3. कबीरदास जी को शिष्य बनाना
भक्त रामानँद जी एक उदारवादी भक्त और एक आर्दश गुरू भी थे, उन्होंने निम्न वर्ग और
जातियों के लोगों और भक्तों को भी गुरू दिक्षा दी थी। इसी श्रेणी में भक्त कबीरदास
जी भी आते हैं। रामानंद जी ने एक गरीब और निम्न वर्ग के जुलाहे को और साथ ही वह
मुस्लमान थे, को भी गुरू दीक्षा दी थी, वो बात अलग है कि इस दीक्षा को लेने का
कबीरदास जी की ढँग बहुत ही निराला था, परन्तु अन्त में स्वामी रामानँद जी भी पुरी
काशी के जाने-माने ब्राहम्णों, पूरे समाज और अनगिनत लोगों के सामने मान गए थे कि
कबीरदास मेरा चेला है, मेरा बेटा है और मैंने उसे गुरू दीक्षा दी है। आइऐ इस घटना
का जिक्र करते हैः उन्नीसवीं सदी से पहले हर किसी के लिए गुरू बनाना जरूरी समझा जाता
था। जो गुरू ना धारण करे वो निगुरा होता और उसके हाथ से दान कोई नहीं लेता, निगुरे
के हाथों कोई पानी नहीं पीता था। कबीर जी राम नाम के सिमरन में तो लग गए परन्तु अभी
तक उन्होंने भजन और विद्या का गुरू किसी को धारण नहीं किया था। वह घर के कार्य करते।
किसी न किसी से अक्षर भी पढ़ लेते। जनम जाति नीची होने के कारण, ब्राहम्ण कोई भक्त
या किसी पाठशाला का पण्डित उसको अपना चेला नहीं बनाता था। राम नाम के सिमरन ने उनके
मन की आँखें खोल दी थीं। उनको ज्ञान बहुत हो गया था। 15-16 साल की उम्र में वह कई
विद्वान पण्डितों से ज्यादा सूझबूझ रखते थे। आप बाणी उचारते और उचारी हुई बाणी को
भजनों के रूप में गाते थे। कबीर जी ने एक स्याने पुरूष से हाथ जोड़कर पूछा कि, हे
बुजूर्ग ! बताओ मैं कैसे इस मन को, दिल को शान्त करूँ ? मेरा मन हरी के दर्शन के
लिए व्याकुल है। तब उस महापुरूष ने उत्तर दिया, कबीर ! परमात्मा के दर्शन तो गुरू
ही करवा सकता है। अब कबीर जी ने फैसला लिया कि अब तो गुरू को ढूँढना ही होगा, जो
मुझे हरी के दर्शन करवा सके। उस समय बनारस में बहुत सारे भक्त थे पर सबसे प्रसिद्ध
भक्त गुरू स्वामी रामानँद जी थे। इनकी शोभा, भक्ति और विद्यवता बनारस के बाहर भी
सुगँधी की तरह बिखरी हुई थी। इनके सैंकड़ों चेले थे। बहुत विद्या का प्रचार होता था।
वो हमेशा एक ही शब्द कहते थे: बेटा राम कहो। कबीर जी को कपड़े बुनना अब अच्छा नहीं
लग रहा था। वो साधू बिरती वाले हो गये थे। वो रात दिन गुरू जी तलाश करने लगे। गुरू
धारण किए बिना वो साधू समाज में नहीं बैठ सकते थे। वो कई भक्तों के पास और साधू
मण्डलियों में गए पर किसी ने हाँ नहीं की। इन्सान को इन्सान नहीं समझा जाता था। चार
वर्ण के कारण तिरस्कार ही मिलता था। हर कोई कहता कि तेरा जन्म मुस्लमान और नीच जाति
के घर हुआ है। तूँ दीक्षा प्राप्त करने का अधिकारी नहीं। यह सुनकर कबीर जी निराश
होकर वापिस आ जाते। राम नाम ही उनके लिए एक भरोसा था।
स्वामी रामानँद जी अमृत समय (ब्रहम समय) में गँगा स्नान को जाया
करते थे। जब वह स्नान करके बाहर निकलते थे तो आसमान पर तारे टिमटिमाते होते थे। गँगा
स्नान उनके लिए जरूरी कर्म था। कबीर जी को एक विचार आया कि क्यों न वह उस रास्ते पर
लेट जाया करें जिस रास्ते पर स्वामी रामानँद जी स्नान करके निकलते हैं ? कभी न कभी
जरूर उनके चरणों की धूल प्राप्त हो जाएगी। उपरोक्त विचार से आत्मिक खुराक को खोजने
के लिए गुरू धारण करने की लग्न के साथ कबीर जी तड़के ही गँगा किनारे जाने लगे। जिस
रास्ते पर रामानँद जी निकलते थे। उस रास्ते पर गँगा की सीड़ियों पर लेटने लगे। कई
दिन तक लेटते रहे पर मेल नहीं हुआ। किन्तु सब्र, सन्तोष की महान शक्ति होती है। जो
