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4. पीपा जी का राज भाग को त्यागना

स्वामी रामानंद जी से भक्ति का नाम दान लेकर पीपा जी अपने शहर गगनौर चले गए। पीपा जी की विदाईगी के समय स्वामी जी ने उनसे वचन लिया कि वह अपने शहर जाकर साधू-संतों की श्रद्धा से सेवा करें तथा राम नाम का जाप करें। ऐसो करने से तुम्हारी प्रजा को सुख प्राप्त होगा तथा फिर हम तुम्हारें पास आएँगे।। तुम्हें काशी आने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारी सारी इच्छाएँ वहीं पूर्ण हो जाएँगी। पीपा जी ने उनकी आज्ञा का पालन किया तथा अपने शहर वापिस आकर साधू-संतों की सेवा आरम्भ कर दी। राजा ने सेवा इतने उत्साह तथा प्यार से की कि उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने लगी। पीपा जी जब भक्ति के लिए बैठते तो स्वामी जी को बहुत याद करते तथा निवेदन करते कि स्वामी जी एक बार दर्शन अवश्य दें। भक्त की इच्छा को पूर्ण करने के लिए स्वामी जी गगनौर शहर की और चल दिए। उनके साथ भक्त कबीर जी, भक्त रविदास जी और कुछ और चेले भी आए। जब पीपा जी को गुरू जी के आने की सूचना मिली कि स्वामी जी शहर से कुछ दूरी पर हैं तो वह बहुत उत्साह के साथ मिलने के लिए चल दिए। पीपा जी ने सारा प्रबन्ध किया तथा अपने साथ पालकी दास-दासियों और कुछ सेवा का सामान भी साथ ले लिया। पीपा जी ने सबसे पहले गुरूदेव को तथा सब संतों को प्रणाम किया। राजा पीपा ने रामानंद जी को प्रार्थना की, हे गुरूदेव आप पालकी में बैठकर महल में चलें। गुरू जी ने राजा की विनती को स्वीकार किया और उनके साथ पालकी में बैठकर राजभवन में चले गए। राजा ने गुरू जी की बहुत सेवा की, वस्त्र दिए तथा बहुत धन दौलत भेंट की। गुरू जी भी अधिक प्रसन्न हुए और पीपा जी को आर्शीवाद देकर निहाल किया। स्वामी जी जब जाने लगे तो पीपा जी ने विनती की: हे महाराज जी ! आप मुझे भी अपने साथ ले चलों। मैं राजभवन त्यागकर सन्यास लेना चाहता हूँ क्योंकि राजपाट तो अहंकार तथा भय का कारण है। स्वामी जी बोले: हे राजन ! देख लो, सन्यासी जीवन में कई प्रकार के कष्टों को सामान करना पड़ता है। अगर कष्टों का सामना करने के लिए तैयार हो तो चल पड़ो। गुरू जी ने राजा का सन्यासी होने से न रोका। पीपा जी ने अच्छे वस्त्र उतार दिए तथा एक कंबल को फाड़कर कर कफनी बनाई और गले में डाल ली। ऐसे वह राजा से फकीर बन गए। राजा ने रानियों तथा उनकी संतान को राजभाग सौंप दिया। छोटी रानी सीता के हठ करने पर वह उसके वैरागन बनाकर साथ ले गए। लोगों के विलाप करने पर भी पीपा जी नहीं माने वह क्योंकि मन से सन्यासी होने का प्रण कर चुके थे। इसलिए वह स्वामी जी के साथ चल दिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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