की पउड़ी, अमृतसर के सरोवर में फिकँवाईं। निर्णय हो चुका था कि जिसकी पर्ची पहले तैरकर ऊपर आ जायेगी वही प्रबंध का अधिकारी होगा। कुदरत का खेल क्या हुआ कि कुछ समय तक दोनों पर्चियां ही डुबी रहीं। सबने अरदास की। श्री अमृतसर सरोवर की ओर एक टकटकी लगाकर सम्पूर्ण खालसा देख रहा था। आखिर वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतेह वाली पर्ची ऊपर आई और तैरने लगी। इस प्रकार भाई मनी सिंघ जी की बुद्धिमानी से झगड़ा समाप्त हुआ और भाईयों के हाथों भाईयों का खून होने से बच गया। सन् 1721 से भाई मनी सिंघ जी सिक्ख कौम की अगुवाई कर रहे थे। सन् 1738 की दीवाली को भाई मनी सिंह जी ने सारे पँथ को एकत्रित करने की सोची। मुगल हुकुमत के जकरिया खान ने इस शर्त पर स्वीकृति दी कि 5,000 रूपये कर के रूप में देने होंगे। भाई मनी सिंघ जी ने इस बात को स्वीकार कर लिया, क्योंकि वो पँथ को एकत्रित करना आवश्यक समझते थे। उनका विचार था कि सब एकत्रित होंगे तो रूपये भी आ जाएँगे।

दूसरी और जकरिया खान की योजना थी की एकत्रित सम्पूर्ण खालसा को दीवाली वाली रात में घेरकर तोपों से उड़ा दिया जाए। भाई मनी सिंघ जी ने उस दीवाली के अवसर पर एकत्रित होने के विशेष हुकुमनामे भी भेजे थे। जकरिया खान की यह चाल थी कि दीवान लखपत राये को भारी फौज देकर खालसा पर हमला बोला जाए। इधर फौजें एकत्रित होते देखकर और खबर मिलने पर भाई मनी सिंह जी ने अपने सिक्खों को दौड़ाया और बाहर से आने वाले सिंघों को रास्तें में ही रोक देने का यत्न किया। परन्तु फिर भी सारे सिंघ रोके नहीं जा सके और बहुत सँख्या में एकत्रित हो गए। चाल के अनुसार लखपत राय ने हमला कर दिया। दीवान लग न सका। कई सिंघ शहीद हो गए। भाई मनी सिंह जी ने इस घटना का बड़ा रोश मनाया और हुकुमत के पास साजिश का विरोध भेजा। परन्तु जकरिया खान ने उल्टे 5,000 रूपये की माँग की। भाई मनी सिंह जी ने कहा की लोग एकत्रित तो हुए नहीं, पैसे किस बात के। भाई मनी सिंह जी हुकुमत की चाल में फँस चुके थे। उन्हें बंदी बनाकर लाहौर दरबार में पेश किया गया। जकरिया खान ने उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को कहा और जुर्माने की रकम अदा न करने की सूरत में उनका अंग-अंग जुदा करने का आदेश दिया। भाई मनी सिंह जी ने शहादत स्वीकार करते हुए कहा कि सिक्खी पर मैं कई जीवन न्यौछावर करने को तैयार हुं। काजी ने बोटी-बोटी काटने का आदेश सुनाया और उन्हें शाही किले के पास बोटी-बोटी काटने के लिए ले गए।

भाई मनी सिंह जी के कई साथियों की भी सख्त सजाएँ दी गईं। भाई मनी सिंघ जी को जब शहीद करने के लिए ले जाया गया, तो बोटी काटने वाला भाई जी का हाथ काटने लगा तो, भाई मनी सिंघ जी बोले कि अँगुली से काटना चालु कर, क्योंकि तुम्हारे आकाओं ने बोटी-बोटी काटने का आदेश दिया है। इस प्रकार भाई मनी सिंघ जी शहीद हो गए। आपकी शहीदी ने हर एक सिक्ख में गुस्से तथा जोश की लहर भर दी। इतिहास गवाह है कि सिक्ख कौम जहाँ अति उत्तम दर्जे की दयालू कौम है, वहाँ जालिमों को छोड़ती भी नहीं। जितनी भी शहीदियाँ हुई हैं, उनका बदला लिए बगैर खालसा टला नहीं है। इसलिए यह आवश्यक था कि जिन हत्यारों का भाई मनी सिंघ जी की शहीदी में हाथ था, उन्हें उनके किए की सजा दी जाए। इसलिए सबसे पहले सरदार अघड़ सिंघ (जो भाई मनी सिंह जी के भतीज थे) ने दिन दहाड़े कातिलों को मिटा दिया। परन्तु अभी भी दो बड़े हत्यारे समद खान और खान बहादुर जकरिया खान बाकी थे। प्रसिद्ध समद खान यूफसफजई करके मशहुर था, जिसने भाई मनी सिंघ जी को काफी कष्ट दिए थे। सिक्ख पँथ के महान जत्थेदार नवाब कपूर सिंघ जी के एक जत्थे से समद खान की मुठभेड़ हो गई और समद खान पकड़ा गया। उसे रस्सों से बाँधकर घोड़ों के पीछे बाँध दिया गया और घोड़ों को खूब दौड़ाया गया। इस प्रकार इस अपराधी को भी दण्ड दे दिया गया। समद खान की मौत को देखकर दूसरे अपराधी जकरिया खान को समझ आ चुकी थी कि खालसे ने एक दिन उसका भी बुरा हाला करना है। इस भय से उसने किले से बाहर निकलना बँद कर दिया। उस पापी की भी सन् 1745 में खालसे के डर से मौत हो गई।

(जकरिया खान को पेशाब आना भाई तारा सिंघ जी के श्राप के कारण बँद हो गया था। जो कि भाई तारा सिंघ जी के जूते मारने से पेशाब का बँधनमूत्र छूट रहा था और यही उसकी मौत का कारण बना।)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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