सब्र के साथ किसी कार्य को करते हैं वह सम्पूर्ण होता है। कबीर जी का सब्र देखकर एक
दिन परमात्मा ने कृपा दृष्टि कर दी और स्वामी रामानँद जी के चरणों को उस और मोड़ दिया
जिस तरफ कबीर जी लेटे हुए थे और दिल में राम नाम का जाप कर रहे थे। स्वामी जी भी
राम नाम का सिमरन करते हुए लेटे हुए कबीर जी के शरीर से टकराए। स्वामी जी ने बचन
किया: उठो ! राम कहो ! यह सुनकर कबीर जी ने उनके चरणों पर अपना माथा रख दिया और
काँपते हाथों से उनके चरण पकड़ लिए। स्वामी जी ने झुककर उन्हें कन्धों से पकड़कर कहा:
उठो बेटा ! राम कहो। कबीर जी निहाल हो गये। स्वामी जी आगे चल पड़े और उनके पीछे-पीछे
राम नाम का सिमरन करते हुए कबीर जी भी अपने घर आ गए। उनके दिल का कमल खिल गया था और
चेहरे पर निराली चमक आ गई थी। ऐसा नूर जो तपते हुए दिलों को शान्त करने वाला, मूर्दों
को जीवन दान देने वाला और भटके जीवों को भव सागर से तारने वाला था।
उपरोक्त घटना को भाई गुरदास जी ने इस प्रकार ब्यान किया है:
होइ बिरकतु बनारसी रहिंदा रामानंदु गुसाईं ।।
अंमृतु वेले उठि कै जांदा गँगा नाहवण ताईं ।।
अगे ही ऐ जाइ कै लंमा पिआ कबीर तिथाईं ।।
पैरी टुंब उठालिआ बोलहन राम सिख समझाई ।।
जिउ लोहा पारसु छुहे चंदन वासु निंमु महिकाई ।।
पसू परेतहु देअ कहि पूरे सतिगुरू दी वडिआई ।।
अचरज नो अचरज मिले विसमादै विसमादु मिलाई ।।
झरणा झरदा निबरहु गुरमुखि बाणी अघड़ घड़ाई ।।
राम कबीरै भेदु न भाई ।। 15 ।। (वार 10)
उपरोक्त बाणी का भाव स्पष्ट है। अंतिम तुक का भाव है कि जैसे ही
कबीर जी ने रामानँद जी के पाँव छूए वैसे ही कबीर जी को भक्ति की असली रगत जुड़ गई।
जैसे लोहे को पारस से छूवा दो तो वह कँचन हो जाता है वैसे ही राम और कबीर में कोई
फर्क नहीं रहा। राम नाम के असर से अमृत बूँद तैयार होने लगी। उस बूँद के असर से
कबीर जी नाच उठे। हुकुमत, इस्लाम और समाज का डर न रहा। रूह आजाद हो गई। वह ऊँची-ऊँची
आवाज में गाने लगे:
कबीर पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ।।
साधूओं, ब्राहम्णों, जोगीयों, जागीरदारों और मस्जिदों के काजीओं
ने देखा कि एक नीची जाति के जुलाहे नीरो का बेटा कबीर सचमुच ही कबीर (बड़ा) बन गया
है। वह भक्त बनकर काशी की गलियों में राम धुन गाता जा रहा है। वह मन्दिरों, आश्रमों
ओर पाठशालाओं के आगे से भी निकले। गँगा किनारे गए। सारा दिन फिरते रहे। शहर के हर
घर में चर्चा होने लगी। किसी ने अच्छा कहा, किसी ने बूरा। बड़े-बड़े भक्त और ब्राहम्ण
एक दूसरे से पूछने लगे: क्यों ! कबीर जी का गुरू कौन है ? किसने इस मलेछ को शिक्षा
दी या फिर निगुरा ही फिर रहा है ? इन सवालों को उत्तर किसी को भी नहीं मिला। रात
बीत गई। अगला दिन चड़ा। कबीर जी फिर उसी प्रकार घर से बाहर निकल पड़े। रास्ते में
साधूओं ने रोक कर पूछा: कबीर ! तेरा गुरू कौन है ? कबीर जी ने कहा: महाश्य जी ! मेरा
गुरू, स्वामी रामानँद गोसाँईं। उत्तर सुनकर सभी चौंक गये। स्वामी रामानँद जी कबीर
जी के गुरू हैं, यह बात पूरी काशी में जँगल की आग की तरह फैल गई। बस फिर क्या था,
कई जाति का अभिमान करने वाले सारे बन्दे स्वामी जी के पास गए और बोले, महाराज ! ये
आपने क्या किया एक नीची जाति वाले जुलाहे कबीर को दीक्षा दे दी। स्वामी जी यह सुनकर
कर सोच में पढ़ गये कि उन्होंने कबीर जी को कब दीक्षा दी। उन्हें कुछ भी याद नहीं आया।
वो बहुत की प्रेममयी बाणी में बोले: हे भक्त जनों मैंने किसी कबीर को धर्म-दीक्षा
नहीं दी। पता नहीं भगवान की माया क्या है ? मेरा राम ही जाने ? साधू क्रोधवान होकर
