4. ब्राहम्णों को ज्ञान देना
भक्त बेणी जी आप ब्राहम्ण थे। वह एक सूरमा ही हो सकता है जो कि आप भी ब्राहम्ण हो
और ब्राहम्णों के करमकांडों का इस प्रकार से खूले रूप में विरोध। यह विरोध इसलिए
क्योंकि वह सभी को एक परमात्मा के नाम के साथ जोड़ना चाहते थे। इस सूरमें भक्त की
दिलेरी ही थी कि जिसने श्री गुरू नानक देव पातशाह के दिल में खींच दी और पहली उदासी
के दौरान वो भक्त बेणी जी की बाणी लेकर आए और अपनी बाणी के साथ सम्भालकर रखी। एक
समय की बात है भक्त बेणी जी जो कि आप भी ब्राहम्ण थे अपने नगर के मन्दिर के पास से
निकल रहे थे। तभी उन्हें मन्दिर के पूजारी जो कि वहाँ का मुख्य पूजारी था, उसने
रास्ता रोक लिया। और उनसे बहसबाजी करने लगा: कि तुम कैसे ब्राहम्ण हो जो कभी भी पूजा
आदि नहीं करते और केवल एक परमात्मा के नाम को जपने की शिक्षा देते रहते हो। तुम एक
काम करो तुम्हें में एक मन्दिर को सम्भालने की सेवा दे देता हूँ। तुम जो भी चढ़ावा
आएगा वह अपने घर ले जाया करो तुम भी खुश और तुम्हारी पत्नी और बच्चे भी खुश हो
जाएँगे। तुम हमारी बात मान जाओगे तो हमेशा सुखी जीवन व्यतीत करोगे। इस प्रकार से
तुम एक नाम का ढिंढोरा पिटोगे तो हमारे व्यवसाय पर बूरा असर पड़ेगा। वहाँ पर ओर भी
ब्राहम्ण और लोगों की भीड़ लग गई। अब बहसबाजी होने लगी। सभी ब्राहम्णों ने कहा कि यह
तुम ठीक नहीं कर रहे हो। जो प्राचीनकाल से चला आ रहा है वो ही होगा। भक्त बेणी जी
ने कहाः यह फोकट कर्म और कर्मकाण्ड करने से कोई लाभ नही है। ब्राहम्णः किन्तु इससे
आपकी आजीविका भी चलेगी। भक्त बेणी जी ने कहाः हमारी आजीविका तो परमात्मा चला रहा है
और हमारी ही क्यों पुरे सँसार की आजीविका तो परमात्मा आप ही चलाता है। ब्राहम्ण बोलेः
इस प्रकार से तो हमारा धँधा चौपट हो जाएगा। भक्त बेणी जी ने कहाः आप भी यह
कर्मकाण्ड छोड़ दो इसमें आपका पुरा जीवन नष्ट हो जाएगा और अंत में कुछ भी प्राप्त नहीं
होगा। ब्राहम्णः एक ब्राहम्ण का काम पूजा करना है और दक्षिणा लेना है। भक्त बेणी
जीः मूर्ति पूजा करना और लोगों से भी करवाना, यह सब मुझसे नही होगा। ब्राहम्णः तुम
हमारे मत के खिलाफ जा रहे हो। भक्त बेणी जी ने कहाः क्या परमात्मा का नाम जपना और
जपवाना किसी मत के खिलाफ है। अब सभी ब्रहाम्ण खामोश हो गए, तब भक्त बेणी जी ने बाणी
उच्चारण की, जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी के अंग 1351 पर दर्ज हैः
तनि चंदनु मसतकि पाती ॥ रिद अंतरि कर तल काती ॥
ठग दिसटि बगा लिव लागा ॥ देखि बैसनो प्रान मुख भागा ॥१॥
कलि भगवत बंद चिरांमं ॥ क्रूर दिसटि रता निसि बादं ॥१॥ रहाउ ॥
नितप्रति इसनानु सरीरं ॥ दुइ धोती करम मुखि खीरं ॥
रिदै छुरी संधिआनी ॥ पर दरबु हिरन की बानी ॥२॥
सिल पूजसि चक्र गणेसं ॥ निसि जागसि भगति प्रवेसं ॥
पग नाचसि चितु अक्रमं ॥ ए ल्मपट नाच अधरमं ॥३॥
म्रिग आसणु तुलसी माला ॥ कर ऊजल तिलकु कपाला ॥
रिदै कूड़ु कंठि रुद्राखं ॥ रे ल्मपट क्रिसनु अभाखं ॥४॥
जिनि आतम ततु न चीन्हिआ ॥ सभ फोकट धरम अबीनिआ ॥
कहु बेणी गुरमुखि धिआवै ॥ बिनु सतिगुर बाट न पावै ॥५॥१॥
अर्थः (हे वैष्नों मनुष्य, तूँ वैसे तो कलयुगी स्वभाव में
सँलग्न हैं। पर मूर्ति को चिर तक नमस्कार करता है, तेरी नजर टेड़ी है। तेरी निगाह
में खोट है। दिन रात तूँ माया के धँधों में मस्त है। तेरा इस मूर्ति की वन्दना का
क्या अर्थ। हे लम्पट ! तूँ शरीर पर चंदन का लेप करता है, माथे पर तुलसी के पत्ते
लगाता है, पर तेरे दिल में ऐसा कुछ हो रहा है जैसे तूने हाथों में कैंची पकड़ी है,
तेरी निगाह ठगों वाली है और तूने बगलों जैसी समाधि लगाई हुई है। देखने मैं तो तूँ
वैष्नों प्रतीत होता है, भाव देखने मैं तो तूँ दयावान प्रतीत होता है। हे वैष्नों
मनुष्य ! रोज तूँ अपने शरीर को स्नान करवाता है, दो पोथियाँ रखता है, रोज करमकांड
भी करता है, दुधाधारी बना हुआ है, पर अपने दिल में तूँ छूरी कस कर रखता है। तूझे
पराया धन ठगने की आदत लगी हुई है। हे लम्पट ! तू सिला और पत्थर पूजता है। अपने शरीर
पर तूनें गणेश देवता के निशान बनाए हुए हैं। रात को रासों में जागता भी है, वहाँ पर
पैरों से तूँ नाचता भी है, पर तेरा चित बूरे कामों में भी मग्न रहता है। हे लम्पट !
यह कोई धर्म का काम नहीं है। हे वैष्णो मनुष्य ! पूजा और पाठ के समय तूँ हिरन की
खाल का आसन प्रयोग करता है, तुलसी की माला तेरे पास है, साफ हाथों से तूँ माथे पर
तिलक लगाता है, गलें में तूनें रूद्राक्ष की माला पहनी हुई है। पर तेरे दिल में ठगी
है। हे लम्पट ! इस तरह तूँ हरी को सिमर रहा है। हे बेणी ! यह बात सच है कि जिस
मनुष्य ने आत्मा की असलीयत को नही पहचाना, उस अँधे के सारे धर्म-कर्म फीके हैं। वो
ही मनुष्य सिमरन करता है जो गुरू के सनमुख होता है, गुरू के बिना जिन्दगी को सही
रास्ता नहीं मिलता।)