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3. माया के भ्रम से निकालना

एक बार भक्त बेणी जी एकान्त में प्रभु की भक्ति करने के लिए जा रहे थे, (भक्त बेणी जी एकान्त में प्रभु की भक्ति करते थे, किसी पर जाहिर नहीं करते थे) वो गरीब ब्राहम्ण थे और उनके पास ढँग के कपड़े नहीं थे और वे भी मैले-कुचेले थे। भक्त बेणी जी अभी बैठे ही थे कि तभी उनके पास से एक धनी व्यक्ति निकला और उन्होंने भक्त बेणी जी को भक्ति में लीन पाया तो वह उनके समीप गया। वह धनी व्यक्ति बोलाः आपको भक्ति का क्या लाभ। वह परमात्मा तो आपको कुछ देता ही नहीं है, ऐसा लगता है। भक्त बेणी जी बोलेः सज्जन ! वह परमात्मा तो हमें जो चाहिए होता है घर ही भेज देता है ? धनी व्यक्ति बोलाः भक्त जी ! किन्तु आपकी दशा देखकर तो ऐसा नहीं लगता। भक्त बेणी जीः सज्जन ! दशा पर मत जाओ, दिशा पर जाओ। हमारी दिशा कौनसी है, और तुम्हारी दिशा कौनसी है ? धनी व्यक्ति बोलाः भक्त जी ! हमारी तो दशा भी ठीक है और दिशा भी ठीक है ? भक्त बेणी जीः सज्जन ! तुम्हारी दशा दुनियावी रूप से भले ही ठीक हो, परन्तु जैसा तुम कह रहे हो कि तुम्हारी दिशा भी ठीक है तो तुम इस मामले में सही नहीं हो। धनी व्यक्ति हैरान होकर बोलाः भक्त जी ! इस दिशा से आपका क्या तात्पर्य है ? (इतने में वहाँ पर रास्ते से निकलते एक राहगीरों को टोला भी आ गया और वहीं जमकर बैठ गया।) भक्त बेणी जीः सज्जन ! हमारी दिशा तो केवल एक परमात्मा की और है, लेकिन तुम्हारी दिशा तो केवल माया की ही तरफ है, तुम परमात्मा का नाम भूल चुके हो। धनी व्यक्ति बोलाः भक्त जी ! यह माया से आपका क्या तात्पर्य है ? भक्त बेणी जीः सज्जन ! सभी प्रकार की वस्तुएँ, धन सम्पदा आदि माया ही तो है, जिसने तुम्हारी दिशा को विपरीत कर दिया है और माया ही क्यों तुम्हारी तो मोह ने भी दिशा को बिगाड़कर रख दिया है। धनी व्यक्ति परेशान होकर बोलाः भक्त जी ! अब ये मोह क्या है ? भक्त बेणी जीः सज्जन ! सभी प्रकार के रिशते नाते, पुत्र, पत्नी, पुत्री, माता-पिता आदि ही तो मोह का कारण बनते हैं जो यहीं पर ही रह जाएँगे। फिर मोह ही क्यों तुम्हारी तो पाँचों ने नींद हराम की हुई है ? धनी व्यक्ति बोलाः भक्त जी ! पाँच कौन ? भक्त बेणी जीः सज्जन ! काम, क्रोध, लोभ मोह और अहँकार। इन पाँचों ने तुम्हें लूट लिया है। तुम अपने धन का, अपनी सन्तान का अहँकार करते हो, तभी तो तुमने हमसे पुछा कि तुम्हें परमात्मा की भक्ति करने के क्या मिलता है। अपने धन का लालच और अहँकार त्यागो और किसी पूर्ण गुरू से आध्यात्मिक शिक्षा लो, नहीं तो जीवन व्यर्थ चला जाएगा। अभी कुछ जवानी बाकी है तो उसे प्रभु भक्ति में लगाओं अन्यथा बाद में समय हाथ में नहीं आने वाला, क्योंकि बुढ़ापे में तो अपने आप का नहीं सुझता तो परमात्मा का नाम कहाँ से लोगे। अभी जो पुत्र, पत्नी और पुत्री धन के कारण तुमसे चिपके हुए हैं, वही तुम्हारे बुढ़ापे में तुम्हारी नहीं सुनेंगे। धनी व्यक्ति बोलाः भक्त जी ! इस माया से छुटकारा पाने का उपाय बताइऐ ? भक्त बेणी जी ने सभी को समझाने के लिए बाणी उच्चारण की जो कि श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंग 93 पर अंकित हैः

रे नर गरभ कुंडल जब आछत उरध धिआन लिव लागा ॥
मिरतक पिंडि पद मद ना अहिनिसि एकु अगिआन सु नागा ॥
ते दिन समलु कसट महा दुख अब चितु अधिक पसारिआ ॥
गरभ छोडि म्रित मंडल आइआ तउ नरहरि मनहु बिसारिआ ॥१॥
फिरि पछुतावहिगा मूड़िआ तूं कवन कुमति भ्रमि लागा ॥
चेति रामु नाही जम पुरि जाहिगा जनु बिचरै अनराधा ॥१॥ रहाउ ॥
बाल बिनोद चिंद रस लागा खिनु खिनु मोहि बिआपै ॥
रसु मिसु मेधु अमृतु बिखु चाखी तउ पंच प्रगट संतापै ॥
जपु तपु संजमु छोडि सुक्रित मति राम नामु न अराधिआ ॥
उछलिआ कामु काल मति लागी तउ आनि सकति गलि बांधिआ ॥२॥
तरुण तेजु पर त्रिअ मुखु जोहहि सरु अपसरु न पछाणिआ ॥
उनमत कामि महा बिखु भूलै पापु पुंनु न पछानिआ ॥
सुत स्मपति देखि इहु मनु गरबिआ रामु रिदै ते खोइआ ॥
अवर मरत माइआ मनु तोले तउ भग मुखि जनमु विगोइआ ॥३॥
पुंडर केस कुसम ते धउले सपत पाताल की बाणी ॥
लोचन स्रमहि बुधि बल नाठी ता कामु पवसि माधाणी ॥
ता ते बिखै भई मति पावसि काइआ कमलु कुमलाणा ॥
अवगति बाणि छोडि म्रित मंडलि तउ पाछै पछुताणा ॥४॥
निकुटी देह देखि धुनि उपजै मान करत नही बूझै ॥
लालचु करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥
थाका तेजु उडिआ मनु पंखी घरि आंगनि न सुखाई ॥
बेणी कहै सुनहु रे भगतहु मरन मुकति किनि पाई ॥५॥