बोले: तो क्या कबीर लोगों से झूठ कह रहा है। तब स्वामी रामानँद जी ने उत्तर दिया:
कि कबीर जी को यहीं ले आओ, वो ही सारा भेद ब्यान कर देंगे। सभी बोले: जरूर ही कबीर
जी को यहाँ बुलाना चाहिए, सारे शहर में बहुत चर्चा है। स्वामी जी ने अँत में बोला:
ले आओ ! वो सभी गए और एक घण्टे के भीतर ही उन्हें अपने साथ ले आए। कबीर जी अपने गुरू
के पास जाते हुए बहुत ही खुश थे, वो सोच रहे थे कि इस प्रकार उन्हें अपने गुरू जी
के खुले दर्शन हो जायेंगे। कबीर जी को पकड़ा हुआ देखकर लोग एकत्रित हो गए। सभी
श्रद्धालू पीछे-पीछे चल पड़े। कुछ लोग तो वो थे जो केवल तमाशा देखने आए हुए थे।
स्वामी जी के आश्रम में कबीर जी पहुँच गए। आश्रम में बहुत रौनक थी उनके सारे चेले
और शहरवासी आए हुए थे। जो कबीर जी के साथ आए थे वो भी एक तरफ होकर बैठ गए। कबीर जी
ने स्वामी जी को जाते ही माथा टेका और उनके सामने जाकर खड़े हो गये। स्वामी रामानँद
जी ने कबीर जी से पहला सवाल किया: हे राम भक्त ! तेरा गुरू कौन है ? कबीर जी ने
आनँदमग्न चेहरे से उत्तर दिया: मेरे गुरू ! स्वामी रामानँद जी। यह सुनकर सभी हैरान
हुये। पण्डितों और साधूओं के चेहरे पर गुस्सा आया, पर बोल कुछ ना सके। स्वामी
रामानँद जी: मैंने तो तुम्हें कभी दीक्षा नहीं दी। कबीर जी हाथ जोड़कर नम्रता से बोले:
गुरूदेव ! यह सही है कि आपने मुझे चेलों में बिठकार दीक्षा नहीं दी और ना ही दे सकते
थे, क्योंकि इसकी आज्ञा ब्राहम्ण और साधू समाज कभी भी नहीं देता। फिर भी मैं आपका
चेला बन गया। राम जी ने सँजोग लिखा था।
स्वामी रामानँद जी: वो कैसे ? कबीर जी: मैंने नीच जाति
में जन्म लिया। जाति नीच है या उत्तम उसका पूरा पता जाति का रचनहार परमात्मा जाने,
पर मुझे राम भजन करने की लग्न जन्म से ही है। मैं राम नाम का सिमरन करता था परन्तु
मुझे बताया गया था कि गुरू के बिना गती नहीं हो सकती। गुरू धारण करना जरूरी है पर
काशी नगरी मैं मुझे कोई भी अपना चेला बनाने को तैयार नहीं हुआ था। मैंने आखिर में
गँगा की सीढ़ियों लेट गया और आपके चरणों की धूल प्राप्त की। आपने कहा– उठो राम कहो !
मैं राम कहने लग गया। बस यही है मेरे गुरू धारण करने की कथा। ब्रहमज्ञानी,
दिव्यदृष्टिमान स्वामी रामानँद जी, ब्रहम विद्या के बल पर सब कुछ जान गए। उन्होंने
कबीर जी की आँखो में तीन लोक देखे। परमात्मा की माया देखी। वह विस्माद में गुम हो
गए। आत्मिक जीवन के जिस पड़ाव पर कबीर जी पहुँचे थे, वहाँ पर कोई तिलकधारी पण्डित नहीं
पहुँच सकता। पाखण्डी साधू और ब्राहम्ण, जात अभिमान के कारण नरक जीवन भोगने के भागी
थे। ये पण्डित ईर्ष्या, निंदा और बड़े-छोटे, नीच-ऊँच आदि के खेल में उलझे रहते थे।
राम सिमरन का ज्ञान उनको जरूर था पर वह व्यवहारिक तौर पर नहीं था और उसे अमल में नहीं
लाते थे। स्वामी रामानँद जी मस्त होकर कहने लगे: कबीर मेरा बेटा है ! मेरा चेला है
! इसमें और राम में कोई भेद नहीं। मैं खुश हूँ ऐसे चेले को पाकर। बस मेरे जीवन की
सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो गईं। स्वामी रामानंद जी की बात सुनकर सभी पण्डित, स्वर्ण
जाति के, साधू और चौधरी छटपटाने लगे, पर कर कुछ नहीं सके, क्योंकि वह सब स्वामी
रामानँद जी की आत्मिक शक्ति को जानते थे। स्वामी रामानंद जी ने कबीर जी से कहा: ओ
राम के कबीरे ! जाओ राम कहो ! तेरा राम राखा। कबीर जी खुश हो गये। वो आलोकिक आनँद
से कुदने लगे। उन्होंने तुरन्त भागकर स्वामी जी के चरणों में अपना माथा टेका। सभी
लोग हैरान थे।