अर्थः (हे मनुष्य ! जब तूँ माँ के पेट में था तब तेरी सुरति परमात्मा के ध्यान में टिकी हुई थी। शरीर के अस्तित्व का अहँकार नहीं था। दिन-रात एक प्रभु को सिमरता था। तेरे अन्दर अज्ञान का अणहोंद था। हे मनुष्य ! वो दिन याद कर, जब बड़े दुख और तकलीफें थीं। पर अब अपने मन को दुनियाँ के जँजालों में फँसा रखा है। माँ का पेट छोड़कर तूनें अपने निरँकार को भुला दिया है। हे मनुष्य तूँ कौनसी मत और कौनसे भुलेखे में लगा हुआ है। समय हाथ से गवाँकर फिर हाथ ही मलता रह जाएगा। प्रभु का सिमरन कर नहीं तो सीधे जमपूरी में जाएगा और फिर जन्म का कारण बनेगा। तँ ऐसे फिरता है, जैसे कोई अमोड़, मूड़ आदमी घूमता है। पहले तो तूँ बालपन के खेलों में लगा रहा और सदा इन्हीं में मन रमाए रखा। तूने माया के रूप को रसादिक अमृत समझकर चखा। तभी तूझे पाँचों विकार खूले तौर पर सता रहे हैं। जप, तप सँजम और पुण्य कर्म करने वाली सीख को तूने छोड़ दिया है। परमात्मा का नाम नहीं जपता तेरे अन्दर काम वासना जौरों पर है। बूरे कामों में तेरी बुद्धि लगी हुर्ह है। कामातुर होकर तूने स्त्री लाकर उसे गले लगा लिया है और परमात्मा को भूल गया है। तेरे अन्दर जवानी का जोश है पराई स्त्रियों के मुँह तकता है। कभी समझता ही नहीं है। हे काम में मस्त होए हुए ! हे प्रबल माया में भूले हुए ! तूझे यह समझ नहीं कि पाप क्या है और पुण्य क्या है। पुत्रों को देखकर और धन पदार्थों को देखकर मन अहँकारी हो रहा है और परमात्मा को अपने दिल से भूला बैठा है। सगी संबंधियों के मरने पर तेरा मन जाँच करता हैं कि धन कितना मिलेगा। इस प्रकार तूनें यह उत्तम और श्रेष्ठ जीवन ऐसे ही गँवा लिया है। तेरे बाल सफेद, कमल के सफेद फूल से भी अधिक सफेद हो गए हैं। तेरी आवाज मध्म यानि कम या कमजोर हो गई है यानि साँतवें पाताल से आती है। तेरी आँखें अन्दर धँस रही हैं। तेरी चतुराई वाली बुद्धि कमजोर हो चुकी है। तो भी काम वासना की मधानी तेरे अन्दर चल रही है। भाव अभी भी काम की वासना तेरे अन्दर जोरों पर है। इन्हीं काम वासनाओं के कारण तेरे अन्दर विषय-विकारों की झड़ी लगी हुई है। तेरा शरीर रूपी कमल फूल कुमहला गया है। जगत में आकर तूँ परमात्मा का भजन छोड़ बैठा है। समय निकल जाने के बाद पीछे हाथ मलता रह जाएगा। अपने पुत्र और पोतरों को देखकर मनुष्य के मन में इनके लिए मोह पैदा होता है, अहँकार करता है, पर इसको समझ नहीं आती कि सब कुछ यहीं पर छोड़कर जाना होता है। आँखों से दिखाई देना बन्द हो जाता है फिर भी मनुष्य ओर जीने का लालच करता है। आखिर में शरीर का बल खत्म हो जाता है और जब जीव पँछी शरीर में से निकल जाता है। तो मुर्दा शरीर घर के आँगन में पड़ा हुआ अच्छा नहीं लगता। बेणी जी कहते हैं, हे संत जनो ! अगर मनुष्य सारी जिन्दगी में इसी हाल में रहा, भाव जीते जी मोह और विकरों आदि से मुक्त नहीं हुआ, जीवन मुक्त नहीं हुआ तो यह सच जानो कि ऐसे मरने के बाद मुक्ति किसी को नहीं मिलती।)

इस शब्द का भावः जगत की माया में फँसकर मनुष्य प्रभु की याद भुला देता है, सारी उम्र विकारों में ही गुजारता है। बुढापे में सारे अंग कमजोर हो जाते हैं, फिर भी ओर ओर जीने की लालसा करता जाता है, परन्तु परमात्मा की याद की तरफ फिर भी नही लौटता और परमात्मा का नाम नहीं जपता। इस प्रकार से मनुष्य जन्म को ऐसे ही गँवा देता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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